रामनाथ साहू की लघुकथाएं

उपहार

उदय दफ्तर से घर आया तब उसकी नजर सामने मेज पर रखे शादी के एक और कार्ड पर जा पड़ी । अब तो आगे बढ़कर वह उस कार्ड को खोल उलटा- पलटाकर देखने लगा था।
बहुत ही सादे से कलेवर में बने इस कार्ड को वह आश्चर्यचकित होकर देखने लगा, किसका हो सकता है यह …? अरे, यह तो फूफी की बिटिया शीला की शादी के कार्ड है !
फूफा जी तो अब रहे नहीं इसलिए बाहर प्रेषक की जगह पर फूफी का ही नाम लिखा है। सहज जिज्ञासावश उस कार्ड का वह अवलोकन करने लगा। ठीक अगले दिन है यह शादी। कल जो यह शानदार कार्ड आया है और अभी भी यहां पर रखा हुआ है -मौसा जी का बिटिया अदिति के शादी का कार्ड।
उदय के चेहरे पर मुस्कुराहट तैर उठी। लड़का और लड़की की शादी में स्पष्ट फर्क आज भी है। लड़के की शादी में जाना होता है तो एक से तो नहीं पर दो…पांच से काम चल जाता है। पर लड़की की ब्याह में जाना तो कुछ अलग ही रहता है। उस पर भी यह जब खास रिश्तेदार हों तब।
उदय ने अपनी सहधर्मिणी से बिना पूछे ही मौसा जी की लड़की अदिति के लिए दस हजार से ऊपर का माइक्रोवेव ओवन बतौर उपहार के तौर पर पैक करवा लिया था। कंचन ने भी इसे पसंद किया। और उसे लेकर वे लोग उनकी शादी में शामिल हुए।
मौसा जी भी तो दमखम वाले आदमी हैं। शादी में खर्च कायदे से किए गये थे। यहाँ तो उपहारों का बाजार ही लग आया था। जैसे ही उदय अपने उपहार के पैक के साथ मौसा जी का चरण स्पर्श किया, एक छोटी सी मुस्कान बिखेरते हुए मौसा जी ने उस पैक को छू भर दिया था। उस उपहार की ओर उन्होंने नजर फेरना भी मुनासिब नहीं समझा।
नौकर ने उसे ले जाकर उपहारों की ढेरी में डंप कर दिया। उदय की नजर वहां पड़ी तो ऐसे ही मिलते- जुलते दो -तीन और माइक्रोवेव ओवन के पैक उसे दिखने लगे थे। यहाँ उसका मन थोड़ा खिन्न हुआ पर उसने अपने आप को संभाल लिया था।
उदय देर रात तक वहां ठहरना मुनासिब नहीं समझा क्योंकि कल भी तो उसे बुआ की लड़की की शादी में जाना है। वह वहां से जल्दी रुखसत हो कर अपने घर पर आ गया। अगली सुबह तक उसका मन खिन्न तो नहीं था पर प्रसन्न भी नहीं था। उसे अब यह समझ नहीं आ रहा था कि वह बुआ की लड़की के लिए क्या उपहार ले कर जाए।
उसने अपनी यह बात अपनी सहधर्मिणी कंचन को बताई। कुछ देर सोचने के बाद कंचन ने बताया कि लोग तो काँसे -पीतल के बर्तन भी उपहार में देते थे पहले जमाने में। तो क्यों ना आज भी यह किया जाए। उसका इशारा, घर के कोने में पड़े हुए पुराने कांसे की लोटे की ओर था। उदय की आंखों में चमक आ गई। चल…जिसकी जैसी हैसियत है उसको वैसे ही दिया जाता है। और यह लोटा घर में रखा- रखा काफी पुराना पड़ गया है। काँसे के इस लोटे से कोई पानी भी तो नहीं पीता आजकल।
उसने कंचन को आंखों के इशारे से ही इस लोटे को साफ करने के लिए कह दिया। कंचन ने इमली की खटाई आदि करके उसे साफ करना चाहा, पर बरसों से ऐसे ही पड़े हुए उस लोटे में वह चमक वह निखार नहीं आ पाया, जो नए लोटे में होता है।
चलो बर्तन की दुकान में भी तो ऐसे ही रखे रहते हैं यह काँसे- पीतल के बर्तन। नए बर्तन भी ऐसे ही दिखते हैं। और वह लौटा उसकी और बढ़ा दिया अखबार के टुकड़े में उसे पैक करके। आज के गिफ्ट देने का सामान बन गया था। कंचन ने साफ कह दिया था कि वह वहाँ नहीं जा पायेगी,उसे अकेले ही जा न होगा।
उदय भी लगातार रात्रि जागरण को मुनासिब नहीं समझा। इसलिए वह शाम के धुँधकले के पहले ही फूफी के घर पहुंच गया। फूफी ने चहककर उसका स्वागत किया…आव भगत की। उदय ने बिना किसी संकोच के समाचार पत्र में लिपटे हुए उस लोटे को बुआ को धरा दिया।
बुआ उस पैकिंग को खोलने लगी और खोलते ही वह चहक उठी। भला किया बेटा तुमने…! शादी में पंच- रतन देने होते हैं -काँसे के पांच बरतन। चार चीजों का जुगाड़ हो गया था, बस इसी की कमी थी। उस कमी को तुमने इसे लाकर पूरा कर दिया है।
बुआ तो अब बड़े गर्व से आए हुए मेहमानों को उस लोटे को दिखा रही थी।

कीचड़

कोयले की ढेरी में कभी -कभार कोई हीरे का टुकड़ा भी मिल सकता है, जो उसकी पहचान न किए जाने और कोयले के साथ ही फूंक दिए जाने पर जलकर क्षार हो सकता है।

दीनदयाल जी ऐसे महकमे में सरकारी नौकर थे, जिसे काजल की कोठरी ही माना जाता है। इस काजल की कोठरी से निकलने वाले अधिकांश लोग, अपने पर लगे कालिख की परवाह नहीं करते थे। और उनके परिवार वालों को भी इसकी आदत पड़ चुकी थी। आदत क्या, उनको लत ही लग गई थी।
ठेकेदार अभी -अभी उनके दरवाजे से बैरंग लौटा था।
रमेश जी की नई गाड़ी आ गई है। गुप्ता ने वहां नया फ्लेट बुक करा लिया है। जाधव- लोग विदेश यात्रा में जा रहे हैं…।
दीनदयाल जी की अर्धांगिनी वर्षा जी ने यह फेहरिस्त और आगे बढ़ानी चाही पर दीनदयाल जी ने उसे डपटते हुए चुप करा दिया -तुम कहना क्या चाह रही हो, उसे मैं बखूबी जान रहा हूं।
-जब जान रहे हैं, तब एकाध काम मेरे मन से क्यों नहीं करते।
-मैं इसलिए नहीं करता, क्योंकि मैं वह करना नहीं चाहता।
-पर आप ही क्यों नहीं करते। बाकी सब लोग जो करते हैं।
-मुझे एक बात बताओ, जब तुम पढ़ा करती थी तब अपनी कक्षा में कैसी विद्यार्थी थीं।
-एकदम पढ़ाकू और कक्षा में अव्वल…।
-क्या सभी बच्चे ऐसे थे?
-बिल्कुल ही नहीं। मैं और रेखा भर होशियार थे। कालिंदी, तबस्सुम और चंद्रमुखी ठीक-ठाक थीं। बाकी सब वही फिसड्डी…।
-तब समझो, वही तीसरे दर्जे का फिसड्डी हूँ यहां पर मैं। तुम्हारे उप्ता -गुप्ता जी, यह सब लोग फर्स्ट क्लास हैं। और मैं वही फिसड्डी, थर्ड -क्लास। और मुझे यहीं रहना भी है।
उसके बाद, वहां जो घमासान मचा, उसका नतीजा हुआ कि दीनदयाल जी को ठेकेदार से वह नई गाड़ी गिफ्ट में लेनी पड़ी।
बरसात के दिन थे। नई गाड़ी में दीनदयाल दंपति लॉन्ग ड्राइव से वापस हो रहे थे। अब तो अपना इलाका आ चला था। बरसात भी झमाझम हो रही थी।
-इतने सारे गढ्ढ़े…! बाप रे बाप ! वर्षा जी ने हाय… हुह करते हुए कहा। तब तक गाड़ी बरसाती कीच -पानी से भरे एक गढ्ढ़े में जाकर फँस गई। फर्स्ट- गियर…आगा -पाछा करने के बाद भी गाड़ी गढ्ढ़े से निकलने में कामयाब नहीं हो सकी। तब एक ही रास्ता था कि एक जने स्टेरिंग संभाले और दूसरा नीचे उतर कर गाड़ी को धक्का दे। पानी गिर रहा था तब किसी से मदद भी मांगी नही जा सकती थी। लोगों का आना- जाना बंद था। और इधर, वर्षा जी को गाड़ी चलानी आती नहीं थी, तब तो तय हो उठा था; उनको ही उतर कर पीछे से धक्का देना है। उन्होंने यह किया भी, वे नीचे उतरी, तब उनके पैर घुटने तक कीचड़ -पानी में डूब ही गए, तब कहीं जाकर गाड़ी आगे आ पाई। वर्षा जी ने उसी गढ्ढ़े के पानी में जैसे – तैसे पैर हिलाए और कीच- मिट्टी धोया। तब फिर वापस गाड़ी पर आ चढ़ी।
अब तो उनके मुख से गालियों की बौछार ही शुरू हो गई थी और दीनदयाल जी, यह सुनकर हँस रहे थे।
-क्यों हँस रहे हैं आप …? इस सड़क में यह गढ्ढ़े कैसे भरे पड़े हैं।
-इस सड़क में इसलिए गढ्ढ़े हैं क्योंकि आप जिस गाड़ी में चल रहीं हैं, वह इसी गढ्ढ़े से निकली है। गाड़ी निकली है इसलिए ये गढ्ढ़े हैं। यह सड़क, आपके उसी ठेकेदार ने बनवाया है, जिसे मैंने भगा दिया था।
-इतना पुण्य कमाएंगी, तब तो आपका रथ भी कर्ण के जैसा कीच में धँसेगा ही, और आपके टखने उसी कीच में सराबोर होंगे भी…जैसा आपका हुआ है अभी। – दीनदयाल जी अब चुप हो गए थे।


रामनाथ साहू
देवरघटा (डभरा)
जिला-जांजगीर-चांपा,
छ.ग.
मो-9977362668

 

 

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