व्यंग्य-सुरेन्द्र रावल

हम फिर चूक गये

पहले भी ऐसा ही होता था। इस बार भी यही हुआ। पहले भी सुना है देश में कई घोटाले हुए। मुझसे कुछ नहीं हो सका। सब दूसरों ने किए। देश में पनडुब्बियां, हवाई जहाज, तोपें खरीदी गईं। सुना है इनमें दलाली भी खाई गई। दोबारा सुना कि हजम भी कर ली गई। मैं हर बार देश की तरह टुकुर-टुकुर देखता रहा। और अब इस बीच यह सब हो गया। मैंने भी एक बौद्धिक व्यक्ति की तरह देश की बैंकिंग व्यवस्था पर सोचा था। मैं सोचता ही रह गया। इधर हर्षद ने हाथ साफ कर दिया। रायपुर में जिस चाट वाले की चाट उसे पसंद थी। मुझे भी वही थी। वह भी चाट खाता था। मैं भी। बावजूद इस समानता के, वह मुझसे तेज निकल गया। मैं तब चाट खाकर चटकारे लेता था। अब घोटाले की खबर पढ़ कर लेता हूं। वह ऐसा नहीं करता था। काहिल चटकारे लेता है। कर्मठ नहीं लेता। मैं काहिल था। वह कर्मठ था। मैं जब चाट खाता रहता था। वह चाट पर सोचता रहा होगा। सोचूं वह क्या सोचता रहा होगा! आलू, दही, इमली, गुड, हरी मिर्च, धनिया, प्याज और मसाले! ये ही सब बकवास चीजें तो चाट में होती हैं। फिर खूबी कौन सी जो भीड़ उमड़ी पड़ती है चाट खाने। उसने नतीजा निकाला दिया होगा कि बकवास चीजें भी सही तरीके से, सही अनुपात में, सही चैराहे पर, सही तामझाम से, सही ग्राहक को पेश की जाए तो कमाल हो जाता है। उसने तथ्य समझ लिया। मैं नहीं समझा। मैं सदा चाट बनाने की कला पर सोचता रहा। पर मैं सच्चा कलाकार नहीं था। वह था। वह चाट खाते-खाते बैंकों को चाट जाने की योजना बनाता रहा। मुझे प्लेट में चाट दिखती थी। उसे मसालेदार, खट्मिट्ठी, चुरपुरी देश की अर्थव्यवस्था दिखती रही होगी। बार-बार उसके मन में एक ही शब्द गूंजता होगा -चाट! चाट! चाट! वह एक दिन चाट गया। सारे बैंकों को चाट गया। वित्त विभाग की बंधी बंधाई अक्ल उसकी खुली अक्ल के इरादे भांप नहीं पाई। इधर देश का मनमोहक बजट आया। उधर हर्षद हर्षित हुआ।
जितने वर्षों में मैं एक प्रमोशन नहीं ले सका, हर्षद ने सैकड़ों को दे दिए। बड़े-बड़े राजनेता, उद्योगपति, बैंकों के वित्त विभाग के और देश की योजनाएं बनाने वाले बड़े बड़े अधिकारी -सब मालामाल हो गए। देश में खुशहाली आने लगी। ऐसे आती है देश में तरक्की! राजनीतिक खेमे भले ही उखड़ते रहे पर आर्थिक साम्राज्य जमते जाते हैं।
मुझे आश्चर्य नहीं होगा यदि कल के अखबार में मैं यह पढ़ूं कि हर्षद के बावर्ची की डेढ़ सौ करोड़ की मिल्कियत पकड़ी गई। मुझे आश्चर्य नहीं होगा यदि मैं जान जाऊं कि उसके बच्चों के ट्यूटर के बंबई में अपने 50 फ्लैट हैं।
पर मुझे अफसोस होता है जब लोग चिदंबरम या कृष्णमूर्ति के आर्थिक साम्राज्य पर उंगलियां उठाते हैं। यदि दो चार, पांच सौ करोड़ का उनका कारोबार है भी तो इसमें चिढ़ने की क्या बात है। चिदंबरम एक खानदानी व्यापारी है जैसा कि उन्होंने खुद कहा है। तो वे राजनीति में आ गए तो क्या धंधा छोड़ दें। देश सेवा का हक उनका भी है। कृष्णमूर्ति के खिलाफ कुछ बोलोगे तो कीड़े पड़ेंगे। अरे, वे पद्मश्री हैं, पद्मभूषण हैं, राष्ट्र का गौरव हैं। जीनियस हैं वे। इस देश का हर जीनियस लल्लू हो, ये क्या जरूरी है ? वे नहीं हैं लल्लू! इसलिये किया जो उनके बन पड़ा। आपसे जो बन पड़े आप कर लो। बेचारे शरीफ आदमी थे। सीबीआई, जांच आयोग के सदस्यों और पत्रकारों के मुंह कौन लगे यह सोच विदेश ही तो जा रहे थे बेचारे, विन चड्डा की तरह। पकड़वा दिया जलनखोरों ने उनको।
आखिर दोष क्या था उनका ? यही ना कि हमारे हर्षद भाई को ऊंचे सर्किल में घुमाया और परिचय कराया वित्त योजना आदि के कुछ बड़े बड़े काम के अधिकारियों से। उस मुये चेक की बात से तो मैं खुद बहुत क्षुब्ध हूं। अब आप ही बताइए कि कल कोई जालसाज मेरे बेटे के खाते में 30-40 लाख रुपया डाल दे तो मेरा क्या दोष! हत्यारा यदि गंगा स्नान करे तो क्या गंगा मैया को फांसी दे दोगे! सरासर अन्याय हैं। यह तो यारी है भैया, कभी हम निभाएं कभी तुम निभाओ। मैं तो भूल ही गया, बात चाट की चल रही थी। हमारे हर्षद भाई ने भ्रष्टाचार की आंच में उबले आला अफसरों के आलू, दिल्ली की दलाली का दही, इंडियन इकोनामी की इमली, चापलूसी के चने, बैंकिंग प्रणाली की प्याज और उद्योगपति धनाधीशों की धनिया मिलाकर, मुंबई शेयर बाजार की प्लेट पर परोस दी अपनी चाट। और बिक गयी वह हाथों हाथ दलाल स्ट्रीट पर। चाट गया वह चाट की तरह देश की अर्थव्यवस्था को।
मैंने दोस्त से पूछा -भाई! यह कैसे हो गया -इतना बड़ा घोटाला!
मेरे दोस्त ने सपाट प्रशासनिक लहजे में कहा -बस हो गया!
मैंने फिर कहना चाहा -नहीं, नहीं मेरा मतलब है….!
कोई मतलब नहीं तुम्हारा! -मेरे दोस्त ने डांटा। तुम ठहरे एक टुच्चे मास्टर, तुम्हें घोटालों के मतलब से क्या मतलब ? मेरा आत्मसम्मान टुन्न से खड़ा हो गया -देश की बात है। इस महान देश के हर नागरिक को अधिकार है यह जानने का।
मेरा दोस्त खींजकर बोला -कौन इनकार करता है तुम्हारे इस अधिकार से! जान तो रहे ही हो अखबारों में छपता है कि नहीं ? पढ़ो और जानो। घोटाले क्या राजतंत्र में नहीं होते थे ? होते थे पर वे छपते नहीं थे। आजाद देश के नागरिक हो बेटा इसलिए तो एक रूपये के अखबार में कभी 62 करोड़ की दलाली कवि 3000 करोड़ का घपला पढ़ लेते हो।
मैंने आखिरी कोशिश की -पर यार! क्या बस इतना ही क्या हम कुछ…..!
कुछ नहीं कर सकते। -उसने फिर मेरी बात काट दी। -तुम्हारी औकात ही क्या है। तुम तो कभी भी बच्चों की फीस सोमवार को वसूल कर मंगलवार को जमा कराना, टेंपरेरी एबेजलमेंट में सस्पेंड हो जाओगे बेटा! इसलिए कहता हूं अपनी औकात समझो। अखबार पढ़ो और खुश रहो!
औकात -यह शब्द मुझे खटक रहा है। अपने इधर देश की समस्याओं पर चिंतन करने का फैशन चल पड़ा है। मैंने भी किया। मैंने शुरू से शुरू किया। एक ही चाट वाले से मैं, हर्षद तथा दूसरे कई लोग चाट खाते थे। तो क्या हमारी औकात एक नहीं थी ? नहीं थी ? थी तो केवल ग्राहक की हैसियत से हैसियत! मैं चिंतन के तनाव से थक कर चाट खाता था। वह चिंतन करने के लिए चाट खाता था। वह खाते-खाते भी खाने की सोचता था। वह उन लोगों में से एक होना चाहता था जो हर बार, हर जगह, हर घोटाले में खा लेते हैं। कभी पुलिस की निगाह से अपने चारों ओर देखो। कभी अफसर की निगाह से विकास की फाइलें देखो। चोर की निगाह से कानून को देखो। व्यवसायी की दृष्टि से खाते देखो या फिर हर्षद की निगाह से बैंकों को देखो, तब ना कुछ समझोगे।
असल में हमारे देश की शिक्षा पद्धति उल्टी है। कानून वह नहीं जो लॉ कॉलेज में पढ़ाया जाता है। वकील का ज्ञान किताबों से ज्यादा होता है। वह नियमों, अधिनियमों, विधियों, उपविधियों के दिव्यास्त्रों का प्रयोग जानता है और करता है। लॉ कॉलेज के प्रोफेसरों से, उसके विद्यार्थी वकील अधिक योग्य होते हैं। चोर कानून की खामियां ढूंढ कर चोरी करते हैं। अच्छे चोर हमेशा वकीलों को गाइड करते हैं। चोर का कानूनी ज्ञान वकील से अधिक होता है। आप तो ऐसे समझिए कि जैसे माइकल फैराडे ने विद्युत का आविष्कार किया। इलेक्ट्रिशियन फैराडे से आगे हैं वह बिजली को सही बल्ब तक पहुंचाता है। विद्युत विभाग का लाइनमेन उनसे भी अधिक योग्य होता है। वह यह भी कर सकता है कि वर्मा जी टीवी, फ्रीज, कूलर, हीटर आदि चलायें और उनका बिल 20 रूपये आए और एक बल्ब जलाने वाले शर्मा जी का बिल 200 रूपये का आये। क्या फैराडे यह कर सकता था ? नहीं न! तो उसने बिजली का आविष्कार कर कोई तीर मार लिया क्या ?
यह था हर्षद का चिंतन! यहीं मैं मार खा गया। यहीं इंडिया मार खा जाता है। मैंने देश को देखा। हर्षद ने भी देखा। मैं देश की दुर्दशा पर करूण गीत लिखने लगा। उसने देश की दुर्दशा में अपनी दशा -सुधार की संभावना देखी। मैंने ग्रह शांति करवाई। उसने ग्रहों की दशायें ही सुधार दी और देश के सारे ग्रहों की दिशाएं ही अपनी ओर कर ली। मैं देश की तरह भोगता रहा। वह सूर्य की तरह सब ग्रहों को ताप देता रहा, मैं सुदूर प्लूटो/ नेपच्यून की तरह ठिठुरता रहा।
काश वक्त रहते मैं समझ जाता कि मेरे करूणगीतों से देश की स्थिति सुधरेगी नहीं उल्टे मेरे घर की बिगड़ेगी। मेरी कहानियों के चरित्र रद्दी के अखबार की तरह परचून बांधने के काम आएंगे और मेरे अपने चरित्र के लिए संकट खड़ा हो जाएगा। मेरे व्यंग्यों से कोई बेईमान ईमानदार नहीं बनेगा बल्कि मेरा अपना ईमान ही डगमगाने लगेगा।
वह समझता था इसलिए भले ही चाट उसने उसी दुकान पर खाई पर मेरी तरह बुद्धिमान होकर बिगड़ा नहीं। वह गधा नहीं था जो चिंतक, शिक्षक, वकील, पत्रकार, मजदूर, किसान या सैनिक बनता। वह शेयर बाजार का दलाल बना। वह जानता था कि दलाल देश का सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति होता है। राजनीतिक क्षेत्र में उसका बड़ा रसूख होता है। उसके कार्यों की जांच कभी नहीं होती। हुई तो वह पकड़ आता नहीं। पकड़ा गया तो जमानत पर छूट जाता है। उसे यह दयालु देश फरार होने का मौका देता है। अब वह विश्व-सेवा करता है। दलाल बड़ी ऊंची चीज होती है भैया! वोटर से वोटों का दलाल कीमती होता है। सत्ताधारी से सत्ता का दलाल अधिक शक्तिशाली होता है। मेरा यार बन गया दलाल!
उसने मेरी तरह किताबें नहीं खरीदीं। शेयर खरीदे। उसने बैंक से बेरोजगारों के लिये ऋण के आवेदन नहीं भरे। उसने बैंकिंग व्यवस्था को समझा। उसने फावड़ा नहीं चलाया पर खुदाई शुरू कर दी। उसने गरीबी का रोना नहीं रोया। उनकी गरीबी पर तरस खाया जो दिल्ली की बड़ी-बड़ी प्रशासनिक कुर्सियों पर बैठे कुछ हजार रुपयांे में अपनी प्रतिभा बेच रहे थे। उसने सोतों को जगाया। वह जानता था कि ग्राउंड फ्लोर पर बड़ी भीड़ होती है पर टाॅप फ्लोर पर कभी नहीं। उसे गंगा नहानी थी। बहती गंगा में हाथ धोने थे तो वह पटना क्यों जाता, वह गंगोत्री पहुंचा!
छोटी उम्र में ही मेरा भाई सीख गया था कि बैंक के ऋण विभाग के दरवाजे पर माथा मारने से कुछ नहीं होता। उसने बैंक से सुझाव उधार लेने के बदले बैंक को अपने सुझाव बेचे। उसने दिल्ली के राजनेताओं, नौकरशाहों, बैंक अधिकारियों आदि को भूखे मरते देखा और उन पर तरस खाया। उसने देश की गरीबी दूर करने वाले वालों की गरीबी दूर कर दी।
वह जब दिल्ली के महत्वपूर्ण राजनेताओं और आला अफसरों को सन्मार्ग पर प्रेरित कर रहा था, राजनीतिक दलों, ट्रस्टों और शहीदों के फाउंडेशन को भारी रकमें दे रहा था, उस समय मैं लड़की की शादी के लिए 6 माह के औसत वेतन के बराबर भविष्य निधि से अग्रिम लेने के लिए कलेक्टर साहब के पास अपने नाम की स्लिप ले जाने के लिए चपरासी को पटाने की कोशिश कर रहा था। हर्षद की और मेरी औकात में फर्क था। मैंने भी अमिताभ की फिल्में देखी थी पर मैं अजिताभ तक न बन सका। अभिलाष बनकर रह गया। मैं अपने ही वेतन से अपने ही भविष्य के नाम पर काटी गई भविष्यनिधि से अग्रिम पाने का अभिलाषी था। उसका नाम हर्षद था। हर्षद यानी हर्ष देने वाला। उससे मिलकर दिल्ली मुंबई की हर बड़ी कुर्सी या गद्दी हर्षित हुई। मुझे देख कलेक्टर ने भगा दिया -हेडक्वार्टरलीव की परमीशन लाये हो। मैं नहीं ले गया था। अतः हेडक्वार्टर लौट गया। गरीबी के हेडक्वार्टर से बाहर जाने के लिए भी अनुमति अपेक्षित होती है।
हर्षद ने देश को बताया कि किस विधि से शेयर मार्केट में आग लग सकती है। कैसे शेयरमूल्यों के बढ़ने से बड़ी-बड़ी कंपनियां हवा में प्रदूषण की तरह फैल सकती हैं। बैंकें, जो बेरोजगारों को दिए ऋण, कर्ज माफी, सब्सिडी और डूबतखातों में डूब रही है, कैसे भारी लाभ कमा सकती हैं। उसने बताया कि बैंक में सड़ रहे नोटों और प्रतिभूतियों के थोड़े चक्कर से क्या-क्या गुल खिलाए जा सकते हैं। हो सकता है कि डरपोक जनों और शंकित मनों ने शंका की हो -क्या वाकई ऐसा हो सकता है ? हर्षद ने समझा दिया होगा -बिल्कुल हो सकता है। फिर प्रश्न उठा होगा -कोई रिस्क तो नहीं।
हर्षद बोला होगा -नो रिस्क नो गेन।
नौकरशाहों ने पूछा होगा -नौकरी को कोई खतरा तो नहीं ?
हर्षद हंस दिया होगा -पूरे सर्विसपिरियड की तनख्वाह जोड़ लो और उससे दुगुना मुझसे अभी ले लो।
राजनेताओं ने अपनी छवि या प्रतिष्ठा का प्रश्न उठाया होगा। हर्षद ने गुलजारीलाल नंदा की जीवनी प्रेजेन्ट करी होगी। किसी सिरफिरे ने जनहित की बात कही होगी। हर्षद ने ठहाका लगा दिया होगा।
एकाएक सभी महत्वाकांक्षी राजनेताओं, बैंक की दौलत को बाप की दौलत समझने वाले अधिकारियों या देश के गौरवशाली महान योजनाकारों की समझ में भक्क से सब आ गया होगा। उनके ज्ञान चक्षु खुल गए होंगे। गले से लगा लिया होगा उन्होंने हर्षद को। -कहां थे यार! तुम अब तक!
हर्षद ने सच बोला होगा -रायपुर में सद्दानी चैक पर चाट खा रहा था।
वे घिघियाते बोले होंगे -बड़े मजाकिया हो हर्षद जी आप!
इसके बाद जब हर्षद अपने नये रसूख, नई शोहरत, नई इज्जत और नई शानोशौकत से जब बंबई फिर लौटा होगा तो होड़ लग गई होगी बैंकों में -मेरी बैंक से ले लो। क्यों हमारी बैंक से नहीं लोगे। कितना दे दूं ? कितना दे दें ? तब शेयर बाजार के इस तेजड़िए के तेज के समक्ष सूर्य भी फीका पड़ गया होगा। शेयरों की उछाल ऊंची, बैंकों के लाभ ऊंचे, कंपनियों के लाभांश ऊंचे, अधिकारियों, नौकरशाहों की जेबें ऊंची और राजनेताओं की किस्मत ऊंची। सभी के पौ बारह। मेरा कुतर्की की मन पूछता है -ऐसा कैसे हो सकता है कि सभी का लाभ हो। आखिर जो 3000 करोड़ निकला वह गया कहां से ?
जिसकी जेब से गया वे अब भी चाट खाते हैं और चाट के दोनों की तरह जिनकी जिंदगियां फिंक जाती हैं। रामू रिक्शावाला उसी दिन तो चाट खाते-खाते बता रहा था कि वह धीरे-धीरे, थोड़ा-थोड़ा करके, लड़की की शादी के लिए पैसे जमा कर रहा है बैंक में। उसका छोटा किसनू बेटा भी फिजूलखर्ची नहीं करता दूसरे बच्चों की तरह। बैंक के गुल्लक में जमा करता है कभी पांच पैसे कभी दस पैसे।
रामू और किसनू भोले हैं नहीं जानते कि वे अपने पैसे हर्षद के खाते में, देश की हरामखोरों के खाते में डाल रहे हैं। अब समझे भैया क्या होती है औकात! हमने चाट खा-खाकर पेट खराब कर लिया और वह पट्ठा देश की अर्थव्यवस्था ही जीम गया।
हम फिर चूक गये न!

सुरेन्द्र रावल
रायपुर
मो.-9200301888