इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के दौर में हबीब तनवीर

छत्तीसगढ़ की माटी को हबीब तनवीर के रूप में एक ऐसा व्यक्तित्व मिला है जो एक कवि, लेखक और संवेदनशील व्यक्ति और नाटककार के रूप में आज भी अपनी चमक बिखेर रहा है और आगे भी इसी तरह बिखेरता रहेगा. छत्तीसगढ़ी रंगमंच को हिंदी रंगमच के साथ जोड़कर हबीब तनवीर ने भविष्य के रंगमंच का एक नया नक्शा ही खींच दिया है. हिंदी रंगमंच की जब भी चर्चा होती है तो उसके विकास में सबसे बड़े अवरोध के रूप में इलेक्ट्रानिक मीडिया की चर्चा अवश्य होती हैं. पिछले वर्षो की तुलना में आज का इलेक्ट्रानिक मीडिया नये-नये चैनलों के विस्तार और आपसी प्रतियोगिता में नित नये हथकंडे ईजाद कर रहा है. वैसे तो इसने संपूर्ण भारतीय रंगकर्म को ही प्रभावित किया है, किंतु हिंदी रंगकर्म की तो जैसे चूलें ही हिल गयी है. स्वाधीनता के संघर्ष काल में और उसके पहले भी रंगमंच सक्रिय हलचल से भरा रहा है. नाट्य कर्म को सामाजिक, राजनैतिक रचनाकर्म की तरह देखा गया. लगभग हर शहर में पारसी-शैली, लोक-शैली और संस्कृत, मंच बहुत जीवंत साबित हुए है. साहित्यकार भी रंगमंच से जुड़े हुए थे. नाटक और रंगमंच को पूरे देश की चिंता से जोड़ा गया था लेकिन बाद में स्थिति लगातार उलझती गयी. देश में फैले रंगमंच में एक गहरा ठहराव, उदासीनता, गतिहीनता, असांमजस्य फैलता गया. शताब्दी का आरंभ हिंदी रंगमंच की जिस जलती लौ के साथ हुआ था, उसका देशव्यापी बुझा रूप किसी त्रासदी के कम नही. ऐसे परिदृश्य में हिंदी रंगकर्म के भविष्य पर जब कठोर और कटु प्रश्न उठाए जाते है, तब ब.स. कारंत, रतन थियम और हबीब तनवीर जैसे रंगकर्मी ही भविष्य की आशंकाओं को निर्मूल करने वाले साबित होते है. हमारे भारतीय सांस्कृतिक वातावरण में ‘लोक’ शब्द 1980 के बाद ही ज्यादा चर्चित हुआ था. लेकिन हबीब तनवीर ने थियेटर में अपने भविष्य को एक दशक पहले से ही ‘लोक’ से जोड़ लिया था. वास्तव में आधुनिक भारतीय थियेटर में लोक रूप और परंपराओं के प्रति रूचि जगाने वाले प्रमुख लोगों में हबीब तनवीर ने नेतृत्वकर्ता की भूमिका अदा की है.
अपने एक नाटक के प्रदर्शन को लेकर हबीब तनवीर एक बार जगदलपुर आए थे. रंगकर्म से संबंधित बातचीत में उन्होंने कहा कि संसार के समृद्धतम देशों में भी सिनेमा और टेलीविजन रंगकर्म को खत्म नहीं कर पाया. रेडियो, अखबार को खत्म नहीं कर पाया और न ही दूरदर्शन ने रेडियो को खत्म किया. सच यह है कि हबीब तनवीर ने एक कलाकार के रूप में सिनेमा में पहले शुरूआती स्थान बनाया और फिर पूरे पश्चिमी संसार के नाट्य जगत के अंतरावलोकन के बाद इलेक्ट्रानिक मीडिया के ग्लैमर से मुकाबला करने के लिए अपनी कल्पनाशक्ति का उपयोग किया. इस तरह उन्होंने जीवन्तता के नए रास्तों की तलाश के लिए भारत की सदियों पुरानी पहचान पर पूरी तरह भरोसा किया. अपनी प्रस्तुतियों में उन्होंने वस्तुधर्मी, दृश्यात्मकता पर ज्यादा जोर नहीं दिया. अपनी प्रस्तुतियों में वे काव्यात्मक यथार्थ, प्रतीकात्मकता, सांकेतिकता, शब्दों की अपरिमित शक्ति का उपयोग करते है. लोकधर्मी रंगमंच की लचक और ऊर्जा का रचनात्मक उपयोग उनकी सफलता का आधार है. रंगमंच के लिए तथ्यात्मक यथार्थ ऊपरी परत को भेदकर उन्होंने आंतरिक सत्य का साक्षात्कार कराया. हिंदी रंगमंच की अनेक समस्याओं और चुनौतियों का सामना लोक को सामने लाकर किया.
इलेक्ट्रानिक मीडिया के विस्तार के दौर में अपनी थियेटर संस्था के माध्यम देश के अनेक स्थानों की कठिन यात्रा करके अपनी प्रतिबद्धता के माध्यम से दर्शक वर्ग बनाया. समकालीन रंगकर्म की उपनिवेशवादी मानसिकता से अपने को अलग शुद्रक रचित ‘मृच्छकटिकम’ का ‘मिट्टी की गाड़ी’ के रूप में प्रदर्शन इसका प्रमाण है. संस्कृत नाटकों की अभिनय क्षमता और लोकरंगकर्म की शैली और तकनीक को उन्होंने इस नाटक में एक दूसरे के बहुत करीब ला दिया है. उनकी सभी प्रस्तुतियों के बीच ‘चरणदास चोर’ को सर्वाधिक लोकप्रिय माना जा सकता है. भारत और यूरोप के विभिन्न स्थानों पर इसकी सौ से ज्यादा प्रस्तुतियां की गई है. इस प्रस्तुति को समकालीन भारतीय रंगकर्म शैली का सबसे अच्छा रूप भी माना जा सकता है. हबीब तनवीर द्वारा अपनाई गई रंगकर्मशैली का सबसे अच्छी रूप इसी में दिखाई पड़ता है. उनकी प्रमुख प्रस्तुतियों का वास्तविक आधार साधारण आदमी है जो इस नाटक में चोर के रूप में परिणित हो गया है. स्वतः स्फूर्त रचनात्मकता के सहारे विकसित ‘गाॅव का नाम ससुराल, मोर नाम दामाद’ की प्रस्तुति हबीब तनवीर के नाट्य जीवन का महत्वपूर्ण पड़ाव है. 1950 के बाद शहरी रंगकर्म से जुड़ने के बाद से जिस भारतीय सांस्कृतिक परंपराओं से जुड़े रंगकर्म की खोज वे कर रहे थे, वह छत्तीसगढ़ की नाचा शैली के माध्यम से साकार होने लगी.
हबीब तनवीर का रंगकर्म अपनी प्रेरणा, पद्धति-मंच सामग्री, कलाकार आदि सब कुछ लोक परंपरा से प्राप्त करते है. नाटक का कथानक आत्यंतिक रूप से इसी पर आधारित होता है. रंगमंच से अपने लगभग पचास सालों के जुड़ाव में उन्होंने अनेक नाटक लिखे हैं और कई मौलिक नाटकों का प्रदर्शन किया. उनकी नाट्य कल्पना शेक्सपियर, मोलियर और ब्रेख्त के अनुवाद एवं रूपांतरण से लेकर शास्त्रीय संस्कृत नाटक एवं पारंपरिक लोक नाट्कों के स्वस्फूर्त विकास तक फैली हुई हैं. उनकी सारी प्रस्तुतियों पर यदि एक दृष्टि डाली जाय तो यह बात स्पष्ट होती है कि उन्होंने अपनी तरह से एक पूर्ण परिपक्व रंगकर्म की शैली के निर्माण एवं विकास का लगातार प्रयास किया. हबीब तनवीर की रंगकर्म शैली लोकप्रिय नाट्य रूपों और लोक सरोकारों से जुड़े होने के कारण ‘आधुनिक’ भी है. कथानक एवं प्रसंग चाहे कितने भी पारंपरिक क्यों न हो, उन्होंने सामाजिक राजनैतिक आयामों के बीच से ही अपनी राह निकाली. ये मान्यता रही है परंपरा प्रेरित नाट्यकर्म धार्मिक अंधविश्वास को बढ़ावा देता है, पारंपरिक बिंबों, रूढ़ियों और शिल्प से समकालीन जीवन को पेश नहीं किया जा सकता. लेकिन बकरी, चरणदास चोर और अंधेर नगरी जैसे रचनाएं उसकी अपवाद है.
लोक के प्रति हबीब तनवीर की दृष्टि उन्हें समकालीन रंगमंच के अन्य कलाकारों से अलग करती है. पारंपरिक रूप के साथ-साथ लोक कलाकारों को भी उन्होंने अपनी रंगदृष्टि का महत्वपूर्ण हिस्सा बनाया. लोक के प्रति अनेक आकर्षण का स्त्रोत पुनरूत्थानवादी या अनोखेपन का शिकार नहीं हुआ है. इसके बदले उन्होंने इसमें जबरदस्त रचनात्मक संभावना और छिपी हुई कलात्मक ऊर्जा को उजागर किया. स्पष्ट है कि टेलीविजन और सिनेमा ने जिस निरूद्देश्य एकरूपता को बढ़ाया है, शहरीकरण की जिस अंधी दौड़ ने ग्रामीण समताओं का क्षरण और उनका ‘अपरूटीकरण’ किया है, हबीब तनवीर अपनी प्रस्तुतियों द्वारा उनकी लगातार सांस्कृतिक, उपस्थिति की जरूरत सिद्ध कर देते है. वे लोक की परंपरा को उसके मूल रूप में पुनर्जीवित करते है, उसे लाइब्रेरी और म्युज़ियम की वस्तु बनने से बचाते है. हबीब तनवीर के इस योगदान को आगे बढ़ाने की आज बहुत ज्य़ादा जरूरत है. लेख प्रायोजित रंगीन, चमकीले और स्टाइलिश मोज़ों के हमारे संग्रह में हर किसी के लिए कुछ न कुछ ढूंढें। अपने sock दराज में रंग जोड़ने के लिए व्यक्तिगत रूप से या बंडलों में खरीदें!

डाॅ.योगेन्द्र मोतीवाला
सहा.प्राध्या. हिंदी
शास. दंतेश्वरी महिला महाविद्यालय.
जगदलपुर
मो.-09755557398