गंध
सारे किचन में गैस सिलेण्डर की गंध फैल चुकी थी. दूध उफनकर शांत हो गया था और बर्नर पर गिरकर उसे भी शांत कर गया था. और वहीं खड़ी चंचल विचार मग्न थी. उसे न सिलेण्डर की बदबू आ रही थी ना ही दूध के गिरने से कोई फर्क पड़ा था क्योंकि दूध उफान के बाद ज़रूर ठंडा हो गया था लेकिन चचंल का मन अभी भी उफान पर था. अचानक छोटी बहन चारू के आने से चंचल का ध्यान हटा, ये क्या कर रही हो जल्दी बंद करो नॉब, पूरे घर में बदबू फैली है, कोई हादसा हो जाता तो ? चारू गुनगुनाती वापिस चली गई. चंचल क्या कहे किस हादसे से बचे ? घर के लोगों के प्रश्न, उनका गुस्सा, उनकी समझाइशों ने मानो चंचल के दिमाग में झंझावात पैदा कर दिया था. सारे लोग बढ़ी उम्र की दुहाई देकर उस आदमी के हाथों सौंप देना चाहते थे जिसके आने से चंचल को कोई खुशी नहीं हुई थी, ना दिल में कोई हलचल. ना जाने ये किस बात का संकेत था, पर अपनों ने ही उसे बार-बार जताया कि अब उसकी शादी हो जानी चाहिए. फोन पर दीदी जीजाजी फरमान सुना रहे होते , वे कहते कि तुझे चारू के बारे में सोचना है या नहीं ? एक दिन तो झल्लाकर चंचल ने कह भी दिया था- तो कर दो चारू की शादी मैं तो कब से कह रही हूं मुझे शादी ही नहीं करनी, मैं नौकरी कर रही हूं, आप लोगों पर ऐसे भी बोझ नहीं हूं. पर लगता है, सारे दुश्मन हो गये हैं. समाज और रिश्तेदारों के ताने और घर के लोगों की ज़िद ने चंचल को सोचने को मजबूर कर दिया है. क्या किसी भी लड़की के जीवन का अंतिम लक्ष्य शादी ही है ? क्यों घर और बाहर लोग उसे चैन से रहने नहीं देते , क्यों चारू हमेशा भृकुटी चढ़ाये बिना कहती है कि तेरे कारण मैं अटकी पड़ी हूं. और क्यों दीदी के ससुराल वाले दुजाहू वर से भी ब्याह करवा देने को उत्सुक हैं. मानती है चंचल भी कि अभी परसों जो व्यक्ति उसे देखने आया था वो इकलौता लड़का था, देखने में भी सुदर्शन था पर ब्याह करने की इच्छा ही नहीं थी, सो कुछ भी न सोचा, न उसके बारे में कोई पूछताछ की.
लेकिन आज रात जो हुआ वो निश्चय ही पूर्व नियोजित था, जैसे सारे डायलॉग सभी ने अपने पार्ट के रट लिये थे और चंचल पर मानसिक दबाव बनाने की पूरी तैयारी से आये थे. सब दूसरे शहर से दीदी जीजाजी भी. मॉं धीरे-धीरे फुनफुना रही थी, पिताजी अपने कर्तव्यों के प्रति उसका ध्यान दिला रहे थे, दीदी जीजाजी ने तो सुनाना ही शुरू कर दिया था कि ये जो मिला है ना 6 माह बाद ऐसा लड़का भी नहीं मिलेगा, हमें आज हॉं चाहिए. और सबसे ज़्यादा चुभने वाली बात कहती थी चारू, जिसका सार यही था तुझे मेरी कोई परवाह नहीं. सारे लोगों ने एक तरह से चंचल को घेर लिया था. रोने, चीखने चिल्लाने की सारी प्रक्रिया खत्म हो चुकी थी और शेष थी तो थकी सी चंचल के मुॅंह से निकली ‘हां’ थी. सारे लोग चंचल से ऐसे प्यार जता रहे थे जैसे पहली बार मिले हों और चंचल के लिए यही लोग इसी एक पल में हो चले थे ग़ैर. एक तरफ नौकरी और दूसरी तरफ शादी की तैयारियॉं सब साथ-साथ. अब चंचल ने अपने दिल को समझाना शुरू किया कि अब उसे एक पत्नी, एक बहू बनकर रहना है.
उसकी आदत शुरू से रही है कि जिस काम को करती है पूरे समर्पण से, पूरी निष्ठा से. नौकरी के प्रति निष्ठावान होकर खूब की नौकरी, अब तैयार होने लगी थी नई भूमिका के लिए, बार-बार बदलती भूमिका ने हॉंलाकि चंचल को काफी थका दिया था पर उसने सोचना शुरू कर दिया था कि एक माह की छुट्टी के बाद वो एक दिन ऑफिस आकर अपना इस्तीफा सौंपेगी और हो जायेगी समर्पित अपने नये घर को. वैसे भी घर की आर्थिक दशा के चलते उसने बचपन ठीक से जिया भी नहीं था कि उसे पिता का सहारा बनना पड़ा, अब लगा कि चलो यही सही , अब काम के बोझ से मुक्ति मिलेगी. पति के साथ कल्पना लोक में उड़ना सचमुच अच्छा लगने लगा था चंचल को. उसे लगता जैसे परी हो गई हो वह. घर से प्यार-दुलार और भावी ससुराल की कल्पना ने शायद चंचल को भी सोचने को मजबूर कर दिया था कि घर के लोग उसकी खुशी ही चाहते थे. समाज के लोग भी. इस विचरण में चंचल चारू की सहेली बन चुकी थी. इधर चारू भी खुश थी. इधर लड़के वाले शादी के लिए जल्दबाजी करने लगे और चंचल की मुस्कुराहट बढ़ने लगी, उसे लगा मानो भावी पति रितेश ही इस जल्दबाजी के लिए जिम्मेदार है, अब तो चंचल खूब गौर से पति को निहारती है फोटो में स्मार्ट लड़के को पति के रूप में पाकर उसे लगने लगा है जैसे वह चॉंद छूकर आ रही हो. बेवकूफ तो तब थी जब उसे सारे लोग दुश्मन नज़र आ रहे थे. सचमुच दुनिया भी बड़ी अजीब है, उसे हर व्यक्ति का हिसाब होता है, उसके अनुसार चलते लोग ही उसे अच्छे लगते हैं वरना आपको टूट जाने तक की यंत्रणा देकर वही काम करने को प्रेरित करती है जो आप मन से कभी नहीं करना चाहते. आखिर वो घड़ी भी आई जिसका इंतज़ार था सबको, मंडप सज रहा था चंचल की मेंहदी भी. कोरे हाथों का सपना देखने वाली सीधी-सादी चंचल एक नये रूप में तैयार हो रही थी. स्टाफ के सभी कर्मचारी आ चुके थे. उसे बधाईयॉं देने, ये सिलसिला शुरू हुआ तो चलता ही रहा. इस बीच फेरे लिये जा चुके थे, चंचल का मन इस घर की खुशियों से जुड़ा था. इस घर की एक-एक ईंट पर चंचल के परिश्रम का नाम था. पिता की बीमारी से लेकर मॉं की घर-गृहस्थी तक को मदद देने वाली चंचल सोचने लगी अब मैं भी किसी चीज़ की फरमाइश कर सकूंगी. अब मेरे लिए भी कोई मेरी मनपसंद चीज़ें लायेगा. अब तक वो केवल देना ही जानती थी चंचल. लेने का अधिकार तो उसे आया ही नहीं था. वह वृक्ष के समान थी.
दिन बीतने लगे. विवाह होकर आने के बाद नया परिवार नये लोग, पति की आदतों, स्वभाव को जानने में उसे वक्त लग रहा था और सबसे ज़्यादा तकलीफ उसे रितेश के व्यवहार से थी, कभी तो वह उसे उसके सपनों का राजकुमार लगता और कभी लगता कि एक पल भी इसके साथ रहना मुश्किल है, अजीब कश्मकश थी चंचल के मन में. पर क्या करे इसे ही नियति मान लिया था, सोच लिया था अब. लेकिन उसे आदर्श बहू और अच्छी पत्नी बनना था उसने तय कर लिया कि हर स्थिति का सामना करेगी बहादुरों की तरह.
सासु मां बेहद प्रसन्न थी, ऐसी गुणी बहू पाकर. रितेश को भी बार-बार वो समझाती. चंचल के गुण गाते हुए उसके अच्छी बहू होने के सबूत देती, पर रितेश था मस्तमौला, उसकी अपनी ही दुनिया थी. कभी अच्छा व्यवहार करता चंचल के प्रति तो कभी एकाएक नाराज़गी जताता. समय बीतता जा रहा था दोपहर के वक्त एक दिन चंचल आराम कर रही थी. चचिया सास पास ही रहती थी सो आना-जाना लगा रहता
था, दोनों देवरानी जेठानी खूब बातें करती थीं. चंचल को लेटे-लेटे नींद आने लगी लेकिन उनींदी होने के बाद भी उसे बरामदे से आ रही दोनों की आवाजे़ साफ सुनाई दे रही थी-चचिया सासू पूछ रही थी-चंचल नौकरी छोड़ के आ गई है क्या दीदी ? चंचल के कान खड़े हो गये उसका नाम जो लिया जा रहा था. उसने जवाब सुनने की चेष्टा की और सुना भी उसने, सासू मां कह रही थी-नहीं रे चंचल की नौकरी क्यों छुड़ायेंगे हम, यहॉं कमाने वाला कौन है ? नौकरी तो करेगी ही वो, भई तीस साल की लड़की की शादी हमारे इतने सुंदर इकलौते लड़के से ऐसे ही थोड़ी की है. चंचल की ऑंखों से धारा बहने लगी क्योंकि अब उसे फिर तैयार होना था अपनी पुरानी भूमिका में लौटने के लिए. जो समाज के इस हिस्से ने तय कर रखी थी. अब चंचल का गुस्सा भी दूध के उफान की तरह हो गया था जो उफनकर तुरन्त शांत भी हो जाता था. रह जाती थी तो बस एक गंध जो सिलेण्डर की गंध से ज़्यादा भयावह थी.
वर्षा रावल
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