महेश राजा की लघुकथा और कविता

ईमानदार नागरिक

प्रायः मुझे हर दूसरे दिन बस से शहर जाना होता था। बहुत पहले की बात है, तब किराया होता था, तीन रूपये चालीस पैसे। परिवाहन निगम की टिकिट खिड़की पर जो आदमी बैठता था, वह मुझे साठ पैसे कभी नहीं लौटाता था। वह हर बार कहता -चिल्हर नहीं है। या झल्लाता -चिल्हर लेकर आओ। मेरी तरह दूसरे यात्रियों से भी वह इसी तरह से व्यवहार करता। इस तरह शाम तक वह पंद्रह बीस रूपये बना लेता। उन दिनों इतने पैसों का भी बड़ा महत्व था। तब वेतन 260रुपये हुआ करता था।
मैं जानता था कि उसका यह कार्य अनुचित है, लेकिन मैंने कभी चिल्हर पैसे नहीं मांगे। मैं अक्सर दस रूपये का नोट देता और वह मुझे छह रूपये लौटाता।
यह क्रम बना रहा। आज मैंने संयोग से उसे पांच रूपये का नोट दिया। उसने मुझे टिकिट दिया और छह रूपये वापस किये। मैं विन्डो पर ही खड़ा रहा। उसने मेरी तरफ देखा और आदतन झल्ला कर कहा, -छुट्टे पैसे नहीं है। आपको पैसों का इतना ही मोह है तो खुले पैसे लाया करे। चलिए भीड़ मत बढ़ाइये। आगे बढ़िये।
मैंने कहा, -बाबूसाहब सुन तो लीजिये, मैंने पांच रूपये का नोट दिया था…..आपने मुझे ज्यादा लौटा दिये हैं..।
वह बोला, -ज्यादा लौटा दिये हैं तो देश के ईमानदार नागरिक की तरह वापस कर दीजिये। दूसरों के पैसों पर नियत खराब करना अच्छी बात नहीं है।
मैंनै पांच रूपये वापस कर दिये। उसने उसे मेज की दराज में डाला और दूसरे यात्री का टिकिट काटने लगा।

 

झील में चाँद नजर आया

आज उसी झील के किनारे बैठा हूँ,
जहाँ हम मिला करते थे।
तुम,
मेरे कँधों पर सिर रखकर दुनिया जहान भुला देती थी,
पूछती हैं मुझसे
यहाँ की हवाएं,
तुम्हारा पता….।

लौट कर वापस नहीं आये दिन
जो बातों बातों में चले गये थे;
किसी अनजानी ड़गर में।

जिन रास्तों से तुम गुजरी थी
वहाँ कुछ भी नहीं रहा
किनारे खड़े दरख्तों के अलावा।

झाड़ियोँ के पीछे सरसराती हवा ने,
बदल दी है दिशा;
थक कर जिन चट्टानों पर तुम बैठती थी;
खामोश है।
सब तरफ ढूंढ कर अनुत्तरित
लौट आती है;
मेरी आँखें।

इसी रास्ते पर पड़ता है एक नाला
जिसे पार किया था तुमने
बहते पानी ने मिटा दिये;
तुम्हारे पैरों के निशान।
जाने कितने दिन बीत गये उसे ढ़ूंढने में।
बताओ भला
कोई इस तरह जाता है;
बीते दिनों की यादों की तरह।

आज भी उस झील के किनारे बैठा हूँ,
तुम्हारी तलाश में।
अचानक….एक टूटता हुआ तारा आकर..
मेरे कानों में कह जाता है;
तुम नहीं हो..। तुम कहीं नहीं हो..।
बहुत पहले ही चली गयी हो;
हमेंशा के लिये।

झील के पानी में तुम्हारा अक्स नजर आता है;
मैं दौड़ पड़ता हूँ।
तुम्हारा चेहरा विलीन हो जाता है;
और….
मेरी आँखों से आँसुओं का कतरा
झील में गिर जाता है।
झील खामोश हो जाती है।।

महेश राजा,
वसंत-51, कालेज रोड
महासमुंद, छत्तीसगढ़
मो.-9425201544