आलेख-पाठकों की समस्याः लेखक क्या करे-बुड़बक सिंह राजपूत

पाठकों की समस्याः लेखक क्या करे

 

लेखक और पाठकों का विमर्श ब्रहम् के विमर्श की तरह अंतहीन हैं। कोई कहीं नहीं पहुंचता। बस, ये भी है, ये भी है और यह भी नहीं, यह भी नहीं। पर विमर्श से कौन बाज आए। उसी चीज को पकड़ने की कोशिश की जाती हैं जिस पर हमार काबू नहीं। शायद यही हमारी जरूरत है।
यह लेख उन संतुष्ट आत्माओं के लिए नहीें है, यह उनके लिए है जिनकी चंद जिंदा सांसे बची हैं, थोड़ी भी छटपटाहट मौजूद है।
वैसे तो यह लेख मात्र लेखकों को केंद्रित कर के लिखा जा रहा है, पर बहुत आवश्यक होने पर संपादक खुद जिन्हें सचमुच में हिन्दी पाठकांे की स्थिति पर थोड़ी भी शर्म आती हैं, पर किसी भी हालत में आलोचकों और समीक्षकों का यहां कोई काम नहीं है। उनके लिए यहां कुछ भी नहीं है, क्यों ? शीघ्र ज्ञात हो जाएगा।
इस पर बहुत अघिक लिखने या कहने की जरूरत नहीं है। लेखक को कितनी रायल्टी मिलती है, खाता खुलता है या नहीं, लेखक अच्छी तरह जानते समझते हैैं। लेखक ये भी जानते हैं कि उसके पाठक (?) हैं या नहीं, हैं तो कौन से लोग हैं जो इनकी किताबें पढ़ते हैं। सीधी सी बात हैं, मैं यहां यही कहना चाह रहा हूं कि चाहे कोई भी लेखक हो उसे सामान्य पाठक जिन्हंे वास्तविक पाठक कहा जाना चाहिए शायद हमारे परिदृश्य में नहीं है। लेखक ही लगभग पाठक बन गया हैं। यह तथ्य कोई नया नहीं है, पर हम इसे स्वयं से छिपाते हैं। आखिर पचास-साठ करोड़ की आबादी वाले हिन्दी पट्टी में प्रकाशित कोई बहुचर्चित पुस्तक हजार दो हजार की संख्या में बिके तो क्या प्रतिशत निकला। कहां हैं वास्तविक पाठक और हिन्दी में व्यवसाय या मारकेट का आगमन ?
इस पर बहुत रोना -धोना हुआ है। अब सिसकी मारने का कोई फायदा नहीं। विडंबना ये है कि इस मृत पाठक-लेखक की दुनिया में साला व्यापार जिंदा है, फूल और फल भी रहा है। जी हां, प्रकाशक खुश हैं और आपकी फटीचरी पे उसे बहुत ’नाज’ है। क्यों न हो, आज जब आप अपनी पुस्तक प्रकाशित करना चाहेंगे तो आधे-पांच सौ की पुस्तक तो आप ही खरीदेंगे (या बिकवाएंगे), यानी उसकी लागत साफ ! अब कोई फायदे में से कुछ निकला तो ठीक नहीं तो पुस्तक के रूप में रायल्टी तो मिल ही चुकी है। हम इस परिस्थिति पर भी खूब टेंसुएं बहा चुके हैं।
मुबारक होे!
प्रकाशक का कोई नुकसान नहीं। उसे फायदे ही फायदे हैं। कच्चा माल, लागत और विज्ञापन वह आप ही किए जा रहे हो। कम्प्यूटर टाईप, सी.डी. भी आपने उपलब्ध करा दी, ब्लर्ब भी आपने लिख दिया, प्रूफ भी आप देख लिए, संभव हो सके तो आवरण चित्र भी आपने मुहैया करा दी; फिर क्या ?
प्रकाशक का अपना बैनर और मुनाफा। कमाल है, मजा आ गया। छपने का मोह हो तो ऐसा। आपके इस मोह का किसी ने कितना गलत ’फायदा’ उठाया आपको नहीं मालूम।
प्रकाशक क्यों फल-फूल रहे हैं और लेखक नहीं, उसका एक चंद विश्लेशण तो उपर सूत्र रूप में आ चुका। दूसरा हथियार है प्रकाशकों द्वारा खूब लेखकांे को छापना। मोटा हिसाब हैं, अगर एक प्रकाशक समूह दस लेखकों की दस किताबें साल में दस हजार छापता और अपने लाभ का दस प्रतिशत (मोटे तौर पर जिसमें चोरी, मक्कारी वाली पेट-मरोड़न रकम शामिल नहीं हैं) कमाता है। चूंकि वास्वतिक पाठक लापता हैं ब्रहम् की तरह, माया है। काल्पनिक है, और प्रकाशक को उसकी तलाश भी नहीं है, हालांकि वह उनकी तलाश में योगदान करे तो वह भी फायदे में रहेगा, आज अगर टोएटा में घूमता हैं या टेªक्टर में तो टोएटा वाला कल मर्सीडिज अवश्य ले लेगा और ट्रेक्टर वाला टाटा नैनो। पर, उसे जहमत उठाने का रिस्क नहीं लेना है। क्योकि उसे फायदे के लिए लेखक नाम का दुपहिया ’टट्टू’ सेवा में हाजिर है। प्रकाशक नाम का समाजवादी प्राणी इस ’टट्टू’ का किस तरह प्रयोग करता है पहले जहां दस लेखक छपते थे वहां बीस नहीं चालीस छपने लगे। चालीसों ने अपना बना बनाया पाठक दिया और प्रकाशक ने चबाया भुनाया। जी हां! गणित के इस सीधे सूत्र से वे मालामाल होते गये, आपके बाप के दम पर। ध्यान रहे, प्रकाशक का टर्न-ओवर कई गुना बढ़ा पर एक लेखक का ? उसकी खुराक उतनी ही है दो रूपए वाली एक बंूद होमियोपैथी की! यानी ज्यादा पुस्तकों का प्रकाशन ज्यादा से ज्यादा लेखकों द्वारा या ज्यादा प्रकाशन सीमित लेखकों द्वारा।
इस सीधे सूत्र के हवाले से विश्व में प्रकाशकों के उपर शायद ही कभी संकट आया पर लेखकांे की स्थिति दिन प्रति दिन कठिन और दरिद्रतर होती गयी हैं। आज अंग्रेजी के बेस्ट सेलर भी अपनी मारकेटिंग के लिए सोसल नेटवर्किग, ब्लॉग, इत्यादि तकनीक का सहारा लेने के लिए विवश हैं। प्रकाशन जगत में ऐसी कोई विवशता नहीं है।
पर हम (लेखक) हैं कि संतुष्ट हैं।
मुबारक हो।
इस विश्वव्यापी संकट में (हिन्दी जगत में यह कभी संकट नहीं रहा) लेखक, प्रकाशक और संपादक मिलकर कैसे चुनौती का सामना करे ऐसा प्रयत्न गहराई से देखने में नहीं आता। पश्चिम जगत में प्रकाशन एक बड़ा उद्योग है और करोड़ांे की संख्या में लोग प्रत्यक्ष /अप्रत्यक्ष रूप से इस उद्योेग / व्यवसाय से जुड़े हैं, कुछ विमर्श और प्रयास वहां जरूर देखने को मिले हैं। तकनीक को विकल्प के रूप में इस्तेमाल कर पाठकों के सामने रखा जा रहा है, और तकनीक का प्रयोग पाठक बनाने, नये पाठक तक पहुंचने में प्रयोग किया जा रहा हैं । यहां यह जिक्र करना बहुत बुरा नहीं होगा कि आप अंग्रेजी की एक बेस्ट सेलर पुस्तक घटकर पांच से आठ मिलियन प्रतियां हो गयी हैं, वहीं नेट और टीवी के जमाने के पूर्व यह पन्द्रह से बीस मिलियन हुआ करती थी। जी हां ! मेरे प्यारे हिन्दी सेवकों। आप बेहोश तो नहीं हुए ?
पर मजा ये कि वहां भी लेखक ही असली सफर कर रहा हैं, प्रकाशक का ’सफर’ अपनी ऊंची गाड़ी में जारी है।

लेखक क्या करे (एक एकम् एक)

अब हम क्या करें ? यहां तो बहुत सारे भूत-मलेच्छ हैं। एक को झाड़ो तो दूसरा आ चिपकता हैं। पर मेरी निजी राय में जरूरी नहीं कि सभी इत्तेफाक रखें। कुछ भूत-परेत बड़े खास किस्म के हिन्दी जगत् में विख्यात हैं जिन्हे लेखक नामक ’टट्टू’ ऐंड़ खा-खा के पहाड़ फांदे जा रहा हैं । चलिए गिनती करते हैं, मुलाहिजा फरमाइए –
एक भूत-मलेछम् एजेंडा जैसे नारी विमर्श और पुरूष विमर्श! गधा कहीं का इसमें ’चाइल्ड’ नामक कीड़ा कहीं नहीं है जहां से पढ़ने का अभ्यास होता है।
दो, भूत-मलेछम् सोसलिज्म
तीन, भूत-मलेछम् मानवाधिकार
चार, भूत-मलेछम् दलित विमर्श (एक गधा दूसरे गधे को क्या बताए कि भाईजान! तू ही सबसे बड़ा दलित इस धरती पर है।)
इस तरह से कई ’लेछम्’ आए और गए, आएंगे और जाएंगे। काफ्कावाद से चेखबवाद तक!
तो़़़़़़………..? चले इस मलछेम् की सफाई करें। क्या ख्याल है आपका ?
तो हम क्या करें ……….?
एक, यथास्थिति स्वीकार कर लें ?,
दो, भगवान के अवतार की प्रतीक्षा करंे, वे आएंगे आसमान से और हमें ढेर सारे पाठकों का वरदान देकर चले जाएगें ?,
तीन, प्रलय तक इंतजार करें, कुछ तो बढ़िया होगा ही, कोई बढ़िया नेता (हिन्दी का) पैदा होगा या प्रकाशक ही पैदा हो जाए विष्णु के रूप में,
चार, हम कुछ करें, कुछ सोचें।
हम चौथे नम्बर पर ठहरते हैं। पहले कुछ सोचें फिर करें। बहुत आसान काम, सीमित साधन और सीमित शक्ति से, छोटी सी शुरूआत।
अगर यहां तक आकर आपको लगता हैं कि यह सब बकवास हैं तो आप चूतड़ झाड़कर उठ जाइए, आप मेरे काम के नहीं। आपको बधाई! आपने यहां तक पढ़ा। पर आप सचमुच बेचैन हैं लिखकर कमाना और परिवार पालना चाहते हैं, तो कोशिश किसी और को नहीं, आपको ही करनी पड़ेगी। अगर आपके जेहन में उन महानुभावों (धोतीधारी-पान चाभू आलोचकों) की वे बातें याद हैं जो हिन्दी में फटीचरों, गरीबी, पैबंदगिरी, उधारगिरी, भिखारीगिरी, फटेहाली, फकीरी को ग्लेमराईज करते आए हैं, वे कहते हैं यह लेखकों का छुपा हुआ ’वरदान’ है। अब इस ’वरदान’ की व्याख्या के लिए कम से कम मुझे दस जन्म लेने होंगे। आपको पता हो तो कृपया सूचित करेंगे। दो टूक, ढोंगगिरि, पाखंड़ीपना, रंडीपना खतम हो। एक किताब औसतन मान ले कि तीन सौ पैसठ दिनों में लिखी जाती है तो एक दिन की (सरकार ने न्यूनतम मजदूरी कितनी तय की है-गुना तीन सौ पैंसठ) के हिसाब से पुस्तक से पैसा पाने का हक है, और भत्ता भी। लेखक यदि फुल-टाईम रायटर बनता है तो इसका फायदा सभी को है, प्रकाशक, संपादक, रिटेलर सभी को।
तो कह रहा था कि आप अपनी स्थिति को वरदान नहीं मानते तो आपके पास कई चुनौतियां हैं, लेखक के रूप में। इसमे आपको स्वयं सोचना, स्वयं निर्णय लेना है, बिना किसी से पूछे। अगर आप अपनी मदद नहीं कर सकते तो समझ लीजिए कोई आगे नहीं आएगा।
इसके लिए कि इस भूतम-प्रेतम से कैसे छुटकारा पाया जाए मेरे पास कुछ बहुत आसान व्यवहारिक सुझाव हैं, मगर एक शर्त हैं, कान मुझसे ही फूंकवाना होगा, और रह-रहकर रेनेवल भी कराते रहना होगा। ऐसा नहीं हैं कि वह कुछ खास मंत्र है, कौन नहीं जानता कि बिल्ली के गले में घंटी बांध दो, समस्या खत्म!
यहां भी ऐसा ही कुछ है। बस आप तैयार हांे तो मैं भी आगे कान फंूकने की तैयारी करूं ?
कुछ कहना हैं ? दिल खोलकर कह डालिए मगर निर्दोष मन से, मुझे बेकार के बहसों-विमर्शों में कोई दिलचस्पी नहीं।
मुबारक हो। आपने यहां तक पढ़ लिया।

लेखक क्या करे ? (एक दूजे दो)

मान लें एक पुलिस का हवलदार (नर्क-नरेश) के शाप से हिन्दी का लेखक बन गया। वह ईमानदारी से रहना चाहता है, अब क्या करे, लिखे-छपे और प्रकाशक से पैसे के इंतजार में बैठा रहे, अच्छे पैसे मिले तो चौकीदारी छोड़कर खूब लिखूंगा, मगर बेचारा विवश है और जुआ -सट्टावालांे से हफ्ता खाने को मजबूर। इसे ही हमारे अतिमानव ’ब्लेसिंग इन डिसगाईज’ कहते हैं, पान की पील्ली थूककर!
तो ………..? मैं कह रहा था कि लेखक क्या करे! एके राम एक तो हो गया, ऐके राम दू क्या हो ?
रामे राम दो ये कहता है कि थोड़ा हिम्मत दिखाओ। पालथी मार के बैठे हो तो उठ जाओ। अगर अपने प्रकाशक से खुश हैं तो ईश्वर आपका भला करे, अगर नहीं तो गठबंधन तत्काल खत्म कीजिए। बिना प्रकाशन जिंदा रह सकते हैं तो उसकी आदत डालने का प्रयत्न करंे।
उपाय कितना आसान है, लेखक समूह बिना शर्त किसी प्रकाशक को छपने के लिए पांडुलिपी न दें, यह प्रकाशक का दायित्व है कि वह पाठक तैयार करे, पाठकांे तक किस तरह, कैसी रचना लेकर पहुंचनी हैं यह उसकी जवाबदारी है, लेखक की नहीं। उसका काम लिखना है, कैसा लिखना और किसके लिए यह उसका चुनाव है। पर स्थिति उल्टी है। और इन उल्टी चीजों को उलटने की दिशा में हम और उल्टे हैं। खैर, तो रामे राम दो में मुझे ऐसा लगता हैं कि लेखक कुछ समय के लिए स्वयं (लेखक तो वह है ही) प्रकाशक, वितरक, प्रचारक, समीक्षक सब कुछ बन जाए।
कैसे ? रामे राम दो बड़ा उलझा रहा हैं। नहीं, ऐसे करतब पहले हो चुके हैं। लेखकांे का को-आपरेटिव तौर पर लिखना-छापना इतिहास सिद्ध है। हमारे यहां क्यों नहीं है, बड़ा घोर ताज्जुब का विषय है। आखिर लेखक अपनी स्थिति से असंतुष्ट क्यों नहीं होता ? प्रकाशक कहता हैं कि हिन्दी में पाठक नहीं हैं और हम मान लेते हैं। बदले में समीक्षा, पुरस्कार, चर्चा, वाहवाही के लिए उठाईगिरी, गिराईगिरी, करते फिरते हैं। अपुन का साला यह स्टाईल समझ नहीं पाता। हमारे पास क्या हैं कि हम उसके खो जाने से भयभीत हैं। आज के दौर में और इंटरनेट के जमाने मे कुछ नहीं तो अपने गिने-चुने पाठकांे तक पहुंचने की ही समस्या है तो एक सीडी, एक इमेल अपलोड काफी है। इतना डर कैसा। खैर, माना प्रकाशक सच बोल रहा हैं (कभी कभी सभी सच बोलते हैं) तो क्या लेखक यह मान ले कि उसके तीन का आंकड़ा, सैकड़ा कभी हजार नहीं होगा, हजार कभी लाख नहीं होगा, इस करोड़ों की भीड़ में!
यह स्वीकार ही सारी मुसीबत की जड़ है कि बच्चा बूढा टीवी देखेगा मेरी किताब क्यों पढ़ेगा, आज किसे फुर्सत हैं किताब पढ़ने की। चिठ्ठी लिखने की और कलम चलाने की।
आपका संशय गलत नहीं हैं, पर यह अंतिम भी नहीं।

एकम् तीजे तीन

रामे राम तीन ये कहना हैं कि लेखक उस जगह जाकर घास छीले जहां सफाई पर अब तक ध्यान नहीं दिया गया हैं। यानी फावड़ा वहां चलाए जहां की जमीन अछूती है और जहां शर्तिया हीरा नहीं तो कोयला अवश्य दबा हुआ है। जी। हमने कभी इसे उद्योग नहीं बनाया। उत्पादन, वितरण, पर ध्यान नहीं दिया गया। जबकि पुस्तक जब छपकर आ जाती है तो पुस्तक एक आर्थिक रूप तो पा ही लेती है। वैसे दारू और पुस्तक मुफ्त उड़ाने का अलग मजा है। दारू चलने दीजिए, पर पुस्तक के साथ अब यह बंद हो। नो फोकट का पढ़ाई। कम से कम रीडिंग क्लब, लाईब्रेरी में एक फीस चुका कर हम पुस्तक पढ़ें, अगर खरीद नहीं सकते तो!
आप एकदम से मुफ्त पुस्तक पढ़कर लेखक के प्रति एक तरह का पाप करते हैं। जी! मेर ख्याल से सातवें नर्क के नीचे से कम नहीं। और प्रकाशक पता नहीं किस हद का पाप करता हैं रायल्टी खींचकर। उसके बारे ने नर्क-नरेश ने सोचा ही नहीं था कि अपने पैर पर कुल्हाडी मारने का काम कोई कैसे कर सकता है।
तो प्रकाशन व्यवसाय पुस्तक छपाई भर नहीं हैं जैसा कि अब तक हमारे यहां माना जा रहा है प्रकाशन व्यवसाय दरअसल पुस्तक विक्रय का करोबार हैं। सिर्फ छप जाना कहां का उद्योग हैं ? और इसमे कौन सा लेखक पहाड़ पर जाकर बैठ जाता है। अगर आप पुस्तक बेच नही सकते तो अपनी दुकान तत्काल बंदकर दीजिए।
इसे उद्योग कैसे बनाए ? कैसे बेचें ?
मतलब
एकम् चौके चार

रामे राम चार कहते हैं, बल्कि नफरत करते हैं आपके ढोंगी सफेद दाढ़ी और मूंछो से। उसे क्लीन शेव पसंद हैं। वे कहते हैं कि तमाम पत्रिकाएं, तमाम प्रकाशन समूह और रचनात्मक घराने क्रांतिकारी, समाजवादी, न्याय और शोषण के विरूद्ध आवाज उठाने वाली हैं। मगर इसका क्या कि आपका पीछे का कुंआ खोदकर कोई खा गया आपको होश नहीं है। आप अपने विरूद्ध न्याय कीजिए। दुनिया के साथ न्याय बाद में। मतलब ढोंगी-फरेबी दाढ़ी साफ करें।

एकम् पंजे पांच

अगर रामजी का पहाड़ा यहां तक आपको जुबानी याद हो गया और चीजें कुछ साफ हो गयीं तो आप एक कदम दरवाजे के बाहर हैं। भीतर नहीं आए हैं। चौखट पर भी नहीं।
रामे राम पांच, आपको चौखट पर बुला रहे हैं।
जय श्री राम!
हनुमानजी का नाम लेकर आप कदम बढ़ा दें।
आप दो काम कीजिए –
एक – पहले जो सीखा हैं उसे एक सेंकेंड में भूल जाइए, भूल गये ?
दो – बच्चों और युवा पीढी पर ध्यान दें।
रामजी राम पांच, बच्चों 3-6, 7-10, 12-14, 15-24 साल तक के उम्र के लिए सोचता हैं। (यह अलग बात हैं कि अभी भी मुझे अमूल डब्बा वाला दूध फांकना पसंद है) यानी बाल साहित्य, किशोर साहित्य और युवा साहित्य, मोटे तौर पर!
मैं क्यांे इन पर जोर देना चाह रहा हंू कि अभी तक हिन्दी जगत में ये उपेक्षित हैं, बावजूद कि यह सही हैं, मगर मेरे द्वारा इस पर फोकस करने के बहुत अलग कारण हैं। इस पर रामजी पांच अलग व्याख्या करना पसंद करेंगे, मगर सार यह पेश कर दूं कि एक ही प्वाइंट है यहीं जहां से नया संसार आपके अनुसार ढलता है। जैसी आदत संस्कार डाले जाएं। (टीवी और बालाजी तो यह कर ही रहा है) अगर खुदा मुझसे पूछे कि सबको मार डालो सिर्फ एक प्राणी को छोड़कर तो मैं इस बच्चे को ही बचाना चांहूगा भले ही प्रेमिका अनंत काल तक रूठी रहे और शिकायत करती रहे।
मतलब ये कि यही वो उम्र है जब बच्चे अपने घर से बाहर आसपास की चीजों को देखना, महसूस करना शुरू करते हैं और एक अनंत दुनिया उनके सामने फैली होती हैे। इस उम्र में अगर वह नहीं पाठक बना तो बाद में वह लेखक भले बन जाए, पाठक कभी नहीं बन पाएगा ।
मिडिल स्कूली बच्चों और हाई स्कूलियों के लिए थोक के भाव मंे लिखी, छपनी और पहुंच होनी चाहिए। बधाई हो नये लेखकों। (मैं तो अभी नया भी नहीं हंू) आपकी घास बहुत हरी -भरी है। खबरदार ! गघा हरियाली देखकर दुबला हो जाता है, वैशाखनंदन!
इस विषय पर क्यों, कैसे, कितना, कैसा, किन-किन पर और कैसे लिखें, के लिए अलग से स्पेस चाहिए। इस पर फिर कभी। कुछ बातें कान में कही जाने लायक हैं।
तो ? आप सब पहले वाला भूल गये। नहीं। कान फंुकवा लीजिए। कचरा धंू- धूं और थू-थू करके निकल जावेगा।

एकम् छक्के छः

छक्का तो मारना ही पड़ेगा। मेरी दिली ख़्वाहिश थी कि मैं छठवें में छः बार फेल होऊ मगर तीसरी बार में ही पास हो गया। समाजवादी जमाना था उपर ठेल दिया गया। पप्पू बहुत पहले, इस विज्ञापन युग से पूर्व जन्म ले चुका था।
मेरे प्यारे पप्पू ! आप भी पास हो जाएंगे। थोड़ा धीरज रखिए।
चौखट में आ गये न।
रामे राम छः लिख लेने के पूर्व एक कोड बनाना चाहते हैं। उसका पालन करना होगा। अगर बहुत मन छटपटाए तो बाहर छप जाएं। कोड के पीछे एक ही उद्देश्य होगा टीवी और वीडियों गेम से चिपके भोंदू बच्चे को ऐसा क्या पढ़ने को दिया जाए कि वह अपना मोटा चश्मा उतार कर नंगी आंखांे से आपकी किताब में धंस जाए। बहुत चुनौती पूर्ण है। यहां आपकी सोच, रिसर्च, बुद्धिमानी, कौशल, तमाल, अस्त्र बहुत कमजोर पड़ने वाले हैं और सारी हमारी ऊंची गप्पें कोरी! कठिन काम हैं। पर छक्का मारने का प्रयास करना ही है। बैट घुमाइए।

एकम् साते सात

लेखकों के को-आपरेटिव सेक्टर से प्रादेशिक क्षेत्रीय या राष्ट्रीय जो हो, प्रकाशित पुस्तक जो पटाखेदार होगा ( कतई गैर साहित्यिक नहीं) उसकी मारकेटिंग की बारी है। वह हमें ही करनी है। ठेला में लेकर सब्जी – भाजी की तरह चीख – चिल्लाकर, ले लो हरी ताजी मीठी सब्जी! ले लो मीठे टमाटर !! कहां भागे। घबरा गए! हम जानते है जब मैं यह काम नहीं कर सकता तो आप कहां से, हालांकि इसमें कोई बुराई नहीं हैं, हम तो समस्त आत्म-परमात्म को एक ही दृष्टि से दखने के आदी हैं। खैर, असल में यहां उसकी जरूरत नहीं है। इन अध्यायों पर भविष्य खुला है, विचार खुलें हैं, रास्ते खुलेंगे। आप चलिए तो। मगर सार बता दूं, स्कूल, हाईस्कूल सीधे आपके टारगेट होंगे, साथ ही सोसल नेटवर्किग और विदेशो में लाखों हिंदी पढनेवाले, जानने वाले एनआरआई। इंटरनेट जिंदाबाद। जो नेट, टीवी एक लेखक के लिए चुनौती बनकर आया था वही एक व्यापारी सेल्समैन लेखक की मदद कर रहा है। थोड़ा सा प्रयास हो सामूहिक हो। भगवान करे आप अंगूठा पानी में डुबो-डुबो कर डॉलर गिने।

एकम् आठे आठ

रामे राम आठ चेतावनी देते हैं। खबरदार। बच्चों-युवाओं पर लिखते, छपते हुए एजेंडे से सावधान। बच्चों युवकों के बारे में वे स्वयं लिखेंगे। कलम आपकी घिसेगी, लिखेंगे वे। मतलब क्या उलटबांसी है। मतलब इनकी दुनिया आप आपनी आंख से नहीं देखेंगे, उनकी आंख से देखंेेगे। चित्र या दृष्य उनका होगा आपकी ओर से ठंूसा नहीं जाएगा। और इस लिखे को वे अपने अनुसार समझेंगे, मास्टर, गाइड समीक्षक या आलोचक के समझाने पर नहीं। चीजें इतनी साफ हांे कि समझाने लायक कुछ बचे ही नहीं। बच्चे या युवा डिक्शनरी लेकर आपकी किताब नहीं पढ़े।
एक चेतावनी और है,
यहां तक आकर आपका मन निराश हो गया या खुशी से झूम उठे और आप तुरंत कार घूमने का ख्वाब देखने लगे, लाखों प्रतियों बेस्ट सेलर की कामना करने लगे और हजारों स्कूल / कॉलेज सुन्दरियों को ऑटोग्राफ देने लग गये या लिपिस्टिक होठों का चुम्मा खाने लगे तो इस लेख को अभी फाड़ फेंकिए। यह लेख सिर्फ एक दिन की उस सांस की तरह है जिसे पता है कि मरना है मगर आजाद सांस क्या होता है नहीं जानता। और यह भी कि आप उस चोर – उचक्कबाजों का पॉकेट गरम करने का मौका अब नहीं देगें।

एकम् नवे नौ

रामे राम नौ कहते हैं बिना तात्कालिक परिणाम के एक छोटी सी शुरूवात करो हो सके तो 10-15 हजार का दांव लगाओ और प्रतीक्षा करो। मेहनत करो।

एकम् दसे दस

अंक तो मूलतः नौ ही हैं, पर बस तो दस पर ही होता है। रामे राम दस यहां तक पढ़ने -समझने मनन करने के लिए आपका शुक्रगुजार हैं।
पढ़कर मुस्कुराते हुए उठ खड़े होने के लिए और आपके इस नेक ख़्याल के लिए कि बेटा बाप को सीखा रहा है……।
बहुत-बहुत शुक्रिया जनाब ।
और पृष्ठ कूड़े में डालने के लिए अनंतकाल तक यह गुलाम आपकी खिदमत में पेश है।

संपादक क्या करे ?

लेखकों के बाद दूसरा महत्वपूर्ण दायित्व संपादकांे का आता है, पत्र-पत्रिकाओं के संपादक, प्रकाशनों के संपादक। इस गेलेक्सी में अकेला कुछ भी नहीं, एक इकाई अंततः एक समूह का हिस्सा है। फिर मैं क्यों संपादकों, समीक्षकों, आलोचकों का मजाक उड़ा रहा हंू, नहीं मैं अपने भीतर के समीक्षक, आलोचक, संपादक की ऐसी-तैसी कर रहा हंू। और आपत्ति दर्ज करता हूं अतिवाद से। आज कोई भी पत्रिका बिना किसी एजेंडे के जिंदा नहीं है। समस्या पर एजेंडे से मुझे परहेज नहीं है। परहेज है चीजों की घोर मठ्ठा करने से, चीजें जिस तरीके से आ रही हैं वह सिर्फ पाठकों को दूर करने का काम कर रही हैं। और ये चीजें सिर्फ तथाकथित आलोचकांे-विद्वानों के लिए लिखे जा रही हैं। मेरा गुस्सा साफ है। एजेंडा जरूरी है। उदाहरण है, मान लीजिए दुनिया की समस्या पर प्रदर्शनी लगी है, इसका क्या फायदा क्योंकि जिन्हें सुधारना है वे बुरे लोग तो यहां आते नहीं, उत्तर है, प्रदर्शनी उन बुरे लोगों के लिए नहीं है, यह एजेंडा उन अच्छे लोगों के लिए है और यह बताने के लिए बम के आगे रहना चाहोगे या पीछे ? साफ हैं कि यह उन अच्छे लोगों को सच्चाई बताने और उन्हें बचे रहने का यह उपाय मात्र है। इसलिए एजेंडा जरूरी है और आज बिना किसी एजेंडे के कोई कहानी या लेख प्रकाशित नहीं हो सकती। यह ठीक है। मेरी आपत्ति सिर्फ इसके प्रदर्शन के तरीके से है।
अब और स्पष्टीकरण दूं ?
आलेख, लेख, गल्प के पृष्ठों को आधा कर दीजिए और स्कूल, कालेज छात्रों के लिए सद्-साहित्य छापना शुरू कर दें। यह कैसे करें।
कहने के लिए हजार बातें हैं मगर सार ये कि,
भूले नहीं कि साहित्यिक रूचि के साथ आपको मौलिक पाठकों को तैयार करना हैं, अतः क्या उस नये पाठक को निर्मलजी को पढ़ने देंगे या प्रेमचंदजी को?
मेरे कुछ अलग ख्याल हैं।
टीवी के जमाने में नये पाठकों को पुस्तक, पत्रिकाओं से जोड़ने में सिर्फ और सिर्फ साहित्यिक पत्रिकाएं ही महत्वपूर्ण काम आ सकती हैं। उसमें क्या छपेंगी कैसे छपेंगी इस पर पीछे कुछ संकेत छोड़े गये हैं मगर विस्तार से चर्चा अभी बाकी है। अभी सिर्फ ’इंसटैंट’ उपाय के तौर पर यह सुझाव देना चाहूंगा कि पत्रिकाएं सीधे युवा पीढी को साहित्य लिखने, उन्हंे प्रकाशित करने को प्रेरित करे। उनसे लिखवाए, छापे। स्कूल, कालेजों में कहानी, निबंध, कविता इत्यादि प्रतियोगिताएं कर इसकी शुरूआत हो सकती है। स्कूलों के पिं्रसीपल, मैनेजमेंट से सीघा सम्पर्क कर सकारात्मक प्रयास हो सकते हैं। हर पत्रिका, सक्षम हो तो उसका बाल /किशोर अंक प्रकाशित कर सकती हैं। जिसमें किशोर एवं युवा पीढ़ी बहुतायत से सीघे अभिव्यक्त करेंगी और छपंेगी। क्या हम उम्मीद करें किं इस देश में फिर किसी ’पराग’ का जन्म होगा ? अच्छी चीजें क्यों मिट जाती हैं। ’चपंक’ और ’पराग’ पढ़नेवाला ही आपका कल हंस, अक्षरपर्व या कथन पढ़ेगा।
इधर प्रगतिशील वसुधा में कुछ ऐसे प्रयास दिखे हैं, पर बहुत ठंडा-ठंडा सा।
आपने चाहा तो आगे यह चर्चा जारी रहेगी। असल में इस लेख, इस उददेश्य का कहीं अंत है ही नहीं। प्रकृति का नियम है, आगे बढे़ या पीछे जाने के लिए तैयार रहें क्योंकि इस संसार में स्थिर कुछ भी नहीं।
आप स्थिर हैं, संतुष्ट हैं मतलब पीछे जा रहे हैं।

सादर
बुड़बक सिंह राजपूत

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