आलेख-इलाहाबाद के पथ पर वह तोड़ती पत्थर!-भारत यायावर

इलाहाबाद के पथ पर
वह तोड़ती पत्थर!

मैं अपनी युवावस्था से ही इलाहाबाद जाता रहा हूँ । आजकल इसके पुराने नाम प्रयाग को ही सरकारी मान्यता दे दी गई है । यह भारतीय जनता के लिए प्रयागराज या प्रयागजी है । प्रयाग शुक्ल की तरह शांत और स्निग्ध! तो जब भी मैं जाता निराला की कविता ’ तोडती पत्थर ’ याद आती और उस युग के बारे में मैं प्रायः सोचा करता! मेरे अंतर्मन में समाहित होकर यह कविता चिंतन की अनेक दिशाओं की ओर ले जाती ।
1936 में जब निराला ने यह कविता लिखी थी, तब वे लखनऊ में रहते थे और अपनी किताबों के प्रकाशन के सिलसिले में इलाहाबाद जाते रहते थे । वाचस्पति पाठक प्रसिद्ध प्रकाशन संस्थान ’भारती भण्डार ’ के मैनेजर थे । वे प्रायः उनके पास ही ठहरते । कहीं आना-जाना पैदल ही होता ।हिन्दी के हित के लिए संघर्ष करने वाले लोगों का वे सम्मान किया करते थे । सभी नए- पुराने साहित्यकारों से मिलना-जुलना भी होता । उसी समय उन्होंने यह कविता लिखी थी । तब इस पुरातन और पवित्र नगरी में ऐतिहासिक महत्त्व के अनेक महापुरुष थे, लेकिन उनकी दृष्टि एक ऐसी नारी की ओर गई जिसकी जीविका का सहारा श्रम है ।श्रमरत उस नारी को देखना उनके जीवन की मानो एक बड़ी उपलब्धि और परिघटना थी।
पूरी कविता में सबसे महत्त्वपूर्ण है ’ देखना ’ । निराला ने पत्थर तोड़ती उस औरत को देखा। यह उनकी खोज थी। “ देखा उसे मैंने “ लिखकर वे यह इंगित करते हैं कि यह अन्वेषण उन्होंने ही किया है । जो कवि सतत खोज करता रहता है, वही कुछ नया कह पाता है ।
खोज क्या है ? बहुत सारी अप्रकट को उजागर करना!
देखा उसे मैंने कहना यह भी प्रकट करता है कि यह उनकी अपनी खोज है ।
उसे निराला ने ही देखा है ।
इतनी गर्मी में कर्मरत अकेली उस औरत को निराला ही इसलिए देख पाए क्योंकि उन्हीं में इस लू-लपट में अकेला गमन करने की क्षमता थी ।
इस कविता में निराला अकेला होकर ही इस अकेली औरत को देख पाते हैं । घर में वातानुकूलित कमरे में बैठकर ऐसी दुर्लभ कविता नहीं लिखी जा सकती ।
कविता में पत्थर तोड़ती उस औरत को निराला कुछ दूरस्थ होकर देखते हैं । नजदीक से देखने पर कहते यह तोड़ती पत्थर! अकेला होकर ही वह वहदत होते हैं । वहदत होना उनके अद्वय होने को दर्शाता है । अद्वैतवादी होकर ही निराला अद्वितीय बनते हैं ।
वह युवती है ।
साँवली उस युवती का यौवन लबालब भरा हुआ है ।
लेकिन वह छलकता नहीं, क्योंकि वह मन को संयमित कर बाँधकर रखा गया है ।
निराला मात्र तीन शब्दों में इसे व्यंजित कर देते हैं–“भर बंधा यौवन “ ।
कर्मरत मन कहकर वे उसकी मानसिक दशा को दर्शाते हैं ।
उसके नत नयन निराला को प्रिय लगते हैं । क्योंकि यह उसके शील को निरूपित करते हैं । मर्यादित आँखों को देखना ही निराला को प्रिय लगता है ।
इस कविता के परिवेश को भी वे बहुत कम शब्दों में व्यंजित करते हैं । किसी छायादार पेड़ की छाँव में बैठकर पत्थर तोड़ना उसे स्वीकार नहीं है । उसके हाथ में भारी हथौड़ा है और वह बार-बार प्रहार कर रही है । लेकिन इस प्रहार की ध्वनि सामने तरुमालिका रूपी अट्टालिकाओं और महलों की ओर उन्मुख है । होना यह चाहिए कि सड़क के किनारे फलदार वृक्ष हों, उसके बाद मकान । लेकिन इस प्राचीनतम नगर में बड़े-बड़े मकान हैं और नए-नए बन रहे हैं, लेकिन फलदार वृक्ष कहाँ हैं? इसलिए प्रचंड गर्मी को झेलने की शक्ति मनुष्य में भी नहीं । लोग कर्महीन होकर अपने घरों में कैद हैं । लेकिन इस जवान और सभ्य- शालीन घर की युवती एक बनते हुए मकान के लिए अकेली बैठी पत्थर तोड़ रही है । उसका जीवन कितनी विवशताओं से घिरा होगा? आजीविका के लिए संघर्ष करने का यह अभूतपूर्व दृश्य है ।
देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्न तार!
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोईं नहीं
निराला मितकथन के कवि थे। यहाँ देखना अनेक अर्थसंकेतों को उजागर करता है । कवि को एक बार देखकर उस भवन की ओर देखा, जिसके लिए वह मजदूरी कर रही है । मजबूरी में कर रही मजदूरी में भी उसकी लगन है । लेकिन उस भवन के निर्माण की प्रक्रिया में लगी रहकर भी उसके हृदय के तार उससे जुड़ नहीं पाते हैं । वह उस दृष्टि से कवि को देखती है जो जमाने भर की मार को झेलने के बाद भी अपने दुख को प्रकट नहीं करती। कुछ लोग अपने दुख को, अपने संकटों और मुश्किलों को रो-रो कर सुनाते रहते हैं । लेकिन पत्थर तोड़ती वह युवती अपने कर्म में लीन रहकर सिर्फ यह संदेश देती रहती है — मैं तोड़ती पत्थर!
इस तरह “वह तोड़ती पत्थर “ कविता के अंत में “ मैं तोड़ती पत्थर! “ के रूप में बदल जाती है । कविता का उद्देश्य है पत्थर-हृदय में संवेदनशीलता का संचार करना । मानवीयता की लौ जलाती यह कविता चीखती-चिल्लाती नहीं है, किन्तु चुपचाप जीवन के मर्म को छूने की कोशिश करती है ।
“वह तोड़ती पत्थर! “ कविता मेरे भीतर कुछ इस तरह से समाहित है और तरह-तरह की अनुगूँज पैदा करती रहती है । वह कौन है? निराला भी ठीक-ठीक उसे नहीं पहचानते । उसका नाम क्या है ? जानकर भी क्या होगा? वह सर्वनाम है! जो अनेकानेक की पहचान है, उसका कोई एक नाम रख देने से क्या होगा? अनेक अनाम लोगों में एक अकेली लड़की यह पत्थर तोड़ती है, लेकिन निराला की कविता में रूपांतरित होकर न जाने कितने लोगों के भीतर समाहित होकर कितने पथराए हृदय में संवेदनशीलता का संचार करती रहेगी ।और यह प्रक्रिया युगों-युगों तक चलती रहेगी ।
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भारत यायावर
यशवंतनगर
हजारीबाग 825301 झारखंड