चित्रों का जादुई संसार
यदि मानव की सृजनात्मकता का कैलेंडर बनाया जाए तो उसमें क्रमवार वास्तुकला से लेकर सुई से की जाने वाली कढ़ाई-बुनाई, बेथोविन की सिंफनी का संगीत, शेक्सपीयर के नाटक से इंडोनेशिया में बनने वाले कपड़े तक, मुगल पेंटिंग से जापान की कठपुतली कला, वेनिस के बने लेस, चीन की कैलीग्राफी या सुलेख आदि की लुभावनी भूल-भुलैया का ज़िक्र आएगा. मेरा कहना इस संदर्भ में है कि कला ईश्वर का दिया हुआ उपहार है और ऐसा उपहार बस्तर के जनवासियों को भरपूर मिला है. अभी हाल ही में नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली की अनुवाद योजना के अंतर्गत होने वाली कार्यशाला में शामिल होने का मुझे मौका मिला. यह छत्तीसगढ़ के कोंडागॉंव जिले में थी. उसके पहले भी स्थानीय निवासियों के सहयोग से बाल कहानियां तैयार करवाने के संबंध में नेशनल बुक ट्रस्ट दिल्ली के निमंत्रण पर बस्तर जाने का मौका मिला था. कोंडागांॅव की कार्यशाला में जनजातीय बोली जैसे भतरी, हल्बी, गोंडी की बच्चों के लिए पुस्तकें तैयार होनी थीं और उन्हें एक दूसरी बोली में जैसे हल्बी की गोंडी में और इसके उलट भतरी को हल्बी में अनुवादित करना और उसके अनुरूप उस पर चित्र बनाने का काम करना था. मजे की बात यह कि कहानियों को लिखा भी वहीं के लोगों ने था और उसका एक से दूसरी भाषा में अनुवाद भी वहीं के लोगों ने किया था अब इन कहानियों पर चित्र भी बस्तर के ही लोगों को बनाना था. मैं इस कार्यक्रम में भाषा विशेषज्ञ के तौर पर नेशनल बुक ट्रस्ट की ओर से निमंत्रित थी. कहानियों के अनुवाद पर कुछ काम पहले हो चुका था. भारत में बहुभाषिकता की स्थिति होने का कारण अनुवाद का महत्व और भी बढ़ जाता है. सभी अनुवाद संतोषजनक थे. अब उन पुस्तकों की कहानियों पर आधारित चित्र बनाने का काम भी वहीं होना था. चित्र बनाने में हिस्सा लेने वाले सब लोगों का उत्साह देखते बनता था. जिसने मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित किया वह चित्र बनाने के लिए आई महिलाएं थी. उनकी निष्छल मुस्कुराहट और गजब के आत्मविश्वास और दूसरे भागीदारों के मुक्त रूप से हँसी-मजाक ने तीन दिन तक चलने वाली कार्यशाला को आनंदोत्सव जैसा माहौल कर दिया था.
बात मैंने कला से शुरू की थी फिर वहीं लौटती हूँ. वहां आए सभी चित्रकारों के बनाए चित्रों ने मुझे एक जादुई संसार में पहुँचा दिया था. कहते हैं कि इतिहास में फैली हुई पुनरावृति समूचे इतिहास की पूर्व कल्पना करती है. हम जितना ही पीछे की ओर जाते हैं पुनरावृति उतनी ही अधिक भव्यता में आवृत होती जाती है तो यही पुनरावृति वहाँ शामिल हुए चित्रकारों के लोक कला पर आधारित बनाए चित्रों में दिखाई दे रही थी. लोक कला जो बस्तर की प्राचीनता में रची-बसी है. चित्रों में रंगों का चयन, रेखांकित आकृतियों का सुडौलपन और सबसे बड़ी बात कि दी गई कहानी पर आधारित करके उसकी पृष्ठभूमि में प्रकृति चित्रण. छत्तीसगढ़ वन संपदा के मामले में समृध्द माना जाता है. यह बात अलग है कि दुर्भाग्यवश अब जंगलों की तादाद कम दिखाई दे रही है पर वहाँ आए चित्रकारों के चित्रों में वनों का हरापन झलकता ही जा रहा था. कम से कम मुझे यह देखकर ऐसा लग रहा था कि यहाँ रहने वाले लोगों के भीतर प्रकृति गहरी पैठ बनाए हुए है जो उनकी विचारशक्ति को झकझोरती है और उन्हें श्रम की हिम्मतनुमा पूंजी को पुनः इकट्ठा करने की ओर प्रेरित करती है जो एक शुभ संकेत है. मैं जब बस्तर आ रही थी तो जिससे भी कहा कि मैं बस्तर जा रही हूँ, उन्होंने मुझे वहाँ न जाने की सलाह दी. कारण एक तो नक्सलवादियों का काल्पनिक डर उस पर उन्हीं दिनों होने वाले लोकसभा चुनाव का माहौल. मैं उन सबकी शंकाओं की परछाईं के साथ ही इस बार यहाँ आई थी. कुछ संयोग भी ऐसा हुआ कि कोंडागांव के छत्तीसगढ़ टूरिज़्म के धनकुल रिसार्ट में जहाँ रहने का प्रबंध था वहाँ बी. एस. एफ. के नौजवान जो चुनाव के दौरान सरकार की ओर से वहाँ के इलाके में सुरक्षा की दृष्टि से काम पर लगाए गए थे वे उसी रिसार्ट में डेरा डंडा जमा लिए थे. पता नहीं क्यों उन सुरक्षाकर्मियों की चहल-पहल से मैं सहज नहीं हो पा रही थी. इसलिए वहाँ की वह पहली रात डर के साए में जैसे-तैसे कटी. सुबह वे सब सिपाही अपने बी. एस. एफ. के कैंप में खिसका दिए गए. यह सब देखकर मैं यही सोचती रही कि कभी-कभी किसी इलाके की संपदा ही उसका अभिशाप बन जाती है. कोई भी प्रदेश आज के लोलुप युग में अपने अलगाव में रहना भी चाहे तो सुरक्षित नहीं रह सकता. यही इस क्षेत्र के साथ भी हुआ है. सुबह सबेरे सैर करते हुए जब रिसार्ट से बाहर निकली तो गेट के बाहर एक आदमी जांघिया पहने लकड़ियों की बल्ली काटकर अपनी गाय के रहने के लिए परदा सा बना रहा था. मैंने पूछा यहाँ पहाड़ी मैना कभी आती है? वह हँसकर बोला,’जी आती है पर बहुत कम. पेड़ कट रहे हैं वह आए भी तो कहाँ?’ फिर पूछा, ‘आप यहाँ दो चार दिन तो रहेंगी? अगर आई तो बता दूंगा.’ और फिर अपने काम में लग गया. सामने सड़क पर कुछ लोग बतियाते हुए दुनिया से बेखबर चले जा रहे थे. इतनी दैन्य गरीबी, इतने उत्पीड़न-शोषण के बावजूद ये लोग महुआ और सलफी पीते या न पीते हुए, आपस में हँसते-बतियाते हुए कितने सुखी निश्चिंत और स्वाधीन दिखाई दे रहे हैं. कोई भी सरकार कोई भी क्रांति अर्थहीन है जो यहाँ के लोगों को विकास का छल और नया मनुष्य बनाने के बहाने उनकी इस आजादी और खुशी को छीने. ऐसे में बस्तर में औषधीय वनस्पति के क्षेत्र में अपने विशिष्ट कार्य के लिए जाने जाते डॉ0 राजाराम त्रिपाठी की लिखी कविता मुझे कहीं अंदर तक कुरेद गई.
मुझे मेरा बस्तर कब लौटा रहे हो?
मुझे मेरा बस्तर कब लौटा रहे हो
वापस ले जाओ अपनी नियामतें
उठा ले जाओ चाहे,
अपनी सड़कें, खंभे, दुकानें.
उठा ले जाओ चाहे,
बिना सांकल के बालिकाश्रम,
बिना डाक्टर के अस्पताल,
बिना गुरूजी के स्कूल.
बन्द कर दो चाहे भीख की रसद,
ये सस्ता चावल, चना, नमक की नौटंकी.
बिना साहब, मंत्री विधायक के भी हम जी लेंगे,
कोदो-कुटकी खा के, पेज-पसिया पी लेंगे.
बिना तुम्हारी नियामतों के भी,
हम जिंदा थे,
अब हम जी लेंगे.
आप तो बस मेरा बस्तर लौटा दो,
मेरे जंगल, मेरी जमीन, मेरी फसलें, मेरा घोटुल,
मेरी सोनचिरैया, मेरे त्योहार, मेला, मंड़ई.
मेरे साल वनों की शांति,
मेरे जवान होते, बच्चों की जिंदगी की गारंटी,
इन सबके साथ
मुझे मेरा बस्तर कब लौटा रहे हो.
कुसुमलता सिँह
संपादक ‘परिंदे’ हिंदी साहित्यिक पत्रिका
मो.-09968288050