लघुकथाएं-रउफ परवेज़-अंक-1

सही हिसाब

सागर जी विक्रयकर अधिकारी के पद पर स्थानांतरित होकर प्रदेश के इस छोटे से नगर में आये थे. इकहरे बदन के दुबले-पतले सागर जी आयु में कोई तीस वर्ष के होंगे. सरकारी अधिकारी का रोब-दाब उनके व्यक्तित्व में कहीं से झलकता नहीं था. कार्यालय में चार्ज लिये दो दिन-तीन दिन ही हुये थे. एक दिन शाम को स्कूटर पर सवार संजय बाजार की ओर निकले. सुरेन्द्र जनरल स्टोर्स का बोर्ड देख स्कूटर रोक और भीतर जाकर चारो ओर देखने लगे.
सुरेन्द्रजी की दुकान नगर की ऐसी दुकान थी, जहां हर छोटा बड़ा उपयोगी सामान उपलब्ध हुआ करता था, जिसमें घड़ियां, टेपरिकार्डर, कैसेट, केमेरा, रेडियो आदि सब ही था. चोरी छिपे आया सामान भी होता था जो आदमी देखकर विक्रय किया करते थे.
सागर जी को जापान कैसेट की आवश्यकता थी. उन्होंने सुरेन्द्र जी से पूछा तो जवाब मिला कि जापानी कैसेट तो उपलब्ध
नहीं, पर वह रूक सकें तो एक सप्ताह बाद पचास रूपये में मिल सकेगा. दरअसल सुरेन्द्र जी नया चेहरा देख बात टाल गये थे. मगर सागर जी यह सुनकर वहांॅ से चले गये.
दुकान में बैठे किसी ग्राहक ने सागर जी को पहचान लिया था. उसने धीमे स्वर में कहा ‘‘सुरेन्द्र जी आपने शायद पहचाना नहीं. यह तो अपने यहॉं आये नये विक्रयकर अधिकारी हैं.’’ सुरेन्द्र जी को जैसे सॉंप सूंघ गया.
दूसरे दिन प्रातःकाल ही सुरेन्द्र जी पता लगाकर सीधे विक्रयकर अधिकारी के निवास स्थान पर पहुंॅच गये और एक बेहतरीन जापानी कैसेट उनकी नज़र करते हुये बड़ी मिन्नत से कहा ‘‘माफ़ कीजिये हुजूर कल शाम आप को नहीं दे सका, ठीक से देखा तो दुकान में एक अदद मिल गया, इसे आप रखिये’’. सागर जी ने जवाब दिया कि उन्हें उसी दिन आवश्यकतानुसार कैसेट मिल गया था, और अब उसकी जरूरत बाकी नहीं रही. सुरेन्द्र जी कहने लगे ‘‘साहब इसे भी रख लिजिए, यह क्या बात हुयी कि आपने एक छोटी-सी चीज़ चाही और मैं सेवा न कर सका.’’
सागर जी के बार-बार इंकार पर भी वह नहीं माने तो सागर जी ने कैसेट रख लिया और उसके दाम पूछे. सुरेन्द्र जी ने कहा कि केवल पच्चीस रूपये का है. सागर जी जेब से पैसे निकालकर देने लगे तो सुरेन्द्र जी ने कहा कि हुजूर यह आपका घर है और मैं आपका सेवक हूं, पैसों का क्या है, फिर कभी ले लूंगा, आप इसे रखिये. इतना कह कर सुरेन्द्र जी ने दोनो हाथ जोड़ दिये और धन्यवाद देकर चले गये.
मैंने कहा सागर जी, लगता है वह आपको बहुत मानता है और सम्मान देता है. सागर जी कहने लगे ‘‘भई मैं तो किसी से कोई चीज़ ऐसे नहीं लेता, सामान लेकर तुरंत पैसे देता हूं पर क्या करूं कि पैसे से बढ़कर इज्जत कर रहा है. मैंने कहा कि अगर वह पैसे ले ही लेता तो क्या होता. सागर जी ने उत्तर दिया ‘‘होता क्या, आखिर है तो वह एक व्यापारी. वह मुझ से सही हिसाब करता तो उसे विक्रयकर का सही हिसाब देना पड़ता’’.

अल्लाह सब देखता है 

मिर्जा सुल्तान बेग दौलतमंद तो थे ही, अल्लाह ने सखाबत भरा हाथ भी दिया था. हर साल रमजान में माल की जकात निकाला करते. जकात के लिए निकाली गयी रकम से गरीबों, बेवाओं के लिए कपड़े खरीदे जाते और ईद के दो दिन पहले उन्हें तक़सीम कर देते. इस बार भी हमेशा की तरह कपड़े खरीदे गये थे जिन से एक बड़ा कमरा भर गया था. ज़रूरतमंद सबेरे से आना शुरू हो गये. कपड़े तक़सीम करते हुए सुबह से शाम हो गयी लेकिन मांगनेवालों का सिलसिला ख़त्म न हुआ. दिन डूबते-डूबते कमरे में भरे सारे कपड़े ख़त्म हो गये फिर भी दस-बीस लोग आंखों में आस लिये खड़े थे. मिर्जा साहब ने उन सब लोगों को दो-दो रूपये के नोट भेंट दिये. रूपये लेकर वे लोग सड़क पर इकठ्ठे जा रहे थे.
उनमें से एक ने कहा, ‘‘हम लोग देर से पहुचे, क्या करता बेचारा, कपड़े न थे तो नोट ही दे दिया. उसकी हैसयत कम सही, पर दिया तो, खाली हाथ तो नहीं लौटाया.’’
दूसरे ने कहा, ‘‘अजी साल का एक जोड़ा मिलता था, उससे भी गये, दो टके ही टिका दिये, देते उसे शर्म नहीं आयी.’’
तीसरे ने कहा, ‘‘उसके घर कोई मरेगा नहीं क्या ? खुशामद करेगा तो भी चहल्लुम में नहीं जायेंगे, हम चहल्लुम का खाना खाकर दुआ नहीं देंगें, तो मरने वाले को कहां मिलेगा, बख्शीश कहां होगी ?’’
तभी चौथे ने कहा, ‘‘अजी उसे उसके हाल पे छोड़ो, जैसा करेगा वैसा भरेगा! अल्लाह सब देखता है.’’

विकलांग

अधकटा दाँया हाथ और घुटने तक कटा बायाँ पांव लिये महीनों से वह सड़क के किनारे पड़ा है. बदन पर कपड़े के नाम पर केवल एक लंगोटी है, बाकी बदन खुला है. मौसम आते हैं, चले जाते हैं. न उस पर ठण्ड का असर होता है, न गर्मी का, न बरसात का. लगता है, उसका बदन मौसमप्रूफ़ हो गया है. खुली खुली जुबां, बेजान सी ऑखों से फैले आसमान को टुकुर टुकुर देखता रहता है न किसी से कुछ मॉंगता है न किसी की प्रतीक्षा करता है, न खुदा से फ़रियाद करता है. बस चेहरे पर सन्तोष की छाया लिये पड़ा रहता है.
सड़क से गुजरता में उसे रोज़ देखता हूँ, दुख से मन भारी हो उठता है. कैसा जीवन है बेचारे का, न कोई आस, न उम्मीद, न कोई देखने वाला, न पूछने वाला, एक ज़िन्दालाश ही तो है न.
आज मैं उसके समीप खड़ा हूँ. मुझे देख वह हल्के से मुस्कुराया ‘‘कौन हैं आप इधर कैसे निकल आये ?’’
मैं उससे पूछता हूँ- ‘‘इस तरह अकेले कैसे पड़े हो भाई, क्या दुनिया में तुम्हारा कोई नहीं ? क्या खाते हो, कैसे जीते हो, क्या तुम्हे जीना अच्छा लगता है ?’’ उसने उत्तर दिया- ‘‘कोई नहीं है मेरा इस दुनिया में, अकेला हूँ. मां बाप थे बीबी थी, एक बच्चा था. एक दुर्घटना में सब मर गये, मेरा एक हाथ कट गया, एक टॉग कट गई, पर मैं मरा नहीं, बच गया, पता नहीं कैसे बचा, शायद ईश्वर को मुझे इसी हाल में जीवित रखना था, उसने मुझे जान से नहीं मरने दिया. और जब ईश्वर ने मुझे अकेला छोड़ दिया तो मैंने उससे कोई शिकायत नहीं की. लोगों ने कहा लकड़ी के हाथ पैर लगवा लूँ, भाव ऊॅंचे थे, मेरे पास उतनी रक़म नहीं थी, मैंने अल्लाह को याद कर सब्र का हाथ लगाया और सब्र का पाँव लगा लिया. सड़क के किनारे सब्र का बिस्तर लगाया और सब्र की चादर ओढ़ ली. मजे़ की नींद आती है, सारी फ्रि़कों से आज़ाद हूँ, जैसे मालिक की इच्छा.’’
वह कुछ रूका फिर कहने लगा-’’देखे दादा सब्र के प्याले में जीवन की खुशियाँ संजोये आकाश तले सपनों का महल बनाया है मैंने. मन के सितार पर आशाओं के तार कभी तो झनझनायेंगे. मैं विकलांग हूँ, पर जीवन से उदास नहीं, आशा ही जीवन है और निराशा मौत. और मैं मरना नहीं जीना चाहता हूँ, क्योंकि ईश्वर का यह संसार बहुत खूबसूरत है, बड़ा हसीन है, जहाँ चिड़ियों की चहचहाटें हैं, सरसराते पत्तों के मधुर गीत हैं, सीटी बजाती हवाओं का रक़्स है, सुबह शाम की आँखों में तैरता नशा है, आँख मिचौली करती धूप छाँव है. मैंने यह सब अभी नहीं देखा है; और सबसे ज़्यादा मेरे मन में रची बसी मेरे माता पिता, पत्नी और बच्चे की यादे हैं. यादें जो हमेशा मेरा पीछा करती हैं, जो मुझे जकड़े हुये है, मैं उनसे छुटकारा पा ही नहीं सकता. उन यादों के साये मेरे शरीर से चिपके हुये हैं, जिनका स्पर्श मैं अपने एक हाथ की पॉंच ऊंगलियों से कर लिया करता हूॅ. यही मेरी इच्छाओं का रंग महल है. मैंने अभी देखा ही क्या है, अभी तो बहुत कुछ देखना ब़ाकी है और सब कुछ जी भर के देखना चाहता हूँ. ऐसा जीवन छोड़ मौत की कल्पना कोई मतलब नहीं रखती. मेरा एहसास मेरे मन को शक्ति देता है और इसी ताकत के सहारे मेरा जिस्म हर मौसम का स्वागत कर रहा है हर मौसम आकर मुझे तसल्ली देकर चला जाता है और मैं जी रहा हूँ इन मौसमों की धूप छॉव में.’’
‘‘मैंने अभी देखा ही क्या है ? अभी बहुत देखना बाकी है, और मैं सब कुछ जी भर देखना चाहता हूॅ. होली ंके रंगों की बौछार, राखी के रंग बिरंगे धागे, दीवाली के जगमगाते दीप. माना कि मेरे अपने सब चल बसे लेकिन उनकी यादों के दीप तो मन के आँगन में जलेंगे जिनसे जीवन का अंधेरा दूर होगा और मेरी आँखों की रोशनी बढ़ेगी. जब फुझड़ियॉ जलेगी, पटाखे फूटेंगें, मेरे बच्चे की किलकारियाँ कानों में गूजेंगी. और उसकी मासूम ऑखों के चिराग मेरी आखों में झिलमिलायेंगे. मेरे मॉ बाप आशीष देगें. मेरे कल्याण, दीर्घजीवन एवं सफलता की कामना करेंगे. मेरी पत्नी का ऑचल प्यार की खुशबू बिखेरेगा और मैं धन्य हो जाऊँगा. दीपावली के दीप किसी से भेद भाव नहीं करते, सबको समान रोशनी देते हैं, झोपड़े हों या महल सब जगह समान उजाला पहॅुंचाते हैं और उस उजाले की ललक मेरे मन में भी है ऐसा जीवन छोड़ मौत का तसव्वर कोई मान नहीं रखता. मेरा एहसास मेरे मन को शक्ति देता है और इसी ताक़त के सहारे मेरा जिस्म हर मौसम का स्वागत करता है. हर मौसम आकर मुझे तसल्ली देकर चला जाता है और मैं जी रहा हूँ इन मौसमों को धूप छॉव में सर से पॉव तक सब्र का लबादा ओढ़े.’’
‘‘जब मैं भरपूर ताकत के सहारे, सम्पूर्ण विश्वास के साथ जी रहा हूँ तो मुझे विकलांग होने का क्या ग़म और किसी से शिकायत कैसी.’’
‘‘मैं तुममें ईश्वर का रूप देखता हूँ’’ मैंने कहा. ‘‘ऐसी प्रशंसा से अभिमान पैदा होता है और अभिमान की आग मनुष्य को जला कर राख कर देती हैं. ईश्वर बहुत बड़ा है, सारे संसार का मालिक है, उसकी दया मात्र से ही मनुष्य बहुत कुछ पा लेता है. मैं साधारण सा जीव हूँ. मैं सड़क के किनारे लगे उस पेड़ की तरह जीना चाहता हूँ जो खुद तो सूरज को धूप, गर्मी, जलन सब झेलता है पर उसके पास पहुँचने वालों को ठण्डक देता है, राहत पहुंचाता है.’’

उलटा चोर

नई फिल्म लगी थी. सिनेमा में भारी भीड़ थी. जब वह टिकट के लिए खिड़की के पास पहुॅचा तो बार-बार हाथ बढ़ाने पर भी टिकट मिलती नज़र न आई. रूमाल निकाल कर उसने चेहरे का पसीना पोंछा, घड़ी देखी तो फिल्म शुरू हुए दो मिनट हो चुके थे. उसने टिकट नहीं ख़रीदा, जल्दी जल्दी सीढ़ियाँ चढ़कर बाल्कनी पर पहुँच गया. बालकनी भर चुकी थी. कहीं-कहीं इक्का-दुक्का सीट ख़ाली थी. गेट कीपर बालकनी में जगह देख देखकर आने वाले लोगों को बैठा रहा था. अब वह गेट के अन्दर गया तो एक इंस्पेक्टर और उसकी पत्नी को गेट कीपर सीट दिखा रहा था. वह बढ़कर एक सीट पर बैठ गया. उसने सोचा गेट कीपर टिकट मॉगने आयेगा तो वह उसे दस का नोट थमा देगा और टिकट लाने कहेगा यह कहकर कि फिल्म शुरू हो गई थी और खिड़की पर भीड़ थी, टिकट नहीं मिल पाई. वह फिल्म देख रहा था एक नजर पीछे भी देख लेता कि शायद वह टिकट मांगने आये. गेट कीपर पांच-दस मिनट तो लोगों से टिकट लेकर बैठाने में लगा रहा, फिर दरवाज़ा भेड़ दिया. उसने सोचा शायद वह कुछ देर बार आयेगा. गेट कीपर उसके पास से निकलकर लोगों को बैठाता, फिर चला जाता. तब उसने सोचा कि शायद वह मध्यान्तर के समय टिकट मांगेंगा. मध्यान्तर भी हो गया टिकट किसी ने नहीं मांगा.
वह नीचे गया. होटल में चाय पिया और गेट कीपर के सामने होता फिर अपनी सीट पर बैठ गया. गेट कीपर ने कुछ नहीं कहा. उसने सोचा कि वह इन्सपेक्टर के पीछे पहुंचा था, हो सकता है कि गेट कीपर ने पुलिस का आदमी समझा हो या इंस्पेक्टर के साथ आया आदमी समझा हो, वह फिर फिल्म देखने लग गया पर पीछे की तरफ उसकी नज़र बराबर लगी रही. उसने सोचा कि ईमानदारी तो इसी में थी कि या तो वह उसे खुद बुलाकर टिकट मॅगवा लेता या मध्यांतर में लेकर दे देता लेकिन उसने यह दोनों काम नहीं किये. उसने सोचा क्यों न दो रूपये उसे बुलाकर थमा दे, लेकिन ऐसा करने से हो सकता है वह बिगड़ जाता. वह फिर चुप बैठा फिल्म देख रहा था इतने में ही गेट कीपर ने टार्च मारकर बालकनी में बैठे लोगों को गिना ओर आधी कटी टिकटों से मिलान किया.
उसे गिनती में एक ही कमी लगी गेट कीपर ने उसके पीछे बैठे लोगों की आधा टिकट बताने कहा, सबने बता दिया, तब वह उसकी ओर बढ़ा और आधा टिकट देने कहा. उसकी पोज़ीशन खराब होने का समय आ गया था, क्योंकि इतना लेट पैसा देकर टिकट मंगवाने से गेट कीपर पर बुरा असर पड़ सकता है, हो सकता है यह पूछ बैठता टिकट नहीं थी तो बैठे क्यों रहे, इतनी देर से मंगवाया क्यों नहीं, और ऐसा होने से सारे लोग भी उसे देखने लग जायेगें, ओर इस तरह नीचा देखना उसे गंवारा न था. उसके अन्दर का अहम् उभर आया और उसने पूरे आत्म विश्वास के साथ गेटकीपर को जवाब दिया कि आधे टिकट तो वह मध्यान्तर के पहले ही फेंक चुका. और गेट कीपर चुपचाप ऑखें चारों तरफ फिर दौड़ने लगा और टार्च से नीचे देखने लगा. ‘शायद आधा टिकट उड़कर इधर उधर चला गया होगा. उसने गेट कीपर से टार्च ले ली और खुद भी आधी टिकट ढॅूढने लगा. फिर झल्लाता हुआ गेट कीपर से कहने लगा. ‘‘खुद ग़लती कर दर्शकों को परेशान करते हो. हम फिल्म देखें कि आधी टिकट ढॅूढें, सिनेमा मालिक से तुम्हारी शिकायत करनी पड़ेगी.’’