पकने का समय कई दिनों से अब तक/लिखने का समय 8.00 पी.एम. से 1.05 ए.एम. दिनांक-8 फरवरी 2021
किसी रचनाकार की रचना का विषय समीक्षक की तटस्थता को प्रभावित करता है या नहीं ?
लेखक-सनत सागर, संपादक बस्तर पाति, जगदलपुर, छ.ग.
किसी भी रचना विधा की समीक्षा के टूल्स होते हैं जिनके सहयोग से रचना का पोस्टमार्टम कर रचना की सार्थकता बिछु तय किये जाते हैं तो उसकी कमियों को रेखांकित किया जाता है। बहुधा हम पढ़ते हैं कि फलां कहानी में गजब का शिल्प है या फिर बढ़े ही कलात्मक ढंग से रचना लिखी गयी है। वर्तमान में बहुत से तथाकथित समीक्षक रचनाओं को निम्न तरीके से देखते हैं। पहला तरीका होता है रचना में भाषागत त्रुटियों को ढूंढना। अगर रचना में भाषागत त्रुटि यथा लिंगदोष, व्याकरणीय दोष नहीं है तो रचना बहुत अच्छी लिखी गयी है।
दूसरा ढंग होता है समीक्षा का एजेण्डागत समीक्षा! अर्थात अगर आपकी रचना में किसान को पीड़ित, दलित समाज को बेचारा, महिलाओं का उत्पीडन दिखाया गया है तो आपकी रचना सौ में सौ अंक पाती है। आज कल इन तीन बिन्दुओं के साथ एक बिन्दु और जुड़ गया है वो है अभिव्यक्ति की आजादी! यानी आप अपनी रचनाओं में अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर बहुसंख्यक समाज को, हिन्दुओं को, व्यापारियों को, उद्योगपतियों को गाली देकर लिखते हैं तो श्रेष्ठों में श्रेष्ठ यानी ब्रहमांड श्रेष्ठ रचना कही जायेगी। अगर देश के टुकड़े करने की बात की है तो और बढ़िया!
तीसरे प्रकार की समीक्षा होती है तुलनात्मक समीक्षा! इस समीक्षा के अंतर्गत आपकी रचनाओं को किसी स्थापित रचनाकार की रचनाओं से तौला जायेगा और फिर आपकी तारीफ में कसीदे गाये जायेंगे। इस सदी का मुंशी प्रेमचंद, सदी का निराला, मुक्तिबोध और न जाने क्या क्या! वास्तव में किसी स्थापित रचनाकार से तुलना करने का उद्देश्य यह होता है कि वह आपको अदृश्य रूप से उस रचनाकार के समकक्ष बता रहा है। पाठक के मन में यह अदृश्य रूप से भर रहा है कि आप उस नामचीन के जैसा ही लिखते हो या जरा सा कमतर।
चैथे प्रकार की समीक्षा होती है सड़क किनारे बैठे हस्तरेखा विशेषज्ञ या ज्योतिष विशेषज्ञ की तरह! यानी उससे जो भी अपना भविष्य पूछने जायेगा वो उसको कुछ सामान्य बातें अवश्य कहेगा जो हर किसी के साथ होती हैं। जैसे कि आपका अच्छा समय आने वाला है बुरा वक्त खत्म हुआ। मेहनत करेंगे तो धन मिलेगा। अचानक यात्रा का योग है। परिवार में किसी अच्छे संदेश की संभावना है। दुश्मन के नुकसान का योग बन रहा है। यानी ये सारी बातें तो कभी भी हो सकती हैं ये सामान्य सी बाते हैं, परन्तु जब आप अपना यूं भविष्य जान लेते हैं तो फिर छोटी बड़ी घटना को उससे जोड़ कर संतुष्ट होते जाते हैं। ठीक इसी तरह से समीक्षक रचनाओं की समीक्षा में लिखेगा; रचनाएं श्रेष्ठ हैं, अगर जरा और मेहनत की जाये तो प्रसिद्धि आपके कदम चूमेगी। रचनाओं में वेग है परन्तु कहीं कहीं भटक जाती हैं। वैसे तो रचनाएं सीधी सपाट हैं परन्तु कुछ स्थानों में बिम्बों का प्रयोग उत्कृष्ठता लाता है। चूंकि पहला संग्रह है इसलिये इससे और अच्छे संग्रह की अपेक्षा रखते हैं। सपाटबयानी के बावजूद लय है।
इसके अलावा पांचवा प्रकार होता है समीक्षक के ज्ञान का ओवरफ्लो! शौक फरमाइये- ’मैं भूल रहा हूं कि नामवर सिंह ने कहीं लिखा है कि कविता लिखना एक दुरूह कार्य है जिसमें व्यक्ति ऊर्जा का क्षय होता है।’ इसके बाद लेखक को कुछ क्लिष्ट हिन्दी शब्दों से सजेशन होता है जैसे कि ’कविता में भावजन्य बाधाओं से विजयी होकर यथाचेष्ट विचार अपघटित होते हैं। यूं विचार सूक्ष्म रूप से अपसरित होकर मेधा की पृष्ठभूमि में अपचयित होकर क्षीण नहीं होते बल्कि अतुल्य रूप से स्थापित हो जाते हैं।’ इसके बाद रचनाकार के लिये इस प्रकार का संबोधन होगा जिससे अदृश्य रूप से ये साबित होगा रचनाकार समीक्षक से कम जानकार है और वह समीक्षक के कारण ही लाइमलाइट में आया है और समीक्षक उसका गुरू टाइप है। जरा शौक फरमाइये-’ प्रस्तुत कहानी संग्रह ’गणित बना भाषा’ के लेखक मेरे अनुज, संतोष हैं जिन्होंने हमेशा मुझसे कहा कि भैया मैं आपको परेशान किया करता हूं।’ या फिर ’हमारे मोहल्ले से रेखा जब स्कूल के लिये गुजरती थी तब एक बार मुझे अपना लिखा दिखाने जरूर आती थी।’ कहने का मतलब है कि समीक्षक आपसे एक ऐसा रिश्ता गांठकर बतायेगा जिससे उसकी उम्र बड़ी है। और उस उम्र के सहारे आपके लेखन में चुपचाप बड़ा साबित हो जायेगा। इस तरह के समीक्षक कुछ बड़े लेखकों के नाम को लेकर ये भी बताते नजर आयेंगे कि मुंशी जी मेरे दादा के साथ बैठकर एक बार तंबाखू खाये थे। यानी जिसका दादा मुंशी के साथ बैठ कर तंबाखू खाया था कहानी और साहित्य से कोई मतलब न था परन्तु पाठक के मन में एक अदृश्य ईट धर दिया कि बड़े बड़ों के साथ उठना बैठना था तो कुछ तो जानता ही होगा।
छठवां प्रकार होता है रचनाकार की रचनाओं को छोड़कर उसकी जीवनी को बांचने लग जाना! मतलब समीक्षक बतो लगे कि लेखक की पत्नी बड़ी सुंदर थी इसलिये इनकी कहानियों में प्रेम है। लेखक बड़ा ही ईमानदार है अपनी पुस्तक के विमोचन का पैसा बराबरी से शेयर किया था। आपकी पुस्तक समय से वापस करना उसका धर्म है। एक बार स्कूल में गिर गया तो उसने खुद को धक्का देने वाले को प्रिंसिपल की मार से बचाया था।
समीक्षाओं की इस दुनिया में रचनाकार बेचारा कहीं रह जाता है। उसकी रचनायें उसकी शक्ल, सामाजिक स्थिति, उसकी परिस्थिति के सर्वथा अलग होने के बाद भी समीक्षक के कथनानुसार किसी न किसी भूतपूर्व लेखक के इर्द गिर्द मंडराती हुयी नजर आती हैं। या फिर हिन्दी की क्लास के कड़क टीचर के डंडे को झेलती हुयी हिन्दी की पदवी पाती हैं। सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि किसी भी लेखक की रचनायें न्यारी क्यों नहीं होती हैं ?
यहां इतनी बड़ी भूमिका के बाद एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है कि किसी के लेखक की विषय वस्तु समीक्षा के टूल्स यथा कला, शिल्प, भाषा और सौन्दर्य को पछाड़कर समीक्षक के मन को अपनी ओर आकर्षित खुद को साबित करवा सकती है या नहीं ? सरल शब्दों में ये कहना है कि कोई तटस्थ समीक्षक जो समीक्षा के टूल्स के बिना समीक्षा करता ही नहीं है क्या वह किसी रचना के विषय प्रभावित होकर अपने टूल्स छोड़कर उस रचना को श्रेष्ठ घोषित कर दे ?
इसके माध्यम से मैं यह कहना चाहता हूं कि किसी भी रचना में विषय सर्वोपरी होता है। अगर विषय सार्थक नहीं है, हमारे से संबंधित नहीं है समाजोपयोगी नहीं है तो समीक्षक उसे बेकार घोषित कर देगा। मगर वो सीधे सीधे बेकार रचना है नहीं कहेगा बल्कि समीक्षा के टूल्स से उसका बारह बजायेगा। कहेगा शिल्प बेकार है, सपाटबयानी है आदि।
और यदि रचना का विषय दमदार है तो समीक्षक उसे किसी न किसी बहाने अच्छी रचना कह देगा। इस पंक्ति को लिखते हुये मेरा मतलब ये कतई नहीं है कि रचनाओं को मर्यादाओं में नहीं लिखा जाना चाहिये।
क्या कभी आपने इस तरह की कोई रचना लिखी है या लिखने की कोशिश की है ?