काव्य-रानू नाग

घरौंदा

बचपन में
रेत के घरौंदे बनाती
बच्चों की कोमल, रेत सनी उंगलियों को
हर रोज देखा करती थी
पास की शांत निश्छल बहती नदी…
रेत के उस घरौंदे के दोनो छोर से
हौले-हौले रेत खोदते सधे हाथ जब जुड़ जाते
और बन जाते थे दो दरवाजे
आर…….पार……तब
किलक उठते बच्चों के साथ
खुश होती, हिलोरें लेती थी नदी भी.
मुझे भी मिला था-
एक हाथ बचपन का,
मैंने भी बनाया था जिसके साथ
रेत का घरौंदा
चाही थी, आर-पार दिखती
हवादार दुनिया
कहांॅ समझ पाई थी
नहीं होती स्थायी
घर की रेतीली बुनियाद…..
और……फिर…
एक दिन….भरभराकर गिरा जब
मेरा रेत का घरौंदा……तब
दूर-दूर तक ना कोई हाथ था…
.न घर…न कोई दुनिया……
उस रोज
बहुत रोई थी
मेरे भीतर की नदी…

पोस्टमार्टम

एक पोस्टमार्टम
नक्सल हादसे में
शहीद जवान का
जो कत्थई शर्ट में था
जिसे सबने देखा
पनीली आंखों से…..
एक पोस्टमार्टम
हरी साड़ी और
लाल चूड़ियों में पथरायी
विधवा का
जिसे किसी ने नहीं देखा,
देखकर भी.

डर

आधी-अधूरी कविताओं के
पुराने सड़े-गले कागज
अब भी जहॉं-तहॉं दिख जाते हैं.
पुरानी डायरी के बीच कहीं-कहीं
इनका पुलिंदा बनाकर
फेंक न पाने का ग़म सालता तो है
मगर उससे भी ज़्यादा
डरता है मन,
जाने
इस तरह जीवन का कौन सा हिस्सा
खुद से अलग हो जाये
और हो जाऊं मैं-बिल्कुल अकेली!

रानू नाग
पुराना कोर्ट कंपाउंड, गोलबाजार के पास,
जगदलपुर छ.ग. मो.-09926166379