परिचय : नसीम आलम ‘नारवी’-लोकबाबू

देखो देखो आफ़ताब रहा

भिलाई इस्पात संयत्र को कच्चा लोहा उपलब्ध कराने वाली खदानों से घिरी हुई एक छोटी- सी नगरी है। पहली बार सुनने वाले को यह ‘दिल्ली शाहदरा’ का भ्रम देती है। प्रदेश के नक्शे पर यह नगरी भले ही छोटी हो, किन्तु मजदूर-आंदोलनों ने इसे बहुत शोहरत दी। मान्यता प्राप्त यूनियन एस.के.एम.एस. और शंकर गुहा नियोगी के मुक्ति मोर्चा ने कभी प्रदेश और देश को भी आन्दोलित कर रखा था। तब एस.के.एम.एस. की कुछ कार्यावधि के लिए सेक्रेटरी हुआ करते थे-आदरणीय नसीम आलम नारवी जी।
एक तो मजदूर नेता और दूसरे शायर। दोनों ही श़ौक ऐसे कि परिवार को आर्थिक और सामाजिक मोर्चे पर यह संदेश देते से लगते-हमारे भरोसे मत रहना।….अब परिवार अपने मुखिया पर भरोसा न रखे, उस पर आश्रित न हो तो क्या करे! सो भरोसा किया और दुख भी उठाया। मगर आन्तरिक खुशी का संबल था कि दूसरों के और बहुतों के काम आ रहे हैं। इसी ख़ुशी ने मुंह से कभी ‘उफ’ न निकलने दिया।
मंझोले क़द काठी के। थोड़े गोल मटोल। गेहूंआ रंग, तीखा तेज़ मिज़ाज। पल में मुगले-आजमी ठहाके, पल में गुरूदत्त-सी गम्भीरता। क़िस्सागोई के अंदाज़ में, किन्तु नफ़ासत से खरी-खरी कहने का माद्दा रखने वाले। नसीम आलम नारवी जब चलते हैं तो लगता है जैसे क़दम गिन-गिन कर चल रहे हों।…जान ले मुझे, जो न जानता हो, नाम मेरा नसीम आलम है।…हमेशा सचेत….क़दम कहीं ज़्यादा या कम तो नहीं हो गये। संगठन में कभी मत विभाजन का अवसर भी आता तो देखा जाता कि नारवी जी किधर हैं। फ़र्क़ तो पड़ता ही रहा।
यूं तो आपके जीवन में अनेक शहरों का साथ रहा। कामठी, कानपुर, नागपुर, चन्द्रपुर, वारसा, इलाहाबाद, राजनांदगांव आदि। कहना चाहिए घाट-घाट का पानी पिया। इसी पानी ने आपकी दृष्टि को विस्तार दिया। विचारों को मजबूती दी। यह दूसरी बात है कि इस मजबूती का ज़्यादा हिस्सा श्रमिक-यूनियन को गया और शायरी को कम। यूनियन के लिए आप नसीम आलम नारवी बने रहे और शायरी में ‘नसीम’ नारवी।
इलाहाबाद ज़िले की एक तहसील है-सिराथु। इसी सिराथु के एक कस्बे का नाम जाने कैसे ‘नारा’ पड़ गया। इसी नारा में आपका जन्म हुआ 4 मार्च 1938 को। जन्मभूमि से प्रत्येक को गहरा लगाव तो रहता ही है। आपको भी रहा। और जब शायरी में आये तो उपनाम ‘नारवी’ चल पड़ा। स्थायीत्व की खोज में पंइया-पंइया चलता हुआ यही ‘नारवी’ आकर लौह-खदान की इसी नगरी में ठहर गया। इस नगरी में आपको आत्मसात कर लिया या आपने इस नगरी को, कहना मुश्किल है।
1958, बीस साल की उम्र से ही आप वामपंथी आन्दोलन से जुड़ गये थे। महाराष्ट्र में वामपंथी नेता श्री ए.बी.वर्धन के कार्यक्षेत्र में उनसे सम्पर्क रहा। दो साल डटकर काम भी किया, मगर नौकरी धन्धा तो कुछ था नहीं। शादी, परिवार, बच्चे….ज़िम्मेदारी आगे आने वाली थी। सो, रोज़गार की खोज में निकल पड़े। महाराष्ट्र से मध्यप्रदेश (अब छत्तीसगढ़) की ओर। राजनांदगांव में चाचाजी थे। एक साल उनके पास गुज़ारा। काम की तलाश की, पर बात नहीं बनी। वहीं रहते उन्हें इस लौह नगरी में नौकरी की गुंजाइश दिखाई दी। यहां चले आये। कुछ समय यहां के प्रमुख व्यवसायी स्व.मनोहर जैन के पास प्रायवेट नौकरी की। फिर भिलाई इस्पात संयंत्र की इसी लौह खदानों की नगरी के लिए पक्की नौकरी का बुलावा आ गया। समझिये, मुंह मांगी मुराद पूरी हो गयी।
फिर क्या था, नौकरी के घंटो के बाद ज़्यादातर वक़्त श्रमिक यूनियन और वामपंथी कार्यक्रमों के लिए गुज़रने लगा। सक्रियता और उत्साह इतना कि बाद के वर्षों में नौकरी में नौ साल निष्कासन के भी काटे। मगर निराशा को ख़ुद पर हावी नहीं होने दिया। वह समय इस नगरी का स्वर्णिम काल था। तब इस नगरी की आबादी भी बहुत थी। कर्मचारी भी बहुत थे। इधर अब तो यहां की खदानों से लोहा चुकने लगा है। संयंत्र ने भी थोड़ी कन्नी काटनी शुरू कर दी। कर्मचारियों की संख्या कम होने लगी। तब जैसी रौनक़ अब इस नगरी की नहीं रही। बहुतों ने इस नगरी को इच्छा या अनिच्छा से छोड़ दिया। पर ‘नसीम’ नारवी जी कहीं नहीं गये। 1996 को रिटायर भी हो गये, मगर इस नगरी का नेह नारवी जी से न छूटा।
मूक रह कर सब सहन करती जीवन-संगिनी के साथ इस नगरी में अपना एक छोटा-सा घर होने का सपना देखा था। बहुत किराये के मकान में रह लिए थे। अब मकान तो किसी तरह बन गया, मगर 1994 में जीवन-संगिनी गुजर गयी। वह जीवन-संगिनी जिसने जनमते ही एक के बाद एक पांच संतानों को दुनिया से वापस लौटते देखा था। बस एक बेटा बचा रह गया किसी तरह। ख़ुर्शीद नाम है उसका। बिल्कुल पिता का हमशक्ल। ख़ुर्शीद और उसका नन्हा-सा परिवार ही अब आपका सहारा है। ख़ुर्शीद भी अपने अब्बा की देखभाल क लिए श्रवण की तरह समर्पित है। मगर विडम्बना यह कि उसे भी 40 की उम्र में अब जाकर एक प्रायवेट स्कूल में काम मिला है।
आपके पिता श्री स्व.हुसैन आलम नारवी स्वयं शायर थे। उन्हीं के दिशा निर्देशन में 18 साल की उम्र से ही आपने शायरी का अभ्यास शुरू किया। कालान्तर में कामठी के शायर स्व.हाफ़िज़ अनवर कामठी और छत्तीसगढ़ अंचल के उस्ताद शायर सलीम अहमद ‘जख़्मी’ बालोदवी से शायरी में मार्गदर्शन लेते रहे। लेकिन, जैसा कि आपने अपनी दिनचर्या नौकरी और यूनियन को आधार बनाकर व्यस्त कर डाली थी, साहित्य-सृजन के लिए पर्याप्त समय लिखने-पढ़ने का नहीं निकाल पाया। यह भी एक कारण हो सकता है कि इस छोटी-सी नगरी में शायरी का म़ाकूल वातावरण न मिला हो। जो भी हो, आपका बहुत कम लेखन सामने आया इसके बावजूद आप आसपास के नगरों में आयोजित मुशायरों में कभी-कभी शिरकत कर लिया करते। आकाशवाणी रायपुर और भोपाल द्वारा आयोजित अनेक मुशायरों और कवि सम्मेलनों में आपने अंचल और देश के प्रसिद्ध नामचीन शायरों और कवियों क साथ अपनी ग़ज़लों का पाठ किया। अनेक हिन्दी-उर्दू पत्र-पत्रिकाओं में आपकी रचनाएं प्रकाशित हुई। फिर भी वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य में नये लोगों के बीच आप अनजाने से हो गये हैं। आपकी कोई किताब नहीं छपी जो लोगों के हाथों तक पहुंचती।
नौकरी के शुरूआती चार साल मैंने इसी नगरी में गुजारे। मुझे याद है, ‘नसीम’ नारवी जी और उनके ही निकट मित्रों (डॉ. आनन्द नारायण दसानी, श्री जगन्नाथसिंह, स्व. लोकेन्द्र यादव आदि) के सहयोग और भरोसे से ही हमने यहां प्रगतिशील लेखक संघ की इकाई गठित की थी। 1982 में हमने यहां प्रलेस का सम्भागीय अधिवेशन भी आयोजित किया था, जिसमें छत्तीसगढ़ अंचल के नामचीन लेखकों की भागीदारी थी। यह तब अविभाजित दुर्ग ज़िले का प्रलेस का पहला बड़ा आयोजन था। बाद में आपके मिलकर हमने यहां ‘इप्टा’ और ‘इक्कस’ की इकाइयां भी गठित की थीं। उन दिनों की सक्रियता और उत्साह का स्मरण कर आज भी रोमांच होता है। ‘नसीम’ नारवी जी कहते हैं संगठन में युवा लोगों को जोड़कर फिर उन्हीं दिनों को वापस लाया जा सकता है।
छत्तीसगढ़ प्रगतिशील लेखक संघ और इसके पूर्व महासचिव श्री प्रभाकर चौबे के प्रयासों से ‘नसीम’ नारवी जी की ग़ज़लों का यह संग्रह आज आपके हाथों तक पहुंचा है। मार्च 2016 में बिलासपुर में आयोजित प्रलेस के तीसरे राज्य सम्मेलन के दौरान जब संगठन की ओर से अपने वरिष्ठ और सम्मानीय सदस्यों के अभिन्ंदन की बात आयी तो यक-ब-यक नसीम आम नारवी जी का ख़्याल बहुतों के ज़ेहन में आया। यह कमी खलने लगी कि आपकी एक भी किताब नहीं छपी है। तय किया गया कि क्यों न संगठन और साथियों के सहयोग से यही कर लिया जाये।
इधर जीवन के उत्तरार्द्ध में ‘नसीम’ नारवी जी की आंखों ने भी साथ देना छोड़ दिया। मगर अब भी आपकी जुबान में वही खनक वही बानगी शेष है। सम्हलकर, सहारे-सहारे चलते हुए भी वही क़दम-क़दम का हिसाब बाक़ी है। औरों की सहायता लेना, अपनी ‘असहाय’ हालत का प्रकट करना, आपका कभी पसंद न रहा। आप स्वयं उम्रभर लोगों का होम्योपेथी की दवा से मुफ़्त इलाज करते रहे। दूसरों की मदद ही आपके जीवन का लक्ष्य रहा। आज अपनी ‘असहाय’ हालत पर उन्हें ज़रा रंज भी है। मगर अब भी एक लौ भीतर कहीं टिमटिमा रही है, आश्वस्त करती -सी कि जो बिगड़ना था, बिगड़ गया और अब जो कहीं कुछ होता ही है तो वह अच्छा ही होगा। आपकी ही ये पंक्तियां हैं-
मैं बिल्कुल ख़ुली किताब रहा / उनको पढ़ने से इज़्तिनाब रहा।
अब अंधेरों की फिक्र कैसी ‘नसीम’ / देखो-देखो वो आफ़ताब़ रहा।।


लोकबाबू
311, लक्ष्मीनगर
रिसाली, भिलाई नगर
छ.ग.
पिन-490006
फोन-09977030637