मेरे गांव और शहर का अंतर
हम जहांॅ रहते हैं, जहॉं मैं पैदा हुई हूं वो जगह यदि शहरी आदमी देख ले तो भौचक हो जाए. मुझे तो आश्चर्य होता है कि दिल्ली जैसी विकसित जगह में रहने वाला आदमी, तरह तरह की सुविधाओं के बीच में रहने वाला आदमी, हम जैसों के लिए कानून बनाता है, हम जैसों के लिए जनकल्याणकारी योजना बनाता है. मैं यहांॅ जगदलपुर के हॉस्टल में रहती हूं, यहांॅ की सुविधाओं और गांॅव की सुविधाओं में जमीन आसमान का अंतर है.
हमारा जो गांॅव है वहॉं तक जाने के लिए कोई साधन नहीं है. सवारी नही मिलती है ऐसी बात नहीं है. सवारी तो मिलती है पर सड़क है कहां ? हमारे गांव से साढ़े छै किलोमीटर पहले जो गॉंव है वहांॅ तक तो टैक्सी आती है, पर वो भी हफ्ते में दो दिन! ये लेख पढ़ने वाले आश्चर्य करेंगे कि हम लोगों ने रेलगाड़ी नहीं देखी है. मैंने देख ली है क्योंकि मैं इस शहर में रहकर पढ़ रही हूं. इस शहरी हॉस्टल में पढने के लिये आने वाले बच्चों का सपना होता है कि रेल्वे स्टेशन, रेलगाड़ी, एरोड्रम देख लें. एक बड़ा सपना होता है टॉकिज में बैठकर फिल्म देखना! ये सपना, सपना ही रह जाता है कई दिनों तक, क्यांकि वार्डन मैडम फिल्म देखने नहीं देती हैं. आप इस लेख को पढकर सोचेगें कि मैं झूठ बोल रही हूं. ऐसा हो ही नही सकता. पर ऐसा ही है. मेरे गांव में आज भी बिजली नहीं है. बिजली का न होना तो इक्कीसवीं सदी में रहकर भी न रहने के समान है. न तो टीवी है न ही फोन है. सड़क, पानी, अस्पताल क्या-क्या गिनाऊं जो नहीं है गांॅव में. गॉंव से आने वाले लोग शहर में किसी सहेली के घर ले जाने पर कुर्सी पर बैठते ही नही हैं. क्यो ? क्योंकि उन्हे पता है कि कुर्सी पर साहब लोग ही बैठते हैं. कुर्सी गंदी हो जाएगी या हम उस लायक नहीं हैं. ऐसे गांॅव में छिट्टयों में भी जाने का मन नहीं करता है पर मॉं की याद आती है इसलिए मजबूरी में जाना पडता है.
गॉंव और शहर के जीवन में बहुत अंतर है. गांॅव में रात्रि के आठ, साढे आठ बजे तक सभी सो जाते हैं और शहर में वार्डन मैडम के रूम की लाइट साढ़े ग्यारह बजे तक जलती ही रहती है. हम लोग खुद साढ़े आठ बजे खाना खाते हैं यहांॅ पर, फिर दूसरे दिन की तैयारी करते हैं. गॉंव के लोग सूरज उगने के पहले ही उठ जाते हैं और यहॉं छः-सात बजे हम लोग उठते हैं. पर शहर में ही रहने वाली सहेलियॉं बताती हैं कि वो आठ बजे से पहले नहीं उठती हैं.
शहर में एक गंदी बात मैंने देखी है वो है लडकियों से छेड़छाड़. यहांॅ के लड़के बड़े ही बदतमीज होते हैं, आते जाते सिर्फ घूरते ही नहीं हैं बल्कि कुछ न कुछ बोल भी देते हैं. हमारे गांव में ऐसा नहीं होता है. गॉंव के बहुत से लोग महुआ से बनी शराब पीते हैं जिसे मद कहा जाता है. कोई सल्फी पीता है परन्तु किसी से छेड़छाड़ नहीं करता है. यहांॅ शहर में अकेले बाहर निकलने में डर लगता है. खैर, पढ़-लिखकर कुछ बन जाऊंगी तो गांॅव के लिए कुछ करूंगी. पर नौकरी भी तो सभी को नही मिलती है. गॉंव की गरीबी का कारण हमारे रहन-सहन का तरीका है. जैसे रह रहे हैं वही बहुत है उनके लिए. सबसे बड़ी बात शहरी जीवन देखे ही नही हैं न! जब देखेंगे तब तो सोचेंगे कि ऐसे रहना है.
अरे इन बातों में एक बात बताना तो भूल ही गई. गांॅव में सड़क, बिजली, अस्पताल भले ही कुछ न हो पर कुछ चीजें पहुंच गईं हैं जैसे आलू चिप्स, ठण्डा और मोबाईल. गांव में हर मोड़ पर छोटी-छोटी सी दुकान में लटके हुये आलूचिप्स मिल जाते हैं. ठण्डा पीने का शौक ऐसा है कि गांॅव वाला शहर से बर्फ खरीदकर ले जाता है ठण्डे की बोतल को ठण्डा करने के लिये. गॉंव के लोग संतुष्ट प्रवृत्ति के होते हैं उन्हें खाने मिल गया बस! कई लोग तो एक लुंगी और एक बनियान में ही हमेशा नजर आते हैं. ये उनका सीधापन है. वे बेचारे इसी सीधेपन के चलते शहरी लोगों से ठगा जाते हैं. गांॅव के ठगाने का मुख्य कारण उनका अनपढ़ होना है. शिक्षा के लिए सरकार कोशिश कर रही है पर हम सभी लोग शिक्षा के महत्व को समझ नहीं पा रहे हैं. पर अब धीरे से लोग पढ़ने के लिये बच्चों को भेजने लगे हैं.