सनत जैन की कहानी – बैरागी

बैरागी

’सोचता हूं मैं रेवती की बात मानकर उसके साथ रहने लगूं।’ अचानक दूसरी बातों के बीच बैरागी कह उठा। मैं चौंक उठा। उसकी ओर ध्यान से देखा चिन्ताओं के काले बादल उसके सर पर मंडरा रहे थे। लगभग तीस बरस की आयु वाला बैरागी पचास बरस से ज्यादा का नजर आ रहा था। उसके माथे पर चिंता की रेखायें स्थाई रूप से अपना डेरा जमा चुकी थीं। उसका गोरा चेहरा मलीन सा लग रहा था।
’ये रेवती अचानक तुमको कैसे याद आ गयी। और तुम भूल गये कि तुम्हारी पत्नी और दो बच्चे तुम्हारे गांव में तुम्हारे भरोसे ही पड़े हैं।’
’तो मैं क्या करूं भैया! इस मंदी में दुकान किराया और बिजली बिल निकालना मुश्किल हो रहा है। लोग तो कपड़े पहनने ही बंद कर दिये हैं ऐसा लगता है। बीस लाख का माल भरा है और बिक्री दो हजार! मैं रेवती की बात मान कर उसके साथ रहूंगा तो मेरी सारी परेशानियां दूर हो जायेंगी। उसकी करोड़ों की प्रापर्टी है उसमें बने मकानों का किराया ही पचास हजार रूपया आता है….’
’और उसकी एक लड़की है अठारह बरस की उसका क्या। क्या वह लड़की अपनी मां के ऐसे रिश्ते को मान लेगी ? इस उम्र में उसके प्यार मोहब्बत में फिसलने के दिन हैं और उसकी मां के प्रेम और प्रेमी को स्वीकार कर सकेगी ?’ सागर उसे समझाता हुआ बोला।
’तो फिर उस कविता के साथ रह लूं! उसके तो बच्चे भी नहीं हैं और फिर उसकी सरकारी नौकरी भी है। सत्तर हजार रूपये से कम उसकी तनखा नहीं है। उसकी आय से घर भी चलेगा और दुकान को भी सपोर्ट मिल जायेगा। कब तक यूं ही घुट घुट के जीना पड़ेगा। आप ही बताओ भैया! इस कोरोना के बाद तो भयंकर मंदी का आलम है। व्यापार बड़ा मुश्किल हो गया है। आपकी बात मैं हमेशा बड़े भाई की सलाह की तरह मानकर लेता हूं। आप बताइये मैं आखिर क्या करूं?’ वो रूआंसा सा बोलने लगा। ये बैरागी किस राग में पड़ गया।
मैं क्या करूं ?
मैं क्या करूं ?
मैं क्या करूं ?
लगातार यही शब्द गूंज रहे थे। मुझे ऐसे लगा कि किसी समुंद्र में डूब रहा हूं। छटपटाकर उठने की कोशिश करता हूं पर उठ नहीं पाता। यूं लगता है किसी ने मुझे किसी तालाब की गहराई में जमीन पर कील और रस्सी के सहारे जकड़ दिया है।
सारा बदन गीला हो गया। सांसें धौंकनी की तरह चलने लगी। भयंकर छटपटाहट के बाद आखिर सांसों को हवा सी मिली। मेरी आंखें भी तब खुल गयीं। देखा घुप्प अंधेरा है परन्तु देख कर समझ आया कि से तो मेरा पलंग हैं और बाजू में मेरी पत्नी प्रिया भी सोयी है साथ में छुटकू मेरे ऊपर अपनी छोटी सी लात डाल कर बेसुध सोया हुआ है। प्रिया भी अपने हाथों को अपने माथे पर रखी सोयी है।
मैं सबकुछ एक पल में बदल जाने पर आश्चर्य से भरा हुआ था। कहां अभी बैरागी की दुकान में बैठकर उससे बातें कर रहा था और कहां अभी अपने कमरे में पहुंच कर अपनी पत्नी के साथ सो गया। समय के कुछ पल खर्च होते ही सारी बातें एक एक करके समझ आने लगीं।
;ये बैरागी को रोज रोज ऐसे ऑफर मिल कैसे जाते हैं ? मुझे तो आजतक ऐसे ऑफर नहीं मिले। किसी ने नहीं कहा कि मेरे साथ रहो या फिर मुझसे विवाह कर लो। एकदम सूखी सी लाइफ लग रही थी।
क्या सच में ऐसा है ?
तभी पत्नी ने करवट बदला। अबकी बार उसका चेहरा मेरी ओर था। खिड़की के कोने से सड़कबत्ती के उजाले की एक पतली सी किरण चोरी चोरी घुस रही थी कमरे में। उसने देखने में इतनी क्षमता भर दी थी कि अंधेरे में इतना तो देख पा रहा था।
अंधेरे में प्रिया की आंखें घूरती सी प्रतीत हुईं। दोबारा पसीने का दौर आ गया। शायद पत्नी की आंखों का तेज आग की तरह महसूस हो रहा था।
मेरे साथ बैरागी के जैसा बिल्कुल न था।
क्या नाम था उसका सुरभि, हां सुरभि ही तो था। उसके चलते मेरे जीवन में एक भयंकर तूफान सा आ गया था।
कितना हसीन था उसका मिलन। मेरी लाइफ में भले ही एक दो लड़कियों ने हलचल मचायी थी परन्तु ये दिल हमेशा से पागल ही थी। नये हसीन चेहरों की जरूरत न पड़ती थी। बल्कि साधारण चेहरों में विशेष खूबसूरती देख लेना इसका शौक था।
’था ?’ भचक से हंस पड़ा मैं रात के अंधेरे में, आवाज भी निकल गयी।
तभी प्रिया के बदन में फिर से हलचल हुई। मैं घबराकर आंखें बंद कर लिया। क्या सोचेगी वो, ये आधी रात को कौन भूतों की तरह हंस रहा है।
मैंने अपनी सांसें रोक ली ताकि उसकी भी आवाज प्रिया तक न पहुंच पाये। जाने कितनी देर तक यूं ही सांस रोके पड़ा रहा परन्तु मन रह रह कर सुरभि की यादों में खो गया।
कितना खुलकर मिली थी वह पहली ही बार में।
’सागर जी! शनिवार की चाय मेरी ओर से मेरे ऑफिस में। आयेंगे न वहां पर ?’
मेरे कान गर्म हो गये। मैं जड़ सा उसकी मुस्कराहट में फंसा चुप ही रहा। कुछ बोल ही नहीं पा रहा था। तब उसने मेरे पेट पर अपनी उंगली से दबाव बनाते हुये पुनः पूछा।
’क्या बोल रही हूं, सुन रहे हो न!’
मैं मना न कर पाया। मेरा सर स्वीकृति में हिल गया।
कितना अद्भुत था वो वक्त। सारे दिन और रात उसकी ही याद में गुजर गये। घर के बाहर लगा गुलमोहर और उस पर लगे लाल लाल फूलों के गुच्छे, आज जितने सुंदर और अपने से लग रहे थे कि उनको शब्दों में कहना बेहद मुश्किल था। भले ही मौसम गर्म था हवायें जला सी रहीं थीं परन्तु गुलमोहर तो अपनी बाहें फैलाये खुद में समा जाने को रह रह कर बुला रहे थे।
उनसे उठती तीखी सी गंध आज बेहद प्यारी लग रही थी। मैं उस चांदनी रात में ये नजारा देखता हुआ जाने किस शक्ति से बंधा हुआ आधी रात को घर से बाहर आ गया था। गुलमोहर की छांव में काफी देर तक बैठा ही रहा। उसके गिरे हुये फूलों को चुनता हुआ। अपनी गोद में रखता जा रहा था।
रात को बेहोश सा जाने कब तक यूं ही ये सब होता ही रहता अगर गली में कुत्तों का झुण्ड प्रवेश करके लगातार मुझ पर न भूंकता। मैं अपने बिस्तर पर लेटा हुआ साथ लाये कुछ फूलों को अपनी तकीये के नीचे रख लिया।
गुलमोहर की गंध में डूबा रहा मैं, जाने कब रात बीत गयी और सुबह हो गयी।
’ये बच्चे भी न, इन फूलों को लाकर बिस्तर में फेंक रखे हैं। समझते ही नहीं कि ये कोई जगह नहीं है इन सबको रखने की। आजकल के बच्चे बिस्तर पर खेलते हैं।’ प्रिया सुबह उठ कर बिस्तर झाड़ती हुयी बड़बड़ा रही थी। मैं सोया था बेसुध सा।
’सुनो जी! आज दुकान नहीं खोलनी है क्या! सोये पड़े हो गधे बेचकर।’
’गधे बेचकर नहीं घोड़े बेचकर। कभी तो कोई बात सही सही कहा करो। एक भी मुहावरा सही ढंग से प्रयोग नहीं करती हो।’ मैं मुस्कराकर बोला।
’तुमने ठीक ठीक देखा था कि जो गहरी नींद में सोया था उसने घोड़े ही बेचे थे, गधे नहीं बेचे थे। मुहावरे का मतलब है कि उस आदमी की परेशानियां दूर होते ही वह गहरी नींद में सो गया। अब वो गदहे बेचे या घोड़े। बात का मतलब समझ गये, बस बात खत्म। और जल्दी उठो बच्चों ने सारे पलंग पर कचरा फैला रखा है इसे साफ करना है।’ कहकर हंसती हुई प्रिया बोल उठी।
पर मेरे चेहरे से हंसी गदहे के सींग की तरह गायब थी। मैं एकदम से सीरियस हो गया।
’अरे तुमको क्या हो गया अचानक ?’ प्रिया की नजरों ने मेरे चेहरे के परिवर्तनों को ताड़कर पकड़ लिया था।
’मुझे क्-क्या हुआ ? मैं तो ठीक हूं।’ बमुश्किल शब्दों को खींचतान कर और फिर उनको जोड़कर बोल पाया।
’अरे। तो इसमें यूं घबराने जैसी क्या बात है। आप भी न बच्चों जैसे बन जाते हैं कभी कभी।’ प्रिया भी सीरियस सी हो गयी।
मैं चुप ही रहने की कोशिश कर रहा था परन्तु मन में चोर हो तो आदमी कुछ न कुछ सफाई जरूर देने लगता है।
’क्या बच्चों जैसा बन जाता हूं। अगर मैंने फूल उठा लाये हैं तो इसमें कौन सी ऐसी बात हो गयी। तुम तो हर बात का बतंगड़ बनाती हो। जरा जरा सी बात को बड़ा करना तो कोई तुमसे सीखे।’
ये सारी बातें प्रत्यक्ष रूप से न कह सका। मन ही मन में रह गयी ये बातें। आखिर डर भरा जो था मन में।
चुपचाप उठकर मोबाइल देखने लगा। वाट्सएप खोल लिया। और सीधे पहुंच गया सुरभि की वाल पर। खिला हुआ लाल गुलाब सामने मुस्करा रहा था। बदन एकदम से सुन्न सा हो गया। दुनिया भर से एकदम हट गया। न कोई भय न ही कोई लिहाज न ही….।
’आखिर देख क्या रहे हो इतने ध्यान से।’ कहती हुयी प्रिया मेरे एकदम नजदीक आ गयी। मैं पसीने पसीने हो गया उसकी इस हरकत पर।
एकदम से भाग कर सीधे बाथरूम में घुस गया। हल्के होते हुये समझ आया कि सर पर पैर रखकर भागना मुहावरे का अर्थ कितना भयानक होता है।
जल्दी जल्दी नहा धोकर भगवान के सामने हाथ जोड़कर पूजा करने लगा। आज भगवान जी के दर्शनों का मन बहुत हो रहा था। पूजन करते हुये पता ही न चला कि नाश्ते का समय हो गया है।
नाश्ते और खाने के दौरान नजरें झुकी ही रहीं। सारे वक्त मुझे प्रिया की घूरती आंखों की गड़न महसूस होती रही।
फिर भी बार बार मोबाइल देखना छूट ही न रहा थ।
दोपहर के बाद शाम की चाय दुकान में ही होती है परन्तु आज की चाय टेबल पर रखी रखी ठण्डी हो गयी थी। दुकान का स्टाफ रमेश शाम की चाय के बाद पूछ बैठा।
’क्या हुआ भैया! आज चाय पीना भूल गये हैं या फिर चाय में कुछ गिर-विर गया है ?’
उसके प्रश्न पर मैं चौंक उठा। सारा दिन वाट्सएप में गुजरा और वह भी उसकी वाल पर। मैं यही चेक करता रहा मन कि शायद अब और कुछ आ जाये। कहीं रमेश ने ये सब देख तो नहीं लिया। मन में शंका पैदा हो गयी थी। जरा सावधानी बरतते हुये हर ओर चोर नजरों से नजर रखने लगा।
उसका मेसेज रोज मिला परन्तु शनिवार की सुबह तक सिर्फ खिला हुआ लाल गुलाब ही पहुंचा।
प्रिया मेरे माथे को रोज रात को छूकर पूछना नहीं भूलती थी कि ’आजकल आपकी तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही है।’
और मैं जरूर कहता -’अरे! कुछ भी तो नहीं हुआ है। बस आजकल दुकान में काम कुछ ज्यादा हो जाता है।’ और वह चुपचाप मेरे सीने पर हाथ रखकर लेट जाती। मानों उसे कुछ शक सा हो गया हो और अपने सामान को पकड़कर रख लिया हो।
’अरे! आज शनिवार है। भूल गये क्या ?’ मैं दुकान की चाबी आलमारी से ले रहा था तब प्रिया ने टोका। मैं चौंक गया। शनिवार का दिन वैसे तो हमारी दुकान बंद करने का दिन होता है परन्तु किसी का इंतजार करना वह भी खाली बैठकर पहाड़ चढ़ने की तरह का काम होता है इसलिये दुकान खोलकर बैठने जा रहा था।
’अरे! भई दुकान की जरा साफ सफाई कर लूं। बहुत दिन हो गये हैं, सफाई किये हुये बहुत जाले लग गये हैं। क्या आज से पहले कभी शनिवार को दुकान नहीं खोलने गया हूं क्या ?’ मैं हंसकर बोलना चाहता था परन्तु न तो चेहरे पर हंसी आयी न ही मुस्कराहट दिखाई पड़ी।
प्रिया ने अपनी बड़ी बड़ी आंखों को और बड़ा करके देखा। पर वह चुप ही रही। उसका चुप रहना मुझे शंका से भर रहा था। मुझे मेरी हरकतें पर जमकर शंका हो रही थी मुझे लग रहा था कि मैं जरूर कुछ न कुछ ऐसी हरकत कर रहा हूं जो मेरी चोरी को सार्वजनिक कर रही है। मगर मैं बेसुध सा चोरी और फिर सीनाजोरी की तर्ज पर काम कर रहा था।
आखिर वो शाम आ ही गयी सुरभि के साथ भेंट की जिसका ये दिल बेसब्री से इंतजार कर रहा था। शहर से लगभग बाहर वाले इस होटल में किसी के साथ बैठना मेरे लिये असंभव सी बात थी परन्तु जाने किस डोर से बंधा मैं सब करता जा रहा था। फिर भी अपनी ओर से तसदीक करता हुआ चल रहा था कि कोई कहीं देख तो नहीं रहा है।
सबसे किनारे वाली सीट की ओर कदम जा रहे थे। वहां बैठने के बाद भी वह सीट होटल में सबसे किनारे की सीट होने के बाद भी वह बीचोंबीच की सीट सी लगी। अब कुछ कुछ अपनी आंखें शुतुरमुर्ग की तरह बंद करके मैं सुरभि के रंगीन साथ का अभूतपूर्व आनंद लेता रहा।
उसकी एक खास आदत बेहद अच्छी थी। वह बातें करती हुयी अपनी उंगलियों और हथेलियों से बीच बीच में मुझे स्पर्श जरूर करती थी। उसकी नर्म उंगलियों का एक स्पर्श…..अहा!
चाय का कप पकड़ाती हुयी बोली -’आपका साथ मुझे बेहद अच्छा लग रहा है। आप बेहद प्यारे हैं आपकी बातें भी आपकी तरह प्यारी हैं…..!’
इन शब्दों के बाद सुनायी देने के अलावा दिखायी देना भी बंद सा हो गया था। चाय का कप मेरी उंगलियों ने पकड़ा ही नहीं था। तब सुरभि ने मेरे पेट पर अपनी हथेली से चपत लगा कर कहा -’क्या हुआ सेठ जी! किस दुनिया में खो गये!’
मैं अचरज से भरा हुआ था या आनंद से भरा हुआ था, ये बात समझ से परे थी। मन एकदम गीला सा हो गया था। पैंतालिस की उम्र में यूं बीतना एक सपने से भी कुछ अलग ही था।
आनंद के कई गोते लगा ही रहा था कि तभी रंग में भंग पड़ गया।
’अरे सुरभि! तुम ? यहां क्या रही हो ?’ इन प्रश्नों के साथ ही उसकी आंखों में भी प्रश्न तैर रहे थे जो हम दोनों के सामने खड़ा था।
’अरे रमेश तुम! तुम यहां कहां ? इस होटल में ? तुम तो होटल जाना पसंद नहीं करते हो। फिर आज कैसे?’ सुरभि ने चहकते हुये जवाब दिया। जवाब क्या दिया बल्कि प्रश्न ही पूछ लिया।
प्रत्युत्तर में उस सफाचट मुखड़े वाले ने अपनी भौंहों का उपयोग करते हुये मुझे दिखा कर इशारों में पूछ लिया -’ये कौन ?’
सुरभि अगले ही पल बोली -’ये मेरे वो हैं।’
अगले ही पल वह अपना मुंह गोलाकार करके ’वॉव’ की आवाज निकाला। और फिर- ’कानग्रेच्यूलेशन! सुरभि!!’ कहकर सुरभि से हाथ मिलाया।
’थैंक्स!’ सुरभि ने मुस्करा कर कहा।
वह हाथ हिलाकर चला गया। सबकुछ एक ही पल में हो गया। मुझे सोचने का मौका ही न मिला। उस सुरभि ने क्या कहा दिया और उस सफाचट चेहरे वाले ने ’कानग्रेच्यूलेशन’ क्यों कह दिया। मैं एकदम हैरान परेशान और तनाव में आ गया जबकि उस सुरभि के चेहरे पर मुस्कान हावी थी। उसके चेहरे का ताब देखते ही बन रहा था।
चायवाले ने समेसे की प्लेट रख दी सामने और हम दोनों की ओर एक एक बार दृष्टि फेंक कर मुस्कराता हुआ चला गया। सुरभि की मुस्कान अचानक से मुझे चुभने सी लगी। ये क्या बात हुई कि कुछेक मुलाकातों में ही…..। मेरा माथा घूम सा गया। ये सुरभि का यूं…..!
’अरे! क्या सोच रहो आप! समोसे लीजिये ठण्डे हो रहे हैं।’ सुरभि ने मेरी हथेली को पकड़कर कहा।
मैं मरी सी आंखों से उसकी हथेली की ओर देखा। मेरा मन एकदम से बदल गया। मैं जिस सुरभि के इंतजार में सप्ताह भर से मरा जा रहा था उसी सुरभि की एक हरकत ने सच में मुझे मार दिया। मैं ये सब सोचता चुप ही रहा कि पुनः मेरा बदन हिला। सुरभि मेरे पास आकर मेरे कंधे को पकड़कर हिला रही थी। उसका दूसरा हाथ मेरे कंधे पर रखा था। जिसकी लंबी लंबी नरम उंगलियों का अहसास कंधे से उतर कर नीचे तक बहुत अच्छे से महसूस हो रहा था।
’आखिर आपको अचानक हो क्या गया है ?’ सुरभि ने चिंता व्यक्त करते हुये कहा।
’त-तु तुमने ऐसा कैसे कह दिया कि मैं तुम्हारा वो हूं ?’ मैं सीधे प्वाइंट पर आ गया। मेरी आवाज थरथरा जरूर रही थी परन्तु दृढ़ता भी थी। होटल की मध्यम लाइट और एसी की ठण्डक अब एकदम से भयानक लग रही थी।
’ऐसा क्या कह दिया मैंने, जो इतना तनाव हो गया आपको ?’ उसकी बड़ी बड़ी आंखों में तुरंत ही सजलता आ गयी। उसने नादान बनकर पूछा।
मैं उसके जवाब के बाद उसके चेहरे को और ज्यादा आश्चर्य से देख रहा था।
’क्या किसी गैर मर्द के लिये अपना ’वो’ कहना कोई बड़ी बात नहीं है ? मैं किस तरह तुम्हारा वो हो गया हूं ?’ मैं टेबल पर अपनी हथेली पटक कर पूछा। गुस्सा और चिड़चिड़ाहट मेरी हरकत से व्यक्त हो रहा था।
वह अपनी कुर्सी पर बैठ कर अपनी हथेली ठुड्डी पर रखकर मुस्कराती हुई बोली-’क्यों मुलाकातों का क्या मतलब है ?’
’मुलाकातों का ?’ मैं मन ही मन एक ही पल में गिन लिया कि कितनी मुलाकातें हुई हैं। ’आज तीसरी बार मिल रहे हैं न ?’
’तो क्या जन्म जन्मान्तर तक मिलेंगे तब….?’ उसकी मुस्कराहट जरा और गहरी हो गयी।
मेरी आंखें चौड़ी हो गयीं। मैं अचरज से भरा जा रहा था। किस आसानी से सुरभि इस तरह की बातें कहती जा रही थी।
’मात्र तीन मुलाकात में ही एक दूसरे को हम समझ गये हैं ?’
’शायद इतना ही काफी है।’ उसने फिर मुस्करा कर कहा।
मेरा दिमाग दौड़ रहा था बेहद तेजी से शायद इलेक्ट्रॉन की गति से। परन्तु सारी बातें समझ से बाहर महसूस हो रही थीं। एकाएक मैं बोला।
’तुम जानती हो कि मैं एक विवाहित व्यक्ति हूं। और दो बच्चे भी हैं मेरे।’
’आपके चेहरे की परिपक्वता बता रही है ये सब। और मुझे इतना जानकर करना ही क्या है।’ बगैर एक पल गंवाये उसने मुस्करा कर जवाब दिया।
मैं उसके जवाब के बाद एकदम झटके से खड़ा हो गया। मेरे चेहरे में हवाइयां उड़ रहीं थीं।
’आखिर तुम चाहती क्या हो मुझसे ?’ मेरे चेहरे पर घबराहट छा गयी।
’मैं चाहती हूं ?’ अचानक उसके तेवर बदल गये। ’मैं चाहती हूं या कि तुम मेरे पीछे लगे हो। तुम मुझे अपनी गिरफ्त में लेने को डोरे डाल रहे हो। और अब पूछते हो कि मैं तुम्हारे पीछे लगी हूं और तुमसे कुछ चाहती हूं।’ उसका गोरा चेहरा लाल होते ही बेहद खूबसूरत लग रहा था परन्तु इस वक्त तो जान अटकी पड़ी थी।
मैं इस अप्रत्याशित स्थिति के लिये तैयार न था। परन्तु क्रोध के आवेग में भी मेरा मन जानता था कि सार्वजनिक जगह में लोग लड़की का ही पक्ष लेकर मुझे ही मारेंगे। कोई सही गलत पूछने की चेष्टा नहीं करेगा।
मैं चुपचाप अपनी कुर्सी से उठा और होटल के काउंटर पर पहुंचकर बिल चुकता हर दिया। और बगैर एक पल गंवाये अपने घर की ओर चला आया।
अपनी मोटर साइकिल का स्टार्ट करने वाला बटन दबाया। दो तीन बार दबया परन्तु बाइक स्टार्ट ही न हुयी। तब उसकी किक पैर से ढूंढ कर दो बार तेजी से पैरों से मारा। असफल ही रहा।
तभी सामने देखते ही ध्यान आया कि चाबी तो लगाया ही नहीं हूं।
तेज गति से चलती बाइक सीधे घर के आंगन में ही रूकी। स्टैण्ड लगाकर सीधे अपने कमरे की ओर लगभग दौड़ा।
घर में घुसते ही घर की अपनी ही माया होती है।
’अरे! इतनी हड़बड़ी में कैसे आ रहे हो।’ घुसते ही मालकीन ने पूछ लिया।
मैं उसे घूर कर देखना चाहता था क्योंकि अभी मैं तनाव में था और संभावित दुर्घटना से बचने की राह ढूंढना चाहता था।
परन्तु अपराधबोध से ग्रस्त मैं अपनी नजरें नीची किये चुपचाप ही पलंग पर लेट गया। प्रिया तुरंत माथे पर हाथ रखकर देखने लगी कि मेरी तबीयत को क्या हुआ है।
’बॉम लगा देती हूं। अच्छा लगेगा।’ कहकर वह उठी। अगले ही क्षण उसके हाथ में बॉम की शीशी थी। बॉम की खुशबू से नाक भर गयी। पत्नी का स्पर्श सुखद महसूस हुआ। परन्तु कुछ बुरा होने की संभावनायें प्रेत की तरह इर्द गिर्द घूम ही रहे थे।
’आखिर हुआ क्या है बताओगे नहीं ?’ प्रिया परेशान होकर फिर पूछी।
मैं प्रिया के बार बार पूछने से तनावग्रस्त हो गया। उसका हाथ झटक कर माथे से हटाना चाहता था।
परन्तु अगले ही पल उसकी हथेली अपने दोनों हाथों से पकड़कर अपने चेहरे से लगाकर लगभग रो ही पड़ा। मुश्किल से पांच या छह मिनट लगे होंगे सारी बातें बताने में। सारी बातें सुनकर मेरा मन हल्का सा हो गया था। मैंने जैसे ही अपनी बात पूरी की ठीक वैसे ही प्रिया की हथेली बेजान सी होकर मेरी गोद में गिर गयी।
अब वह रो रही थी। मैं घबराकर उसे देखने लगा। मैंने उसका हाथ पकड़कर उसे संभालना चाहा।
’दूर रहो मुझसे हाथ भी न लगाना मुझे। तुम्हारे जैसे लंपट आदमियों के साथ ऐसा ही होना चाहिये। ठीक करी वह तुम्हरे साथ। तुमको तो फंसा कर चकरघिन्नी की तरह घुमा घुमा कर सरेराह बेइज्जत करना जरूरी है। दिनरात तुम्हारे लिये जीने मरने वाली मैं और हमारा परिवार; और चले गये उस कीचड़ में लोटने। कितनी गंदी जात होती है आदमी की…..।’ प्रिया ने बाम की शीशी पटक दी। पास पड़े गुलदान को भी जमीन पर फेंक दिया। छुटकू आवाज सुनकर दरवाजे तक आया और भीतर का दृश्य देखकर तेजी से भाग गया।
वह क्रोध से भरी बिफरती रही मुझपर और मैं रास्ता देखता रहा कि कब उसका क्रोध शांत हो तो वह मेरी समस्या का हल ढूंढे। क्योंकि अब उस सुरभि से मात्र और मात्र प्रिया ही बचा सकती थी। मात्र तीन मुलाकातों में ही मुझे अपना बना लेने का दावा करने वाली से मेरी पत्नी ही बचा सकती थी। मैं अगर सुरभि का विरोध करता तो जनमानस के क्रोध का सामना करना ही पड़ता और बदनामी अलग मिलती। एक औरत का सामना अगर औरत ही करे तो ठीक हो। और फिर मेरी पत्नी का अचूक बाण ’वो सुरभि कलमुंही इनके पीछे पड़ी है।’ मुझे दुनिया से बचाकर मेरी बनी बनाई इज्जत भी बचाये रख सकता है।
मैं पास रखे जग में पानी भर कर उसके सामने रख दिया। मैं बड़ी ही याचक मुद्रा में उसको देख रहा था कि कब उसका क्रोध शांत हो तो मैं उसके चरणों में गिरकर माफी मांग लूं। पर बड़े ही अचरज की बात थी कि हमेशा एकदम शांत रहने वाली, गाय की तरह की जीव आज किस रूप में आ गयी है।
आखिर नारीत्व जाग ही गया। मेरी प्रार्थना सफल हुई है या फिर नारी अपने अपमान के लिये सतर्क हुयी है, समझने की शक्ति न थी मुझमें।
’मैं भी तो देखूं उसका चेहरा जिसने मेरी दुनिया उजाड़ने की कोशिश की है। मुझे बताओ वो कहां रहती है। मैं उसका चेहरा नोच आउंगी।’ प्रिया चिल्लाकर बोली।
उसकी इस घोषणा से मैं अब अजीब सी मुसीबत में फंसा हुआ महसूस कर रहा था। कद्दू छुरी पर गिरे या छुरी कद्दू पर गिरे कटना तो कद्दू को ही था। मेरा मानना था कि अभी चुप बैठा रहा जाये अगर सुरभि कुछ उत्पात मचाये तब उसे प्रिया घेरे। अभी अगर सुरभि से लड़ने जायेंगे तो बातें तो बनेंगी ही। लोग जान ही जायेंगे। जो भी सुनेगा वह यही मानकर चलेगा कि धुआं उठ रहा है यानी आग तो होगी ही। व्यर्थ की बदनामी मोल लेने से क्या फायदा।
पूरे दो दिन लगे प्रिया और मुझमें समझौता होने में कि वह सुरभि से लड़ने की पहल नहीं करेगी।
’शाम को काफी देर इंतजार किया परन्तु खाने के लिये कहा ही नहीं प्रिया ने। किचन में जाकर ढूंढने पर खाना मिल गया। चुपचाप निगलता हुआ सोच ही रहा था कि प्रिया की आवाज आयी।
’खाना मिल गया खा लो, बर्तन मांज कर रख देना।’
इसके अलावा हमारे बीच अबोला ही बना रहा। ये आने वाले दिनों के लिये भी आदेश था।
चाय और पानी की व्यवस्था बंद कर दी गयी थी। नाश्ते में भी सिर्फ बच्चों के लिये ही खाने की सामग्री बनायी जा रही थी। गनीमत थी कि घर में सोने के लिये सोफे की सुविधा ही बहाल थी। मोबाइल देखने पर अघोषित निषेध था। सोने का समय जल्दी हो गया था। तमाम परिवर्तनों के एकसाथ आ जाने पर सबकुछ बोझिल सा था परन्तु जो संभावनाशील समस्या थी वह इन सबसे कहीं ज्यादा बोझ भरी थी।
मैंने भी सोचा था कि सुरभि की नौकरी मेरे लिये अमृत बन कर आयेगी। एकदिन मजाक में कह भी दिया था मैंने प्रिया को।
’सुनो, प्रिया! तुम दिन भर खटती रहती हो काम में। मुझसे ये देखा नहीं जाता।’
प्रिया के चेहरे की मुस्कान अद्भुत थी ये सब सुनकर। वह पूछी-’तो ?’
’तो क्या ? मैं चाहता हूं कि तुम एक रानी की तरह रहो।’ मैंने राजाओं की तरह हाथ लहरा कर कहा। तो वह मुस्करा उठी।
’अच्छा! वो कैसे ?’
’मैं सोचता हूं कि तुम्हारे लिये एक अच्छी कामवाली ले आउं हमेशा के लिये…..ब्याह कर।’ कहकर मैंने आंख मार दी।
अगले ही पल दृश्य बदला हुआ था। प्रिया के चेहरे की हंसी गायब हो गयी थी। मैंने पुनः कहा -’सोच लो, नौकरी वाली है। काम भी करेगी तुम्हारा और तुम्हारी गोद में पैसे भी धरेगी।’
’सुनो जी! मुझसे ऐसे मजाक बिल्कुल न किया करो। मुझे ऐसे गंदे मजाकों से घिन आती है। तुम ऐसा सोच भी कैसे लेते हो।’
’अरे यार! मैं तो यूं ही बस…..’
’अपने ’यूं ही’ अपने पास रखा करो। मुझे पास मत किया करो।’ कहकर प्रिया अपने काम में लग गयी।
मैंने ठण्डी सांस लेकर अपने भविष्य की संभावनाओं के लिये भगवान की ओर बड़ी हसरत से देखा। ’हे भगवान! अच्छे दिन दिखाना। बड़ी उम्मीदों का दीया जलाया है प्रभु इसे बुझने से बचा लेना।’ कहकर मैं भी अपने दुकान की ओर चल पड़ा।
तभी बैठक की लाइट बंद हो गयी। शायद प्रिया ने बंद कर दी थी। मेरी सोच में विघ्न पड़ गया था।
’खैर! इन बातों को आज सोचने से क्या फायदा। सुरभि से कैसे जान बचे इस विषय पर सोचना ज्यादा जरूरी है।’ मैं ठण्डी सांस लेकर लेट गया।
रात की अनिश्चितता के पश्चात एक सुबह का सूरज राह लेकर आ गया।
’सुनो! नाश्ते में आलू पराठे बनायी हूं आ जाओ नाश्ता करने।’
प्रिया की आवाज थी। मैं सोफे पर पड़ी सलवटों को घृणित नजरो ंसे देखा।
’प्रिया तुम्हारी जय हो! मेरे तीन साढ़े तीन माह के तप पर तुम्हारी भावनायें पिघल ही गयीं।’ मेरे मुंह से हल्की सी आवाज निकली। सामने भगवान का जो छोटा सा मंदिर था उस ओर ध्यान ही नहीं गया।
प्रिया ने अपने अपमान और उसके पीछे छिपे मेरे सम्मान को आखिर बचा ही लिया। उसकी कीमत थी पूरे तीन माह! तीन माह की तपस्या से घर और प्रिया के साथ मेरा संबंध सामान्य हो पाया। इस बीच अपने अस्थिर भविष्य की कल्पना से प्रिया का रातों को रोना धोना भी कई दिनों तक रूक रूक कर चलता रहा। वह कई बार छुटकू से कहती रही थी। ’बेटा! तू अपने बाप जैसा निष्ठुर मत बनना।’ और वह सिसक सिसक कर रोती।
नाश्ते के बाद खाने का भी आमंत्रण मिला। और फिर अपने कमरे में भी वापसी हो गयी।
’कितना नर्म है ये पलंग।’ पलंग पर लेटते ही मेरे मन ने सोचा। आंख बंद करते ही मन ने पूछा परन्तु आज भी एक बात अनुत्तरित रह गयी कि सुरभि ने तीन मुलाकातों में ही मुझे अपना क्यो मान लिया था ? मेरी किस्मत की लाटरी लगी थी या फिर और कुछ था ?
प्रश्नों के उत्तर ढूंढ ही रहा था कि प्रिया का हाथ मेरी छाती पर आ गया। सुबह के छह बजने का संकेत था ये।
’अरे! अपने बैरागी का क्या हुआ ?’ मन के किसी कोने से आवाज आयी। और िचिंता की लकीरों से भरा उस बैरागी का चेहरा नजर आया।
’बेचारा बैरागी! क्या सोचकर उसका नाम बैरागी रखा था उसके मां बाप ने!’
मुस्कुराहट सी छा गयी मेरे चेहरे पर।

सनत कुमार जैन

जगदलपुर

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