अज्ञेयः अन्वेषी पत्रकारिता के समर्थ शिल्पी
अज्ञेय जी का जन्म फागुन शुक्ल सप्तमी, संवत 1967 यानी 07 मार्च 1911 ई0 को उत्तर प्रदेश के देवरिया जनपद के ‘कसया’ नामक स्थान में एक पुरातत्व खुदाई शिविर में हुआ। अज्ञेय के पिता पं0 हीरानंद शास्त्री भारत सरकार के पुरातत्व विभाग में उच्च अधिकारी थे। संस्कारी और स्वाभिमानी प्रकृति वाले पिता, तत्कालीन स्कूली शिक्षा से आश्वस्त नहीं थे, फलतः अज्ञेय की प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई। संस्कृत पंडित से रामायण, रघुवंश, हितोपदेश आदि पढ़ा, मौलवी से फारसी से सादी आदि को तथा अमेरिकी पादरी से अंग्रेजी पढ़ी। बाल्यावस्था के कुछ वर्ष लखनऊ, श्रीनगर और जम्मू में बीते। सन् 1919 में पिता के साथ नालंदा, फिर वहां से पटना गए।
हिन्दी भाषा का संस्कार अज्ञेय ने पिता से ही प्राप्त किया, जो समय के साथ निरंतर बढ़ता रहा। अंग्रेजी अच्छी तरह सीख लेने पर अंग्रेज और अंग्रेजी दोनों के प्रति उनके मन में वितृष्णा पैदा हो गई।
सन् 1921 से 1925 तक दक्षिण में नीलगिरी में रहे और यहीं उन्होंने अपने पिता के सम्पन्न पुस्तकालय का भरपूर सदुपयोग किया। यही पर किशोर कवि का परिचय मैथिलीशरण गुप्त, श्रीधर पाठक और हरिऔध की कविताओं से हुआ, जिसका गहरा प्रभाव अज्ञेय पर पड़ा। इन कवियों के प्रभाव के चलते उन्होंने छंदो का खूब अभ्यास किया। इनकी पहली कविता लाहौर में अपने कॉलेज की पत्रिका में पहली कहानी एक बालचर पत्रिका ‘सेवा’ में छपी। अज्ञेय ने अंग्रेजी गीतांजलि के प्रभाव में उसी ढंग के कुछ रहस्यवादी गद्य गीत लिखें, जो कभी छपे नहीं और जेल प्रवास के दौरान खो भी गए। लाहौर के ‘फार्मन कॉलेज’ में बीएससी की पढ़ाई के दौरान ही वे ‘नौजवान भारत सभा’ के संपर्क में आये और एक गुप्त युवा क्रांतिकारी दल का गठन किया, जो 1929 में ‘हिन्दुस्तान सोसलिस्ट पब्लिक आर्मी’ में मिल गया, तब तक वे बीएससी पास करके एमए अंग्रेजी (प्रथम वर्ष) में प्रवेश ले चुके थे। वह पढ़ाई कभी पूरी नहीं हुई, क्योंकि उनका क्रान्तिकारी जीवन आरंभ हो गया था, जो 1936 तक चला। 1930 में बम बनाने के सिलसिले में गिरफ्तार किए गए। पुनः दिल्ली षड्यंत्र केस में कालकोठरी में बंद रहे। इसी जेल जीवन की गहरी यंत्रणा और संघर्ष के दौरान ‘चिंता’ की सारी कविताएं और ‘शेखर एक जीवनी’ भी लिखी गई। इस सात वर्ष की इस अवधि को डॉ0 विद्या निवास मिश्र ने ‘भट्ठी में गलाई’ की अवधि कहा है।
इसके बाद सन् 1936 में ‘सैनिक’ के संपादन मंडल में नियुक्त हुए, वहां साल भर रहे। सन् 1937 से 1939 तक ‘विशाल भारत’ में काम किया। सन् 1943 से दिल्ली में अखिल भारतीय फार्मासिस्ट विरोधी सम्मेलन का आयोजन किया। सन् 1940 में उन्होंने दमयंती से सिविल मैरिज की, जो जल्दी टूट गई। इसके पश्चात् उन्होंने एक अप्रत्याशित निर्णय लिया-सुरक्षात्मक युद्ध की अनिवार्यता में अपने विश्वास को प्रमाणित करने के लिए अंग्रेजी सेना में भर्ती हो गए। वे सन् 1945 तक ‘कोहिमा’ फ्रंट पर कार्यरत थे। अब तक इनके तीन कविता संग्रह – ‘भग्नदूत’, ‘चिंता’ और ‘इत्यलम’, तीन कहानी संग्रह- ‘विपथगा’, ‘परंपरा’, और ‘कोठरी की बात’ तथा उपन्यास ‘शेखर एक जीवनी’ छप चुके थे।
हिन्दी कविता के आधुनिक दौर की शुरूआत अज्ञेय द्वारा सन् 1943 में संपादित तारसप्तक से हो चुकी थी। तब से लेकर मृत्युपर्यंत उनकी साहित्यिक यात्रा चलती रही। मार्च 1947 में अज्ञेय इलाहाबाद आए और 1950 तक वहीं रहकर ‘प्रतीक’ का संपादन करते रहे। 1950 में दिल्ली चले गए और रेडियो की नौकरी करते हुए दो वर्ष तक ‘प्रतीक’ अकेले अपने बलबूते पर निकाला। सन् 1952 से 1955 तक उन्होंने भारत के विभिन्न कला क्षेत्रों, विशेष रूप से दक्षिण भारत की यात्रा की। इस बीच कपिला मलिक से उनका प्रेम हुआ और 07 जुलाई 1956 का उनके साथ विवाह सम्पन्न हुआ। इस बीच सन् 1949 में ‘हरी घास पर क्षण भर’, सन् 1951 में ‘दूसरा सप्तक’, सन् 1954 में ‘बावरा अहेरी’ तथा उपन्यास ‘नदी के द्वीप’ और यात्रावृत्तांत ‘अरे यायावर रहेगा याद’ भी छपा। सन् 1955 में ‘यूनेस्को’ के निमंत्रणपर अज्ञेय यूरोप भ्रमण पर चले गए। ‘एक बूंद सहसा उछली’ नामक पुस्तक इस यात्रा की परम उपलब्धि है। इस प्रवास की अवधि में ही ‘इंद्र धनु रौदें हुए ये’ की कविताएं लिखी गई, जो 1957 में छपीं। फिर एक-दूसरे निमंत्रण पर अज्ञेय जी जापान गए और सन् 1958 में वहां से लौटे। इनका प्रभाव अज्ञेय की आधुनिकता और भारतीयता संबंधी लेखन में साफ झलकता है। सन् 1960 में दूसरी बार यूरोप की यात्रा पर निकल पड़े। इस दौरान उन्होंने मसीही संस्कृति की साधना की गहराइयों में गोता लगाया। फ्रांस में वे रूढ़ीवादी पादरी पियरे दनियेलू से मिले और एक महीने तक ‘पियरे कि वीर’ में मठ में रहे। मसीही संस्कृति को जान लेने के बाद उनमें हिंदू धर्म के प्रति आकर्षण और बढ़ गया। आनंदकुमार स्वामी के चिंतन, रामकृष्ण परमहंस के अनुभव तथा विवेकानंद के उत्सर्ग ने उन्हें गहरे प्रभावित किया। संत कवियों में कबीर, सूर, मीरा ने उन्हें समृद्ध किया। सन् 1961 में वे केलीफोर्निया विष्वविद्यालय में भारतीय संस्कृति और साहित्य के अध्यापक नियुक्त हुए। इसी अवधि में ‘आंगन के पार द्वार’ कविता संग्रह तथा ‘अपने-अपने अजनबी’ उपन्यास छपे। ‘आंगन के उस पार’ कविता संग्रह पर उन्हें अकादमी पुरस्कार भी मिला। सन् 1964 में स्वदेश लौटने पर उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे महीनों अस्पताल में रहे। सन् 1964 में उनके परम आत्मीय मित्र गजानन माधव मुक्तिबोध तथा आदरणीय दद्दा मैथिलीशरण गुप्त की मृत्यु ने उन्हें झकझोर कर रख दिया। सन् 1965 में ही उनके छोटे भाई पूर्णानंद की असामयिक मृत्यु ने उन्हें अंदर से तोड़ा दिया। इसके बावजूद उन्होंने सन् 1965 में ‘दिनमान’ साप्ताहिक का कार्यभार संभाला और छह महीने के भीतर उसे शिखर पर पहुंचा दिया। इस बीच उन्होंने कई बार विदेश यात्राएं कीं। सन् 1969 में ‘दिनमान’ से अलग हो गए और केलीफोर्निया विश्वविद्यालय वर्कले पुनः लौट गए। सन् 1965 के बाद उनके दो कविता संग्रह ‘सुनहले शैवाल’ और ‘कितनी नावों में कितनी बार’ प्रकाशित हुए। ‘कितनी नावों में कितनी बार’ पर उन्हें सन् 1978 में ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला।
साहित्य और पत्रकारिता की जो दूरी आज है, वह पहले न थी। प्रायः साहित्यकार ही पत्रकार भी हुआ करते थे। इसलिए उनकी पत्रकारिता में गहरी मानवीय संवेदना निहित रहती थी। अज्ञेय जी भी इसी परंपरा के पत्रकार थे।
सबसे पहले सन् 1936 में वे मेरठ से निकलने वाले ‘सैनिक’ के संपादक मंडल में नियुक्त हुए और साल भर तक रहे। इसके पश्चात् सन् 1937 में बनारसी दास चतुर्वेदी के आग्रह पर कलकत्ते से निकलने वाले ‘विशाल भारत’ में डेढ़ वर्ष तक रहे।
सन् 1947 में उन्होंने इलाहाबाद से ‘प्रतीक’ नाम प्रसिद्ध साहित्यिक त्रैमासिक निकाला। प्रतीक के माध्यम से उन्होंने कला, संस्कृति के क्षेत्र में अभिव्यंजना का नया संदेश देने का प्रयास किया। यही नहीं उन्होंने नई पीढ़ी के साहित्यकारों और चिंतको को आगे बढ़ाने का कार्य भी किया। सन् 1947 से 1952 तक ‘प्रतीक’ चला, पर उसका स्तर कभी गिरा नहीं।
सन् 1965 में अज्ञेय जी के ‘दिनमान’ साप्तहिक का संपादन आरंभ किया, यद्यपि इसके लिए उन्हें अपने घर-परिवार तथा दोस्तों-मित्रों का विरोध सहना पड़ा। घर परिवार के लोग इसलिए विरोध कर रहे थे उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं था। बाहरी यानी दोस्त-मित्र इसलिए विरोध कर रहे थे कि पत्रकारिता साहित्य के लिए बाधा स्वरूप है। पर अज्ञेय जी संपादन के लिए वचनबद्ध हो चुके थे, किसी को स्वीकृति देकर वे उससे मुकरना नहीं चाहते थे। दूसरी खास बात यह थी कि वे हिन्दी पत्रकारिता के स्तर को उठाना चाहते थे। दरअसल वे इस क्षेत्र में नया प्रयोग करना चाहते थे। इसके अलावा एक और जबरदस्त कारण था कि ‘अज्ञेय स्वातंर्त्योत्तर भारत में अपनी राष्ट्रीय प्रतिबद्धता का निर्वाह करने के लिए यह जरूरी समझने लगे कि गैरपेशेवर राजनैतिक मत का सामने आना आवश्यक हो गया है। पेशेवर राजनीतिज्ञों के हाथ में देश को सौंपकर चुपचाप बैठ जाना जनतंत्र के लिए वांछनीय नहीं है।’
कदाचित यही वे कारण हैं, जिनके चलते उन्होंने अपना समूचा संगठनात्मक सामर्थ्य, कल्पना और मनोयोग से दिनमान को संपादित किया। जिसके चलते छह महीने के भीतर ही उसे हिन्दी का नहीं, राष्ट्रीय स्तर का एक प्रतिष्ठित और विश्वसनीय पत्र बना दिया। हिन्दी पत्रकारिता से जुड़े लोगों के लिए अब उसे नजरअंदाज करना अंसभव हो गया। वस्तुतः दिनमान के माध्यम से अज्ञेय जी ने हिन्दी पत्रकारिता को नया और ऐतिहासिक आयाम दिया, जिसकी महत्ता आज भी लोग स्वीकार करते हैं। अंग्रेजी में ‘टाइम’ और ‘न्यूज वीक’ जैसी पत्रिका उसके बाद प्रारंभ हुई। यह अज्ञेय जी की अभिरूचि और दृष्टि का ही परिणाम था कि रघुवीर सहाय, मनोहर श्याम जोशी, श्रीकांत वर्मा, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और प्रयाग शुक्ल जैसे साहित्यकार दिनमान से जुड़े और पत्रकारिता को एक नया भाषाई संस्कार दिया। ‘दिनमान’ ने न केवल गैरपेशेवर राजनैतिक दल को स्थान दिया, वरन् पाठकों को भी चौकन्ना और परिपक्व बनाया। न जाने कितने लोग दिनमान में दीक्षित होकर पत्रकार बने। ‘दिनमान’ में ‘पिछले सप्ताह’ कालम के अंतर्गत देश-विदेश की महत्वपूर्ण घटनाएं अति संक्षेप में किन्तु सटीक रूप में प्रस्तुत की जाती थी। ‘चर्चे और चरखे’ के अंतर्गत समसामयिक महत्वपूर्ण टिप्पणियां तलस्पर्शी विवेचना के साथ प्रस्तुत होती थीं। गंभीर विश्लेषण करता हुआ दृष्टिसम्पन्न ‘संपादकीय’ जिसमें समकालीन प्रमुख राष्ट्रीय- अंतराष्ट्रीय घटनाओं और संदर्भो को बिना लाग-लपेट के प्रस्तुत किया जाता था।
‘दिनमान’ के कार्यकाल में अज्ञेय की राजनैतिक प्रतिबद्धता के संदर्भ में तरह-तरह की बातें उठी। कोई उन्हें कांग्रेस सरकार का समर्थक तो कोई समाजवादी तो किसी ने कुछ और कहा। अज्ञेय जी ने इसकी कभी सफाई नहीं दीं, बल्कि ‘दिनमान’ की संपादकीय नीति अपने-आप धीरे-धीरे सामने उभरती गई। वस्तुत अज्ञेय की प्रतिबद्धता राष्ट्र के प्रति थी। राष्ट्र उनके लिए सांस्कृतिक इकाई थी, मात्र राज्य के रूप में संगठित इकाई नहीं। अज्ञेय जनतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास करते थे और अपने को संगठित अनुशासित समाज में रहने वाला प्राणी मानते थे। इसलिए वे किसी राजनैतिक दल के प्रति प्रतिबद्ध होने में कोई हीनता नहीं देखते थे, पर उनके लिए उनके समय में ऐसा कोई दल नहीं था, जिसके प्रति प्रतिबद्ध हुआ जा सके। उन्होनें हर क्षेत्र में संकीर्णता के विरूद्ध आवाज उठाई और देश के स्वाभिमान को जिस किसी व्यक्तव्य और नीति से चोट पहुंचती हो, उसकी उन्होंने खासी मरम्मत की। यहीं नहीं उन्हें जहां कहीं भी राजनैतिक चिंतन में अस्पष्टता, असंगति और छल दिखाई पड़ा, वहां उन्होंने उसका पर्दाफाश किया। यह उनके दलविहीन चिंता का प्रमाण नहीं, बल्कि राष्ट्रीय चिंतन का प्रमाण है। उन्होंने बिना किसी मुरव्वत के शासनतंत्र की विफलताओं की आलोचना की। तत्कालीन अकाल समस्या को लेकर भिखमंगी और आत्मतुष्टि की निंदा की है। इसी के साथ उन्होंने मानवीय संवेदनाओं के प्रति गहरी चिंता जताई है।
सन् 1967 के उत्तरार्द्ध में उन्होंने सूखाग्रस्त बिहार की यात्रा की। पत्रकार की हैसियत से नहीं, बल्कि एक संवेदनशील मनुष्य की हैसियत से। इस यात्रा का उद्देश्य गहरे मानवीय संकट का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त करना था। साथ ही साथ इस प्रकार की परिस्थिति की भयावहता की ओर सफेदपोश और तटस्थ लोगों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए उन्होनें तमाम मर्मस्पर्शी चित्र खींचे और दिल्ली में चित्रों की प्रदर्शनी लगाई। ‘दिनमान’ के माध्यम से उन्होंने यह प्रयन्त किया कि देश का पढ़ा-लिखा आदमी देश के ऐसे संकट को अपना संकट समझ सके। ऐसे संकट के प्रति शिक्षा देने वाले का भाव न रखकर संकट के लिए लज्जा और दुख का भाव रखे, इसकी जमीन तैयार की। अंततः उन्होंने सन् 1969 में ‘दिनमान’ त्याग दिया।
सन् 1972 में उन्होंने जय प्रकाश नारायण के आग्रह पर अंग्रेजी के एक नए वैचारिक साप्ताहिक ‘एब्री मैन्स’ का संपादकत्व ग्रहण किया, पर साल भर तक इस साप्ताहिक को एक निश्चित आकार देने के बाद उन्होनें अनुभव किया कि यद्यपि ऊपर से कागज पर संचालन एक स्वायत्त दिखने वाली संस्था का है, पर परिस्थितिवश भीतर से इसका प्रबंध क्रमशः एक व्यक्ति के हाथों में जा रहा है। ‘एब्री मैन्स’ की यह बदली हुई स्थिति उन्हें स्वीकार नहीं थी, इसलिए दिसंबर 1973 में वे इस पत्र से भी अलग हो गए। सन् 1973 में उन्होंने अपने मित्रों और सहकर्मियों से बात करके फिर से ‘प्रतीक’ के नए सिरे से निकालने की योजना बनाई। फलतः दिसंबर 1973 से ‘नया प्रतीक’ मासिक का प्रकाशन आरंभ कर दिया। बहुत से लोगों ने इसे तमाशे के रूप में लिया कि यह दो दिन चलेगा और फिर बंद हो जाएगा। कुछ लोगों ने अज्ञेय पर आक्रमण करने के लिए इसे एक नये मसाले के रूप में देखा था पर अधिकांश लोगों ने, जो खेमाबद्ध नहीं थे, ‘नये प्रतीक’ को नई आकांक्षाओं और नई प्रतिभाओं की अभिव्यक्ति के लिए एक सशक्त माध्यम के रूप में देखा।
सन् 1977 के अगस्त में उन्होंने दैनिक ‘नवभारत टाइम्स’ के संपादन का कार्यभार संभाला। उन्होंने हिन्दी दैनिक पत्रकारिता में अंग्रेजी दैनिक पत्रकारिता का विकल्प बनाने का प्रयास किया। उनके जमाने में नवभारत टाइम्स को अनदेखा करना मुश्किल हो गया था। सन् 1979 में उन्होंने नवभारत से अवकाश ग्रहण किया। इस तरह पत्रकारिता के क्षेत्र में भी अज्ञेय जी का विशिष्ट योगदान हैं, पर उनके विराट साहित्यिक व्यक्तित्व के नाते उसे प्रायः अनदेखा कर दिया जाता है। आगे चलकर अज्ञेय जी ने ज्ञानपीठ की पुरस्कार राशि से ‘वत्सल निधि’ की स्थापना कर कला और साहित्य के प्रति उसे समर्पित कर दिया। अंततः 04 अप्रैल, 1987 को अज्ञेय जी हमेशा के लिए हसमे विलग हो गए।
डॉ. पी.एन.द्विवेदी
257-रामबाग गाँधीनगर, बस्ती (उ0प्र0)
पिन-272001
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