अंक-1-बहस-नायक एवं खलनायक-(दो)

नायक एवं खलनायक-(दो)

दुनिया में जितनी क्लासिकल रचनाएं हैं, उनमें नायक और खलनायकों का चेहरा स्पष्ट चिन्हित होता हैं. हिन्दी सिनेमा के चेहरे से कौन वाकिफ नहीं है! पर यहां, शब्दों की दुनियांॅ की बात की जा रही है. कई बार इन महान् रचनाओं में परिस्थितियांॅ नायक के साथ शत्रु जैसा बर्ताव करती दिखती हैं. महाभारत के पात्र कर्ण आखिर किस नियति का शिकार है ? कई बार कहानी में खलनायक के साथ-साथ परिस्थितियॉं भी नायक के प्रतिकूल हो जाती हैं. जहाज किनारे लगा है, सुरक्षित है. यात्री बीच समुद्र में ‘भॅंवर’ में फॅंसते हैं भॅंवर से किसी तरह जहाज निकलता है कि शार्क का हमला आतंकित करता है. जहाज का कप्तान शार्क को पराजित करता है कि आगे समुद्री लुटेरों का दल तैयार है जहाज का कप्तान जो सबका नायक है- इन तमाम अवरोधों को पार करता है. अपने लोगों और यात्रियों को प्रोत्साहित करता है और एक वास्तविक कप्तान, सफल कप्तान बन जाता है.
कप्तान के शौर्य, कुशलता, साहस ,चतुराई और धैर्य- ये तमाम गुण न सिर्फ- उन समस्त सहयोगियों और यात्रियां के लिए प्रेरणास्पद हैं बल्कि समस्त पाठक तत्काल उस कप्तान से अपना तादात्म स्थापित कर लेता है यह गुण मानव का सच्चा वरदान है- इसे दिल या दिमाग की शक्ति कहें या कुछ और ! इस एक गुण के कारण मानव एक फेंटेंसी प्रधान प्राणी हो जाता है- एक ऐसा प्राणी जो कल्पना करता है और स्वप्न सी स्थिति में आ जाता है. कहने की आवश्यकता नहीं कि कथाएं- खासकर शब्दों द्वारा रचित- यहॉं व्यक्ति की कल्पना को ऊॅचाई देती हैं विस्तार करती हैं. गहरी और अनंत ऊॅंचाई से रू-ब-रू कराती हैं.
दुनिया के तमाम साहित्य खासकर लोककथाएं अपने पाठकों को एक अद्भुत दुनिया से परिचित कराती हैं. नायकों के समक्ष ऐसी-ऐसी चुनौतियॉं पेश की जाती हैं (खलनायकों एवं परिस्थितिजन्य) जिसकी कल्पना साधारण मस्तिष्क से परे होती हैं. पाठक सीधे अपने नायक के साथ स्थापित होने के कारण सिर्फ एक पाठक भर नहीं रह जाता, वह नायक की तरह सोचने और जीने लग जाता है. कहने का अर्थ ये कि कथाएं महान् चरित्रों के माध्यम से पाठकों के हृदय में उतर आती हैं और जीवन संग्राम में वही कथा कहानियों का पाठक अपना एक ऐसा आभा-मंडल का निर्माण करता है जो नायकत्व लिए होता है. जीवन की चुनौतियॉं उसे परेशान नहीं करती. यह सही है कि अलग-अलग लोगों के लिए इस आभा-मंडल की सघनता अलग-अलग होगी, मगर असर तो होगा. सोचा जा सकता है कि जिस बच्चे या किशोर को कथा-कहानियों से वंचित रखा जाए तो उसका विकास किस रूप में होगा ?
यहांॅ यह सवाल उठाया जा सकता है कि दुनिया भर में बहुत सारे लोग हैं जो अशिक्षित हैं- वे कथा या साहित्य से बहुत दूर हैं- क्या उनके मस्तिष्क का विस्तार हो पाता है ? और किस दिशा में ? सवाल शोध की मांग करता है मगर हर संस्कृति में वाचिक परंपरा है और हर समाज का अपना नायक होता आया है. लोग अपने नायकों का किस्सा-लगभग विचित्र किस्सा सुनते-सुनाते आए हैं. मनुष्य ‘फेंटेसी’ के बगैर मनुष्य नहीं रह पाएगा. कल्पना शक्ति उसका प्रधान गुण है. मनुष्य होता तो दो-हाथ-पांव वाला मगर यह उसकी मानसिक/आत्मिक आभा है जो उसे विलक्षण बनाती है.
अगर बच्चों या किशोर (या प्रौढ़ भी) की इस मानसिक विलक्षणता को ‘पॉक’ न किया जाए, इस शक्ति को सार्थक दिशा न दी जाए तो क्या होगा?
ऐसा नहीं लगता कि आज जितनी आवश्यकता हमारे पुराने मिथकीय नायकों को पुनः परिभाषित, पुनः चित्रांकित करने की न केवल आवश्यकता है बल्कि नये नायकों का सृजन भी उतना ही चुनौती भरा है. हम आज अपने युग का सामना किस तरह करें ? क्या टीवी में सर पीटते, माथा फोड़ते, नेताओं को देखकर या मुंछ मुड़ाते या बाजू की मछलियॉं दिखलाते मुम्बइया हीरो को अपना आदर्श बनाकर ! हमारा रोल-मॉडल कौन हो ?
हर युग की अपनी चुनौतियॉं होती हैं. हमारे समक्ष हमारे मनुष्य होने का ही संकट हैं. प्रतीत होता है वर्तमान पीढ़ी ने कथा-कहानियांॅ पढ़ना ही छोड़ दिया है, या वैसी रचना पढ़ रहा है जहॉं दाल-बाटी नहीं पॉपकार्न सरीखा है चबाया नहीं कि हजम!
नायक तो हममें से कोई निकल आएगा- क्या वर्तमान पीढ़ी उसका स्वागत करेगी ? इस प्रश्न को हम इस तरह भी पूछ सकते हैं, कि क्या यह पीढ़ी कार, फ्लैट, कॉरपोरेट की आलीशान नौकरी, बैंक बैलेंस की कल्पना (नींद) से जाग पाएगी, हम उन्हें जगा पाएंगे और बता सकेंगे कि मनुष्य होने का क्या अर्थ हैं?
फिलहाल, हमने अपना कदम बढ़ा दिया है. हम जानते हैं इस राह में पड़ाव कहीं नहीं हैंं हमें बस चलना है.