कहानी-बीमार-बस्तर पाति फीचर

बीमार

आँखों की पलकों का भारीपन यूँ था मानों पलको के बालों को मिलाकर किसी ने उससे आधा-आधा किलो के बांट बांध दिये हों, ऐसा हो भी क्यों न छै दिन और लगातार पाँच रात से सफर में जो था। दो रातें बस में और दो ट्रेन की बर्थ में सोते हुए गुजारी थी। सारी थकान उन बांटों के रूप में बदल गई थी। अपने सीट पर बैठा था और पक्की सड़क भी थी बावजूद इसके मैं झटके खा रहा था क्योंकि जागे रहने का प्रयास असफल होता जा रहा था। बस की मंदगति घड़ी के घंटे वाले कांटे को भी मात दे रही थी, तिस पर भी ड्रायवर गाड़ी यूं चला देता मानों उसे बड़ी जल्दी हो – साइकल की तरह कटमार लेता।
उस वक्त भले ही 15 शीटर बस के भीतर फंसी भीड़ के बीच से बाहर का कुछ भी नज़र आता परन्तु मन धक सा हो जाता। ऐसे कट तो साइकल से भी मारना खतरनाक हो जाता है तो फिर शहर भर की सवारी भर कर यूँ खतरा उठाना, ड्रायवर की कम उम्र की ओर ईशारा कर रहा था। गर्म खून का जोश ही ये सब करवाता है।
15 सीटर बस को 20 सीटर बनाकर और फिर तीस से ज्यादा सवारी भरकर भी संतुष्टि नहीं थी, रफ़्तार की कमी के साथ सवारी की लालसा में 26 किलोमीटर का सफर पिछले आधे घण्टे से जारी था और बमुश्किल 4 किलोमीटर आगे बढ़ पाये थे। बड़ी कठीन परिस्थिति थी संतुष्टि इस बात की थी कि मौसम गर्मी का न था, वरना इस भीड़ में दिन के ग्यारह बजे बेड़ागर्क हो जाता है, पर इस नींद का नशा जैसा हावी था वैसी स्थिति में जून की भरी दुपहरी की धूप में भी आराम से सोया जा सकता था। सर में कई बार सामने वाली सीट के डण्डे से चोट लग चुकी थी। बाजू वाला कई बार घूरकर देख चुका था। बाजू में खड़े बुजुर्ग की आँखों में उपजी दया ने अपना रूप बदल कर, खुद को चिढ़ में बदल चुकी थी। पीछे बैठे बच्चों के लिये कौतुहल था तो सर से मुँह तक ढंकी बुंदेलखण्डी औरतों की दबी हँसी का सबब। अचानक मुझे महसूस हुआ कि मेरी नींद जो आँखों से प्रवेष कर रही थी, उसकी राह किसी ने रोक ली, आँखों पर पलकों का गिरना रूक सा गया। यह परिवर्तन मेरी गहरी नींद में भी रेखांकित हो चुका था। इस समय बस रूकी हुई थी मिनी बस के भीतर की भीड़ भी उन सवारियों को अनाकर्षित नहीं कर नहीं थी। लगातार चलती बसों का यही हाल था, भीड़-भीड़ और भीड़। नींद के ‘ढकेलू’ झोंको के बीच घोर अचरज की घटना ने स्वयं को और गहरा कर लिया। मिनी बस की आगे की सीट पर बैठे लोगों के सरों और गठरी बने लोगों के शरीर की झिर्री के बीच कुछ तो दिखा वो कुछ ठीक वैसा ही महसूस हुआ जो फिल्मों आदि में देवी -देवताओं के साथ चलते प्रकाश पुंज की तरह था। गाढ़ा पीला – केसरिया रंग चमका, इसके साथ ही बस की भीड़ किसी सूती धोती के फटाव की तरह दो हिस्सों में बंट गई और उस प्रकाशपंुज के घेरे के बीच देवी स्वरूपा स्त्री प्रगट हुई। दुनिया भर का शोर जिसमें शामिल भीतर की सवारियों का हल्ला, बाहर आती जाती गाड़ियों का हल्ला बस के कंडक्टर की पुकार इसके बाद खटारा बस के इंजन की आवाज, सब कुछ एकाएक शांत हो चुका था, बस के भीतर सवारियाँ भी शांत थी।
सिर-शरीर वाली झिर्रीयों के बीच से गोरे चेहरे और काले बाल का जरा सा दर्शन हुआ था फिर, गाड़ी चली केसरिया साड़ी में लिपटे शरीर के बाहर गोरी बांह वाला हाथ भी जरा सा नजर आया था। इस झिर्री दर्शन से प्राप्त आकड़ों से दिमाग के गणक ने एक तस्वीर बनाई। हतप्रभ था मैं उस तस्वीर के सौन्दर्य से। दिमाग अब तक दिल को आंकडे भेज चुका था और दिल लालायित था उस सौन्दर्य के दर्शन हेतु। परन्तु भीड़ का रेला अनुमति नहीं दे रहा था। तभी बस चल पड़ी, बस के अस्थी पंजर ढ़ीले थे पर अचरजों की बौछार के बीच यह भी एक अचरज था कि बस, पानी में नाव की तरह तैर रही थी।
उत्सुकता के प्रचंड आवेग में नींद का साम्राज्य तहस नहस हो चुका था, बस के दचको से लोगों के शरीर के बीच की झिर्री हर बार जगह बदल लेती थी, झिर्री के स्थान पर बस के मुड़ाव को जान लेने का विज्ञान मेरे दिमाग ने अभी-अभी अविष्कृत कर लिया था और उन झिर्रीयों से हर बार अलग-अलग दर्शन से प्राप्त आंकड़ों का परिवर्तन बनती तस्वीर को और अधिक स्पष्ट करता जा रहा था। मुझे यह समझ नहीं आ रहा था कि इतना जुड़ाव उस तस्वीर के साथ क्यों पा रहा हूँ ?
तभी बस रूक गई। बस को लगा झटका मेरी प्रार्थना में विघ्न बन गया। लेकिन भगवान ने मेरी सुन ली ! मैं उछल ही पड़ा अपनी सीट पर। सवारियों का रेला बस से उतर गया। उन उतरी सवारियों को देखकर शायद ही कोई यह माने कि ये कुछ पल पहले बस के भीतर थी। बनती बिगड़ती झिर्रीयों ने दिमाग का पारा हाई कर दिया था, भगवान याद आ गये थे जैसा कि हमेशा विपरीत परिस्थितियों में याद आते है। अगला स्टाप जल्दी आये और सामने खड़ी सवारियाँ उतर जायें तब तो भगवान तेरा कुछ मतलब है, वरना हम तो जी ही लेते हैं हर हमेशा किसी तरह। उतरते शरीरों के बीच झिर्रियों का आकार बढ़ता बढ़ता जा रहा था। अब उस सौन्दर्य मूरत के शरीर का पिछला हिस्सा दिख रहा था वह भी एकदम स्पष्ट!
ये बस वाला भी न, सवारियाँ भरे जा रहा है। हे भगवान यहां एक भी सवारी न मिले। मेरे दिल ने पुनः प्रार्थना की।
घोर आश्चर्य! दस मिनट बस खड़ी थी पर वहां खड़ी एक भी सवारी नहीं चढ़ी इस बस में। जबकि उन सवारियों में से एक भी सवारी न रूकी जब दूसरी बस आई। पूरी की पूरी उस दूसरी बस में सवार हो गई। आखिरकार हमारी बस चल पड़ी।
अब तो ईश्वर ही मेरा सहारा बना हुआ था – उससे मांगते ही पूर्ति हो रही थी तो मांग लेना उचित ही लगा। सौन्दर्यमूरत को निहार लूं आँखे में बसा लूं।
मेरे पूर्व शुभ कर्मों का परिणाम तो देखिए। ड्रायवर ने अपने बाजू के बोनट से एक आदमी को उठने कह दिया और वहां बैठा दिया उस सौन्दर्यमूरत को आँखे और दिमाग फाड़ देने वाला सौन्दर्य प्रगट हुआ। पान के पत्ते के आकार का चेहरा था और आँखे …….. आँखें तो मादकता से भरी थी। बड़ी-बड़ी उभरी आंखों में काली पुतलियाँ हल्के पीले-लाल समुंदर में तैर रही थीं। तरकशी भौंहे उसके चमकते सुनहरे रंग के चेहरे का घोर आकर्षण थे। आँखें और होंठो में उत्पन्न भाव यूं प्रतीत होते थे मानो वो कुछ कहना चाह रहे है।
मेरे दिल की धड़कन शायद मेरे बाजू सीट में बैठे सज्जन ने भी सुनली थी उन्होंने कंडक्टर को आवाज दी और बस रूक गई।
उन बड़ी-बड़ी आँखों का निशाना मैं ही था, सम्मोहित सा बैठा हुआ, बड़ी खिड़कियों के बावजूद मेरी ओर देखना इसी बात की दुहाई दे रहा था। दिमाग अब और आंकड़े एकत्र कर रहा था। उम्र संबंधी आंकड़ों से इक्कीस बाइस की होने का पता चल रहा था। इस उम्र में साड़ी का पहनना संभ्रात घर जहाँ मर्दों का राज होता है, की पहचान बता रहा था या फिर किसी प्रायवेट कंपनी में काम करने की मजबूरी। दोनों ही कारण मुझे उसके प्र्रति सहानुभूति से भर रहे थे। उसके माथे पर पड़े हल्के से बल ने दोनों कारणों को उचित बता दिया था। उसका सौन्दर्य इतना हसीन था कि मेरी नजरें उसके चेहरे और खासकर आँखों से नीचे नहीं जा पा रहीं थीं, अगर जातीं भी तो होंठो पर आकर रूक जाती उसके सौन्दर्य में न जाने किस तरह का खिंचाव था कि मेरा ध्यान उससे हट ही नहीं रहा था। उसके गोरे चेहरे पर हल्के-हल्के रोंये थे जो धूप के प्रकाश में चमक जाते थे। कभी-कभी भौंवे कुछ इस तरह की थी कि चेहरे पर पड़ा हल्का सा बल भी उन पर सवार तीर छोड़ देता था।
बस रूक गई थी कंडक्टर ने स्थान का नाम पुकारा, एक बार नहीं तीन बार तक कहीं जाकर उस सौन्दर्य प्रतिमा का ध्यान भंग हुआ और वह बस से लगभग दौड़ती हुई उतरी। बस का ड्रायवर बस लगभग चला ही चुका था वह ब्रेक पर चढ़ ही गया था, दूसरे ही पल मैं भी बाहर था। कंडक्टर पीछे से लगातार आवाज दे रहा था।
’’ओ भैया! यहां नहीं उतरना है आपको, दो स्टापेज के बाद है, और भैया! अरे ओ भैया! सुनता ही नहीं साला।’’
मैं बेखबर उसके पीछे बढ़ रहा था दो चाल पलों के अतंराल पर सौन्दर्य मूरत अपनी चोर निगाहों से देख ही लेती थी और मेरे कदमों में तेजी आ जाती थी। बस स्टॉप की भीड़-भाड़ चिल्लाहट के बाद, बस्ती की भी आवाजें खत्म हो चुकी थी। बबूल की भीड़ में यदा कदा, जामुन के वृक्ष नजर आ जाते थे। सड़कों की जगह पगड़डी थी। मेरा पूरा ध्यान उस पर ही था। वह अब तक अपने पल्ले को शरीर से लपेटे हुए थी अब उसने उस पल्ले को खुला छोड़ दिया था। जिससे उसकी पीठ का बड़ा हिस्सा साफ-साफ नजर आ रहा था। बड़ी कटिंग वाला ब्लाउज बदन उघाड़ने को पहना महसूस हो रहा था। उसके लंबे बालों से गंूथी चोटी उस पीठ पर निरंकुश भाव से खेल रही थी।
ऐसा लग रहा था बस के सफर से दो तीन गुना ज्यादा समय हम चल चुके थे। परछाईयां सर के बराबर थी जब चलना शुरू किया था, अब वे शरीर के बराबर हो गईं थी।
दूर बबूल के बीच झोपड़ी नज़र आ रही थी। लगातार होते चमत्कारों से अब उनके प्रति आकर्षण खत्म हो चुका था। सौन्दर्य मूरत यहाँ रूके और उसका सानिध्य मिल जाये हृदय से निकली आवाज ने उसके कदमों को वहीं रोक दिया।
पर अबकी बार वह रूकी ही नहीं बल्कि पलटकर देखी भी। चेहरे पर कमानी भौंहों की जगह हसीन मुस्कान थी। उसके मुस्कुराते चेहरे और अप्रतिम सौन्दर्य ने मुझे भौचक्क कर दिया था। कल्पनातीत सौन्दर्य की मलिका थी। वह गौर वर्ण, गुलाबी आभा लिये हुए और आंखंे आमंत्रण देती हुई।
ठीक उसी वक्त बेरों की झाड़ियों के बीच हवा ने गजब ढा दिया, गाढ़ी पीली केसरिया रंग की साड़ी उसके शरीर का साथ छोड़ चुकी थी अब तो मेरे भीतर उठते उसके प्रति जिज्ञासा संबंधी प्रश्न धराशयी हो गये थे। न तो मैं जानना चाहता था कि वह कौन है ? यंू मुझे खींचते हुए यहां कैसे और क्यों ला रही है ? या मैं खुद कैसे अपने आप खिंचा जा रहा हूँ ? मैं उसका सानिध्य पाना चाह रहा हूँ या फिर वह ? हे भगवान यह क्या हो रहा है तू आज मुझ पर इतना क्यूं मेहरबान हो गया है मैं तेरे दर्शन को जा रहा था इसलिए ? पर इस तरह तो मेरा दर्शन रह ही जायेगा, सब कुछ तो तेरा दिया हुआ है। तेरे ही दर्शन से दूर हो गया तो इस जीवन का क्या मतलब ?
किसी सार्थक निर्णय पर पहुँचता कि तभी – औचक ही ध्यान भटक गया था क्योंकि एक विचित्र खुशबू ने मुझे आगोश में नजाकत से ले लिया था। लगा बादलों के बीच तैर रहा हूँ पवन के झूलों में बैठा हूँ, स्वर्गीक उपवन के फूलों खुशबूदार फूलों पर आैंधा पड़ा हूँ। अनंत उपमाओं से दिमाग वर्तमान की दशा को संगणक की भांति जोड़ रहा था। उन पलों में हुई अनंत क्रियाओं में मन की उड़ान कहाँ-कहाँ नहीं पहुँच जाती थी। स्वयं पर अभिमान होता एक पल में तो अगले ही पल प्रश्न की झड़ी लग जाती थी कि कौन है वो परी, अप्सरा या फिर भूतनी ? स्वर्गीक उपवन की गंध, भूतनी शब्द से डरने पर रोक लगा देती। वर्तमान का आनंद इन बातों से दूर ही रहता…….।
सच सी लगने वाली उसकी गहरी पनीली आँखों में झांक रहा था और वह भी मेरी सफर की थकान से भरी लाल और गाढ़ी पीली आँखों में घुसने को आतुर थी। उसके रेशमी और लंबे बालों का बार-बार मेरे चेहरे पर छा जाना मन में जो लज्जत पैदा कर रहा था उसकी उपमा ढूंढने को मन दौड़ा पर मदहोश करती खुशबू ने सोच की दिशा बदल दी। कुल मिलाकर अंधे के हाथ में रेवड़ी लगाना हो रहा था। आनंद का अतिरेक था कि आंखों को खोलकर रखने नहीं दे रहा था और मन की उत्सुकता थी कि हर इक लम्हा आंखों में बसा लेना चाहती थी। इस कश्मकश में आंखों ने झिर्री का रूप धर लिया था।
अचानक खुशबू का रेला तेज होता हुआ भयंकर तीखा हो गया। झिर्री ने साथ छोड़ा और आंखंे पूरी खुल गईं। बड़ा भारी सा आदम जमाने का पंखा दिखाई दिया। मकड़ी के जालों के सहारे थमी छत नजर आई। ढेर सारा उजाला फैला नज़र आया। कुछ कोलाहल सुनाई दिया।
और सर घुमाते ही माजरा खुलकर सामने आ गया। और उस फटीचर बस के पलटने से टूटे हाथ पैर लिए मैं जिस पर पड़ा था वो सरकारी अस्पताल का बेड़ नम्बर – 21 था, जहाँ से कांच के पार्टीशन से घिरा नर्स रूम नजर आ रहा था। जिस पर डले हरे पर्दे के बीच बारीक सी झिर्री से झक सफेद लिबास में लिपटी नर्स रूपी परियां दिख रहीं थी……।