बस्तर माटी की महक लोकगीतों में
बस्तर वनांचल में प्रकृति का सौन्दर्य अनायास ही सभी को अपनी ओर आकर्षित करता है. प्रकृति के बीच रहने का आदी यहाँ का जनजीवन प्रकृति की अनुपम छटा को अपने आप में समेटे हुए है. कुछ अरसे पहले तक मांदर की थाप में शहनाई की गूंज जब बियाबान जंगल के किनारे किसी गाँव में बज उठती थी, तब वहाँ के आदि संस्कृति वाहक युवा नर नारी के पैर उसी थाप पर थिरक उठते थे. वर्तमान में समय के साथ-साथ गाँवों के प्रचलन बदले हैं, रहन-सहन में बदलाव आया है. प्राकृतिक शोभा जो हमें दिखाई देती थी, वनों के कटने के साथ-साथ उसमें भी कुछ कमी आई है. शहरी संस्कृति व विकास के नये आयामों के साथ गाँवों में टी.वी. व मोबाईल ने अपना पैठ बना ली है. ऐसे समय में जो गीत परम्परा के साथ साथ चलते आये हैं, वे धीरे धीरे लुप्त होते चले जा रहे हैं. प्रश्न यह है कि वह लोकगीत जो युवाओं के द्वारा प्रश्नोत्तरी के रूप में गाये जाते थे, जिन्हें खेलगीत की उपमा दी जाती है; उन खेलगीतों के साथ ही अन्य पारम्परिक विधायें भी हैं, जो विलुप्ति की कगार पर हैं, उनका संरक्षण कौन करेगा ? इन लोक परंपराओं में विवाह गीत, मीत-मैतर, खेलगीत, लोक-नृत्य, लोक-आयोजन आदि सभी हैं, जिनका स्वरूप समय के साथ बदलता चला जा रहा है. एक निर्विवाद सत्य यह है कि बस्तर में आकाशवाणी एवं दूरदर्शन ने इनके संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. बस्तर के विभिन्न क्षेत्रों के लोकगीत यदा-कदा आकाशवाणी केन्द्र, जगदलपुर से सुनाई देते हैं. बस्तर की लोकबोलियों में प्रस्तुत कार्यक्रम ‘बस्तर के स्वर’ एवं ‘आमचों गाँव’ अभी भी बस्तर के ग्रामीण परिवेश को हूबहू प्रस्तुत करते हैं. परंतु समय के साथ-साथ रेडियो का चलन भी अब कम हो गया है. आज पुरानी परंपराओं के सहेजकर रखने का प्रश्न यूँ ही मुँह उठाये खड़ा है, इसके लिए कौन आगे आएगा, यह तो समय ही बताएगा. प्रस्तुत लेख में पारंपरिक गीतों की छटा को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करना हमारा मुख्य उद्देश्य है. बस्तर के लोकगीत सरस हैं, इन लोकगीतों में से खेलगीत ऐसे गीत हैं, जिन्हें समूह में युवा नर-नारियों के द्वारा रात्रिकालीन विचरण के दौरान गाया जाता रहा है. इन गीतों में से लेजा, मारी रो सोना, झालीआना आदि गीत हैं, जिन्हें क्रमशः एक के द्वारा गाये जाने पर उसका प्रतिउत्तर दिया जाता है. पहली पंक्ति प्रकृति पूरक होती है, एवं उसी तुक में मिली दूसरी पंक्ति होती है जिसमें अपने प्रेम भावों को अभिव्यक्त किया जाता है. झालीआना का उदाहरण देखिए-
एरे लंगलंगा कालिम बांगा,
हांडीर ढाकना टांगा.
आमर मन आचे तमरी काजे
तमरी मन के सांगा..
(ये लंगलंगा काले रंग का बैंगन है, हंडी में ढक्कन है, ये पंक्तियाँ अगली पंक्तियों के सरलतापूर्वक कथन के लिए हैं, दूसरी पंक्ति का अर्थ है कि हमारा मन (प्रीत) तुम्हारे लिए है, तुम्हारे मन की बात बताओ.)
इसी तरह दूसरा उदाहरण है-
आमो गाँव आचे डेंगी सिंदी गचे
सलंडिला नांग सांपो.
फूली मंद धरी माहला आसीलाय
न देला तोर बापो.
(हमारे गाँव में ऊँचा छिंद का वृक्ष है, जहाँ एक नाग सर्प रेंगता है, यह प्रथम पंक्ति है जो कि प्रकृति पूरक है. दूसरी पंक्ति में आशय व्यक्त होता है कि फूली मंद-उम्दा शराब लेकर तुम्हारे घर में हम मंगनी के लिए गये, लेकिन तुम्हारे पिता ने इनकार कर दिया.)
ये पंक्तियाँ पारंपरिक हैं, इनका उपयोग अक्सर खेलगीतों में किया जाता है. इसी तरह का एक और गीत है जो मामा-भांजी के संवाद के रूप में किया जाता है-
सदा रे ये भांची ना सदा रे भेटो.
डोली छतरो भांची डांडे उभारो.
सदा रे ये मामा ना सदा रे भेटो.
डोली छतरो मामा डांडे उभारो..
इसी तरह बस्तर जिले में मीत-मैतर की परंपरा है. जिसके साथ मन में प्रेम का आधिक्य हो, उसके साथ मित्रता बाँधी जाती है. इस मित्रता को डांडा माली, कोदो माली, भोजली, गंगाजल, महापरसाद गजाभूंग, दौना आदि किसी भी रूप में स्वीकार किया जा सकता है. डांडामाली के लिए प्रसिद्ध गीत है, जो गाया जाता है-
सड़क सुन्दरी मोटर गाड़ी
रामो बाजा दासो काड़ी रे डांडा माली
रामो बाजा दासो-काड़ी.
रामो बाजा दासो काड़ी रे डांडामाली,
तमके नी होये छांड़ी.
इस मीत-मैतर परंपरा में डांडामाली, कोदोमाली, दौना, बालीफूल अक्सर मित्रता की कोई ऐसी परिधि निश्चित नहीं करते, जो केवल पुरूष-पुरूष या महिला-महिला में हो. यहाँ पुरूष महिला के मध्य भी मित्रता स्थापित हो सकती है, जो कालान्तर में पति-पत्नी के रूप में परिवर्तित हो कर आजीवन मित्रता का सहज पर्याय बन सकती है. बस्तर के खेलगीतों की एक लंबी श्रृंखला है. इनके अतिरिक्त अन्य परंपराओं पर प्रकाश डालें, तो छेर छेरा गीत भी अनायास ही हमें आकर्षित करते हैं. लड़कियाँ घर-घर जाकर छेरछेरा पर्व में अनाज मांगती हैं व गाती हैं-
गुड़दुम-दुम गुड़दुम-दुम बाजा बाजिला
री नेवरा करीन
कोनोनी गांईन धंगड़ी नाचिला.
इसी तरह लड़के जब छेर छेरा नाचने जाते हैं तो हास-परिहास के संग गाते हैं-
झिरलिटी झिरलिटी पंडकी मारा लिटी.
डोकरा डोकरी झगड़ा होला,
चपुन दिला लुठी.
परंपरागत गीतां में अन्य भी ढेरों गीत हैं, जिन्हें इस कड़ी में प्रस्तुत किया जा सकता है. बस्तर में विवाह गीतों की एक लम्बी श्रृंखला है जो सामाजिक आधार पर अलग-अलग प्रजातियों को कुछ-कुछ अंतर लिए है. विवाह में अलग अलग रस्मों के लिए अलग-अलग लोकगीत गाये जाते हैं.
साथ ही वैवाहिक अवसरों में पारंपरिक ढोल, मोहरी तथा निसान आदि वाद्ययंत्र भी अभी यदाकदा ही देखने को मिलते हैं. शहरों के आसपास अभी इसका स्थान बैंडबाजों ने ले लिया है. शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ परंपराओं में भी परिवर्तन दिखाई देना स्वाभाविक है. परंपराओं के आधार पर चर्चा के क्रम में मेले मड़ई एवं ग्राम जगार महोत्सव में पारंपरिक मोहरी (शहनाई) की देवी धुनों में नाचते हुए देवी देवताओं को देखा जा सकता है. चूँकि संदर्भ पारंपरिक लोकगीतों के संरक्षण का है, अतः यह विचार मंथन उन सभी सुधि-जनों का दायित्व है जो बस्तर की नैसर्गिक चेतना से अपने जीवन का तार कहीं न कहीं से जुड़ा हुआ पाते हैं. पारंपरिक संस्कृति को संरक्षित करने के लिए क्या उपाय हो सकते हैं, यह सभी संस्कृति कर्मियों के लिए विचार एवं विचार मंथन के पश्चात कार्यरूप में परिणीति आज की पहली प्राथमिकता है. इस हेतु हम सभी को आवश्यक पहल अवश्य करनी चाहिए. समापन इन पंक्तियों के साथ-
लेजा लेजा लेजा लेजा पापा
किंदरी अमरबेल.
लगे आसे मारकंडी नंदी
डुबकी मारून खेल काय
लेजा रे होय पापा डुबकी मारून खेल.
(लेजा गीत में पहली पंक्ति अमरबेल प्रकृति पूरक है. दूसरी पंक्ति में आशय है कि पास में मारकंडी नदी है, जिसमें डुबकी लगाकर खेलने के लिए इंगित किया जा रहा है. ‘पापा‘ शब्द का उपयोग प्रेमपूर्वक छोटे बच्चों से संबोधन के रूप में किया जाता है.)
भरत कुमार गंगादित्य
जगदलपुर, छ.ग.
मो.-09479156705