मुकेश मनमौजी की कविताएं

रात अंधेरी

सन्नाटा पसरा हुआ
आकाश में चाँद
बादल की ओट में
अनायस चटकती सी आवाज
प्रकाश की तेज लकीर
बिजली कौंधी अभी अभी
हवा साँय साँय
भयावह सब कुछ
लगता प्रकृति नाराज
बहुत
फिर आज
खिड़की से बाहर झांका
बस अंधेरा हर तरफ
आँखों से नींद हुई
नदारत
मन मेरा प्रश्न करता
मुझसे ही
क्यों असमय तेज हवा
तेज बारिश
बौछार ओलों की
आसमान से
चौपट सारी लहलहाती
फसलें
तबाही ही तबाही
आखिर क्यों
चिंतन देर तक
एक तस्वीर सी आँखों के
समक्ष
पेड़ काट रहा आदमी
पानी व्यर्थ बहा रहा आदमी
छोड़ जूठन थाली में
अनाज का करता अपमान
दोहन प्रकृति करता इंसान
प्रकृति बस इसलिए
नाराज
मचा रखी तबाही आज
चेतावनी है ये समझ
जाओ
जल जंगल जमीन
बचाओ
दोहन प्रकृति का
बंद करो
पर्यावरण को
स्वच्छंद करो
संकट से उभर पाओगे तभी
हिम्मत न हारना,
उठो शुरू करो प्रयास
आज
अभी

चुप क्यों है

कवि मन तेरा
कलम भी रुकी हुई
चिंतन प्रवाहहीन क्यों
प्रश्न करती कल्पना मुझसे
क्या जबाव दूँ
सोच रहा हूँ अभी मैं
वेदना अंतसः तक जा पहुँची
शब्द भींगे आँसुओं से
व्यथा विलाप करती
उतरने आतुर कागज के
आँगन में
कलम ने दिया सहारा
भावों ने बदली करवट
जाग उठा कविमन
कविता आ खड़ी हुई
कल्पना के द्वार पर
सृजन गतिशील हुआ
विश्राम की मुद्रा छोड़ कर
डायरी के पन्ने मुस्कुरा उठे
बहुत दिनों बाद आयी थी
कविता कोई
कल्पना की उड़ान भरकर

मेरी कविता

कल रात
मुझसे बोली
लिख मुझे तुम
वाही वाही से
भरते अपनी झोली
हर बात कोई निराली
पत्नी पर अपनी
तुम लिखते
कुटते पिटते तुम
मिलती मुझे भी गाली

रात सारी तुम जागते
बस पीछे मेरे भागते
कभी खुद रोते
कभी मुझे रुलाते
याद किसी की आती
तुम मुझे बुलाते

तरस मै भी तुम पर खाती
तुम्हारे भाव संग
शब्दों में चली आती
सुना है मैने
देर रात तक जागने पर
पत्नी तुम्हें फटकारती
सुबह देर से जागने पर
बेलन से तुम्हें मारती

समझ नहीं आता
ये सब तुम क्यों
सहते हो
बिन मेरे नहीं क्यों
रहते हो
लिखकर मुझे
इधर उधर पहुंचाते हो
वाही वाही मिले तो खुश
नहीं तो उदास हो जाते हो

में भी चली आती
बनकर तुम्हारा सहारा
बिन मेरे उदास रहे
जीवन तुम्हारा
साथ मेरा तुम्हारा
जाने कब कैसे हुआ
तुम समझो
ये तुम्हारी माँ की है दुआ
तुमने सदा माँ को
सम्मान दिया
माँ की यादों को
सहेजा है
इस इसलिए कवि
कहलाए तुम
माँ ने ही मुझे
बनाकर कविता
पास तुम्हारे भेजा है ।


मुकेश मनमौजी
छपारा
(म0प्र0)
मो-8871813171