ग़ज़ल
1
तिश्नगी (प्यास)
सांस जाये टूट पर ज़िंदा रहेगी तिश्नगी
बेकरारी का बने कोई सबब तू तिश्नगी
कर के तर न हो सकेगी ये कमी पूरी कभी
कर हलक अपना तू तर और मुझको देदे तिश्नगी
तेरे लब से मिल सके न जब तलक मेरे ये लब
तब तलक कायम रहेगी लब पे मेरे तिश्नगी
छोड़ पीना इससे शायद होगा कुछ हासिल नहीं
क्योंकि हर इक घूंट से बढ़ती रहेगी तिश्नगी
पास तेरे बैठ कर अक्सर मुझे ऐसा लगा
अब भी उतनी ही है जितनी दूर रहकर तिश्नगी
जीने का मतलब भी शायद जानता था मैं नहीं
तूने जीने का दिया मौका है मुझको तिश्नगी
फलसफों की हर इबारत हर्फ़ों का था सिलसिला
जब तलक समझा नहीं था इस जहां की तिश्नगी
मैं भी तुझसे दूर था और तू भी मुझसे दूर था
फासले मिटते गये तेरी बदौलत तिश्नगी
उस जहां भी रहेगा ऐसे ही बेचैन तू
इस जहां में रूह को गर दे न पाया तिश्नगी
रस्म ए उल्फत पर तू लिख ले सैकड़ों अशआर तू
पर मैंने इतना ही जाना होती है क्या तिश्नगी
2
फासला
सिर्फ मैं था इसलिए मिटता नहीं था फासला
छोड़ मैंने ‘मैं’ को देखा मिट गया हर फासला
बन के सुखा पत्ता हो जा इन हवाओं पे सवार
ये हवाएँ दूर कर देंगी तेरा हर फासला
छोड़ ये तिनका, ये तिनकों के कभी बस में नहीं
डूब जा गहरे समुन्दर और मिटा दे फासला
तेरी यादों के सहारे कट रही थी चैन से
आये हम तुम पास तो बढ़ने लगा ये फासला
कर सको महसूस शिद्दत से तो मंज़िल सामने
वर्ना अपने बीच में है फासला ही फासला
दफ़्न हो जा ख़ाक में और बीज की मानिंद सड़
पेड़ बन के तू मिटा दे आसमां से फासला
टेढ़े-मेढ़े रास्तों में खो गया तेरा वजूद
छोड़ के राहों को देखो मिट रहेगा फासला
ओढ़ते ही जा रहा था जो भी मिलता था यहाँ
था नहीं मिटने को राज़ी इसलिए था फासला
खो ही देना सब से पहली शर्त पाने की यहाँ
खोने से डरते रहे बढ़ता गया ये फासला
आज जाकर रु-ब-रु हूँ इश्क की सच्चाई से
प्यार की सच्ची कसौटी बस यही है फासला।
अनिल जैन
बी-४७, वैशाली नगर
दमोह ( म. प्र. )