परिचर्चा-वंदना राठौर

‘बस्तर पाति’ के विमोचन के अवसर परिचर्चा

‘लोक संस्कृति के संरक्षण में आधुनिक साहित्य का योगदान ?

आदरणीय मंच, विद्व श्रोताओं. निश्चित रूप से आज का विषय आकाश की तरह असीम है. फिर भी मैं कुछ बिन्दुओं पर प्रकाश डालते हुये अपनी बात कहना चाहूॅंगी. आज के विषय में दो प्रमुख शब्द ‘लोक संस्कृति’ व ‘आधुनिक साहित्य’ है. जहाँ तक ‘लोक’ शब्द का तात्पर्य है प्रत्येक आयु, वर्ग, जाति-समुदाय के द्वारा किसी भी स्थान, व समय पर जिया गया जीवन. लोक बोलियाँ, इस जीवन की उपजाऊ जमीन होती है. जीवन का हर पहलू संस्कार, त्यौहार, देवी-देवता, पूजा स्थल, समय, पद्धतियाँ, लोक गीत, लोक गाथा, तीर्थ यात्राएॅं, मेले, हाट बाजार, आस्था, ग्रंथ, लोक कलायें लोक नाट्य, परम्परा, विश्वास आदि लोक संस्कृति के प्रमुख पहलू होते हैं. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि लोक का वारिस हुआ जा सकता है स्वामी नहीं.
इसके विपरीत आधुनिक साहित्य! यूं तो हर आने वाले समय की चीजें आधुनिक कहलाती है. परन्तु जहाँ तक विचारधारा का प्रश्न है तो यह स्पष्ट कर देना होगा कि पश्चिमी चिंतन से प्रभावित भारी भरकम शब्द आधानिक साहित्य का आधार बन गये हैं. लेकिन प्रमुख रूप से भारत ही लोक है और इंडिया आधुनिक.
सामान्य तौर पर लोक संस्कृति से जुड़ा प्रत्येक कर्म लोक भाषा में, अक्सर स्थानीय तौर पर आसानी से उपलब्ध वस्तुओं से सम्पन्न होता है. यह उन लोगों के मध्य जीवित रहता है जो दुष्यंत के शब्दों में लोक को ओढ़ते बिछाते हैं. यानी बोली-भाषा, परम्परा, पहनावा, खान-पान, रीति रिवाजों में लोक जीवन को जीते हैं. उनके सुख-दुखों से साक्षात्कार नहीं करते, बल्कि वह उनका जीवन बनाते हैं. लोक भाषाओं में रचा गया साहित्य बहुआयामी और बहुस्पर्शी होता है.
एक आधुनिक वर्ग ऐसा भी है जिसके लिये लोक संस्कृति की बातें करना आधुनिक जीवन शैली को बनाये रखने के लिये नितांत आवश्यक है. यह विशिष्ट व्यक्तियों, विशेषज्ञों का लोक होता है. ऐसे लोग चिमटे से अंगार पकड़ते हैं. लोक की बातें करते हैं उसे सुविधानुसार धारण करते और उतारते रहते हैं. लोक से उन्हें उनका रक्त सम्बन्ध या लोक की सर्वव्यापकता नहीं जोड़े रखती अपितु स्वार्थ जोड़े रहता है. संचार क्राति के युग में भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में अग्रेंजी भाषा को विस्तृत बनाया है. इनके शब्द प्रत्येक भाषा, बोलियों में अतिक्रमण करते जा रहे हैं. लेकिन बस्तर में लोक बोलियों में रचना करके लोक संस्कृति को विस्थापन से बचाया जा सकता है. इस संबंध में हल्बी लिपि की रचना, एन.बी.टी. के द्वारा हिंदी की कविताओं का हल्बी भतरी में अनुवाद हेतु स्थानीय रचनाकारों की प्रतिभाओं का समुचित लाभ प्राप्त कर हल्बी बोली को समृद्ध बनाने सराहनीय कार्य विगत दिनों प्रकाश में आया है.
विपरीत इनके जब लोक में रचे बसे लोग, किन्ही कारणों से लोक से दूर हो जाते हैं तब स्मृति में लोक को जिंदा रखना, उसके संरक्षण के प्रयास करना या आधुनिक साहित्य का प्रचलित शब्द ‘‘जड़ों की ओर लौटना ’’ भी लोक संस्कृति के सरंक्षण का व्यक्तिगत स्तर पर दिल से किये गये प्रयासों में शामिल होना होता है.
इसके विपरीत उत्तर आधुनिकता, बाजारवाद, पूंजीवाद, लिव इन रिलेशनशिप, इन विषयों पर लिखी जा रही रचनाओं से लोक गायब हो रहा है. इनकी भाषा हिंग्लिशी होती जाती है. रचनाओं के शीर्षक ही ‘‘ कोबोल ’’ होते है. दीपावली पर दियों के स्थान पर चीनी बल्वों की झालरों ने जीवन के प्रमुख त्यौहार को मिट्टी से काट कर रख दिया है. चीनी पिचकारियों, रंगों ने पलाश को विदाई दे दी है. इसलिये लोक में जीने वालों को निजी जिंदगी में सम्मान प्रदान किये जाने की आवश्यकता है.

श्रीमती वंदना राठौर
गुरूद्वारा रोड, शांति-नगर,
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