कहानी-गनीमत-सनत जैन सागर

गनीमत

’अब तुमको कहीं जाने की जरूरत नहीं यहीं रहो बस!’ क्रोध से भरा आलोक चिल्ला कर बोला। उसकी आंखों में, चेहरे से और आवाज से क्रोध झलक ही रहा था, इसके अलावा उसका तन भी क्रोध से हिल रहा था।
मां चुपचाप बैठी सुन रही थी। कभी आलोक को देखती तो कभी उसकी पत्नी प्रीति को। प्रीति की आंखों में भी आग्रह था।
’बार-बार अपमान होता है सहन नहीं होता मुझे। बुढ़ापा क्या उसको नहीं आयेगा ? यूं ही वो इतना बड़ा हो गया है? क्या मां ने उसे पाल पोष कर, अपने हाथों से खिलापिला कर इतना मुस्टंडा नहीं बनाया है ? आज मां बाप लाचार हो गये हैं तो उनको लतिया रहा है। दो वक्त का खाना खिलाना भारी पड़ रहा है। मां, मैं कह दिया अब तुमको कहीं भी जाने की जरूरत नहीं यहीं रहो आराम से। बाबूजी को वहीं अच्छा लगता है तो वहीं रहने दो। वैसे भी भाई तुम दोनों का हिस्सा बंटवारा करना चाहता है। इसलिए तुमको परेशान करता है। जिससे वहां से उसके घर से भाग जाओ। अभद्र व्यवहार करता है। ये सब सुनकर बदन में आग लग जाती है।’ आलोक कहता ही जा रहा था।
औैर मां के कानों में आवाज लगातार गूंज ही रही थी तब से। अंधेरे में सोने की आदत होने के बावजूद आज उसे बल्ब जलाने की बेचैनी सी हुई और बल्ब जला कर ही लेटी रही। बल्ब की तार तार रोशनी का पीछा करती हुई नजरें जाती और जाने कहां विलिन हो जाती। कुछ खोजने की चाहत में जो कुछ था वो भी अंधेरे में खो जाता।
अचानक मां उठ बैठी। और कमरे में चारों ओर देखने लगी। सांस ही आवाज आ रही थी। बल्ब की कम रोशनी में कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। और बड़ा बल्ब यानी ज्यादा रोशनी आलोक की नींद खराब कर सकती थी। वो पलंग से उतर कर कमरे का कोना कोना ढूंढ डाली, ठंड की रात भी उसे पसीने भर दी। वहां कोई और हो तब ही तो नजर आये। तभी वह चौंक पड़ी। सामने आलमारी पर लगे कांच में कोई नजर सा आया। घबरा कर ध्यान से देखी तो क्षण भर में उसकी सांस में सांस आई। उस कांच में वह स्वयं थी और धौंकनी की तरह चलती सांस की आवाज भी अब उसे स्वयं से आती हुई महसूस हुई। वह निराश सी अपने पलंग में आकर गायत्री मंत्र का जाप करने लगी। जरा सी झपकी आई और अब वो पलंग पर लेट गई।
लेटते ही आंख फिर खुल गई।
वो अपने आंगन में गोबर लीप रही थी। उसे क्या मालूम कि उसकी किस्मत उस वक्त फिर से लिखी जा रही थी। जब वो सबकुछ काम करके नहा धोकर आई तब उसे पता चला कि उसकी किस्मत पर हस्ताक्षर कर दिये गये हैं। संजय के साथ उसकी सगाई उसी शाम को हो गई।
शर्म से भरी वो देख ही नहीं पाई कि संजय कौन है कैसा है। पर पिता और भाई के स्नेह से वह परिचित थी इसलिए सुनहरे भविष्य के प्रति आश्वस्त थी।
कितना आसान था उस वक्त किसी एक, एकदम अनजान को भी अपना बना लेना। आज की तरह न तो कोई फोन था न ही मोबाइल। जिससे एक दूसरे के बारे में बहुत कुछ जान जाओ।
वक्त के पंखों पर सवार कुछ यूं वक्त बीता कि पूरी उम्र गुजर जाने का आज अहसास हो रहा था। मां पलंग के गद्दे को छूकर देखी शायद संजय के अहसास को महसूस करना चाहती थी। आंख से आंसू टपक गये। गला भर आया। लगातार उस आदमी को याद करती रही जो उसके छोटे बेटे के घर पर पड़ा होगा अकेला एक कमरे में एक सामान की तरह; जैसे कि मैं!
क्या उम्र्र के एक भाग के गुजर जाने के बाद इंसान का कोई मोल नहीं होता है ? मां के मुंह के होंठों ने बुदबुदाया। पर वो शब्द वापस आ गये सारे के सारे, बगैर किसी कमतरी के। शायद अंधेरों के पास भी इसका जवाब न था।
सुबह की रोशनी की हर कड़ी मां की अंाखों से गुजर रही थी। हर घड़ी का हिसाब था उसके पास। उसे भली भांति महसूस हो रहा था कि पूरी दुनिया अपने आप में गुम थी और अपनी गति से चल रही थी बिलकुल मदमस्त हाथी की तरह जिसे अपने आसपास से कोई मतलब नहीं रहता है। यूं महसूस हो रहा था मानों सिर्फ उसे ही दुखों के दरिया से गुजरना पड़ रहा हो।
उसे लगा कहीं वही पागल तो नहीं है जो दुखी हुई जा रही है।
सुबह हो चुकी थी और मन में अब तक अंधेरा तारी था।
दैनिक कर्मों से निवृत्त होकर वह अपना मन दूसरे कामों में लगाने लगी।
’मम्मी! कुंदन को नाश्ता करवा दो न, मैं जरा नल से पानी भर लाती हूं।’ बहू प्रीति ने कहा। वह कुंदन को खिलाने लगी। छै साल का कुंदन उछलकूद करते हुए खाने लगा। तभी कुंदन स्टूल पर चढ़ गया। और जरा सा ही लड़खड़ाया था कि मां चीख कर उसकी ओर दौड़ पड़ी।
’संभल कर आलोक के पापा ! गिर जाओगो।’ फिर कुंदन को बाहों में लेकर वात्सल्य बरसाने लगी। किचन के दरवाजे पर पानी की बाल्टी लिए प्रीति ये देखकर हतप्रभ थी। सबकुछ समझ कर उसका मन और आंखें द्रवित हो गये। वो मां के मन को पढ़ने का प्रयास कर रही थी।
मां को दो एक पल में भान हुआ कि वक्त बदल चुका है आलोक के पापा यहां नहीं हैं और वह अब दूसरे स्थान में है।
प्रीति से नजरें चुराती हुई वह कुंदन को स्टूल से उतार कर उसके मुंह में एक कौर पराठा डाल दी।
ऐसा नहीं था कि प्रीति और आलोक ने मां के लिए व्यवस्था नहीं की थी। पूरा एक कमरा खाली करके उनके हवाले कर दिया था। आलमारी, पलंग और प्लास्टीक की कुर्सियों का सेट भी रखवा दिया था। नया टीवी सेट और केबल कनेक्शन भी लगवा दिया था। ये सारे काम उसने दो दिनों में ही निबटा दिये थे। उसे मां की बड़ी चिंता थी। नहीं चाहता था कि मां को किसी भी प्रकार की तकलीफ हो।
और मां, सारी सुविधाओं के बीच….एकदम अकेली….नितांत अकेली!
आलोक कहता-’मां, जरा भी चिंता मत करना, कोई किसी को नहीं खिलाता है सब अपनी किस्मत का खाते हैं। ये घर तेरा ही घर है। अपने घर की तरह ही रहना।’
मां खुश हो जाती कि आज के जमाने में भी ऐसा बेटा मिलना कितनी खुशी की बात है। गर्व की बात है। पर जाने कैसे उसकी मुस्कुराहट में आलोक उसके दुख को पढ़ ही लेता। कहता कुछ नहीं पर बातें बनाता रहता।
’मां, कुछ सपने बीच बीच में आते रहते हैं। समझ नहीं आता कि क्यों आते हैं इस प्रकार के सपने।’
माह भर ही बीते होंगे मां को आये। उसके बाद एक शाम टीवी देखते वक्त उसने पूछा। तो मां ने अपना सर हिला कर जानना चाहा कि किस तरह के सपने आते हैं। तभी प्रीति कह उठी।
’वही ट्रेन छूट जाने वाला ?’ और ऐसा कह कर हंसने लगी।
’तुम्हें हंसी आ रही है ? तुम जानती भी हो कि सपने इंसान के अवचेतन मन पर उसके जीवन का प्रभाव होते हैं।’ आलोक ने उसे समझाते हुए कहा। ’और तुम्हारी जानकारी के लिए बता दूं आज एक दूसरी तरह का सपना आया था।’
सभी उसकी ओर देखने लगे। वह सबकी ओर एक-एक नजर देखकर बताना शुरू किया।
’हम सब एक बस में सवार होकर कहीं घूमने जा रहे थे। और कहीं रास्ते में मुझे लघुशंका लगती है और मैं बस रोककर उतरता हूं। तभी बस मुझे छोड़कर आगे चली जाती है। मैं बस रूकवाने की कोशिश करता हूं। पर बस तेजी से आगे निकल जाती है।’
आलोक की बातें सुनकर वातावरण शांत हो गया था। टीवी भी जो मंद आवाज में चल रही थी अचानक से शांत सी हो गयी थी। टीवी पर रिचार्ज करवाने को मैसेज आ रहा था। सबकी आंखों में अटके प्रश्न को आलोक ने सुलझाया।
’मैं फिर पैदल आगे बढ़ता हूं। धीरे धीरे चलता हुआ, न जाने किस शहरनुमा गांव में पहुंच जाता हूं।’
’तुम फोन क्यों नहीं करते हो किसी को ?’ अचानक प्रीति पूछती है।
’मैं बस को आगे बढ़ते देखकर तुरंत ही अपनी जेब में हाथ डालता हूं तो पाता हूं कि मेरे जेब में मोबाइल है ही नहीं। मैं बस में अपनी बर्थ पर छोड़ दिया था।’
’नंबर तो याद होगा कि नहीं ?’ प्रीति फिर से टोकी।
’आज के वक्त में नंबर किसे याद रहता है ? नंबर सेव रख लो और जब जरूरत हो फोन से डायल कर लो। भगवान की सौगंध उस वक्त किसी का नंबर याद नहीं था।’
’फिर….?’ अब की चिंतित सी मां पूछ बैठी।
’फिर क्या बहुत परेशान हुआ। पैसा नहीं था जेब में न ही कुछ समझ आ रहा था।’
’तो किसी बस में बैठ कर आ जाते!’ प्रीति समझाती हुई बोली।
’इस कोरोना के दौर में बस चल कहां रही है ?’
इस प्रश्न के साथ ही घुप्प अंधेरे की तरह, घुप्प चुप्पी सी छा गई।
मां को लगा उसकी गति की कहानी शायद आलोक के सपने में आ रही है। सच! कितनी बेचैनी सी हो रही है उसके सपने को सुनकर। किस मुश्किल में फंस गया है मेरा बच्चा। ऐसी मुश्किल, जिसमें सबकुछ पता है, जानते हैं, जानकारी है परन्तु निकलने का रास्ता ही नहीं, असहाय हैं हम।
आलोक के पापा! तुरंत याद आ गये और अपने साथ आंसुओं की दो बूंदें भी ले आये।
आलोक चला गया था अपने काम पर। प्रीति अपने काम में लगी थी। बच्चों और सदस्यों के बावजूद भी सूनापन सांय -सांय कर रहा था। घर के बाहर गली से आती जाती मोटर साइकिलों की आवाज आ ही रही थी।
आलोक के पापा हमेशा कहते थे पैसा हाथ का मैल है इसके बावजूद कुछ पैसे उन्होंने बचा रखे थे। पर इस घिसटते जीवन के लिए नाकाफी हो सकते हैं। खानदान में तो सैकड़ा तक पहुंचने का रिकार्ड रहा है और अभी पचहत्तर ही तो हुई थी उम्र। पच्चीस साल तक बगैर कमाई के बढ़े, बचे हुए धन का उपभोग करना कितना मुमकिन हो सकता है हर कोई जानता है। दिन ब दिन बढ़ती महंगाई और बीमारी किसी साहूकार को भी पल भर में गरीब बनाने का माद्दा रखती है।
अगर मकान इनके नाम न होता तो….
बदन में एक झुरझुरी उठी मां के। वह इस सोच को अपने दिमाग से हटा देना चाहती थी। वो नहीं चाहती थी कि किसी अनाम स्थान में बगैर साधन के बगैर पैसों के बगैर संपर्क के भटकना, आलोक के सपने की तरह। उसकी आशंका भी उसकी चेतना को शिथिल कर रही थी।
गनीमत है……मकान…..है…..इनके नाम……सोचकर ठंडी सांस लेकर बाहर देखकर अपना मन लगाने लगी।

-सनत जैन सागर