कहानी-बी.एस.धीर

दीया जलता रहा…

हरियाणा के कस्बा मुरथल के टेकचंद को रोज़ी-रोटी के लिए कितने ही पापड़ बेलने पड़े. नौकरी की, रेवड़ी- मूंगफली-गजक की रेहड़ी लगाई, गर्मियों में बर्फ के रंग बिरंगे मीठे-रसीले गोले बनाकर बेचे, पकौड़े तले, लेकिन किसी भी कसबे में वह, अपने परिवार के लिए दोनों जून की रोटी जुटा नहीं पाया था. दूर के रिश्ते में उसका एक ताऊ था चेत राम, जो दिल्ली के करोल बाग इलाके में रहता था, जहां अधिकतर रोज़मर्रा मजदूरी करने वाले लोग खोलियों में रहते थे. इन्हीं से वे रसोईघर और स्नानघर का काम भी चलाते. अधिकतर लोग तो पब्लिक पंप अथवा नल पर ही बारी बारी से स्नान करते. चेत राम, टेक चंद का सहारा बना और पहले उसे, फिर उसके परिवार को दिल्ली ले आया. परिवार में टेक चंद की पत्नी लीला, दो बेटे और एक बेटी शामिल थे. दरअसल, चेत राम का एक जिगरी यार था, गोपाल पहाड़िया और वह सत्तर वर्ष को पार कर चुका था. बीस वर्ष पूर्व उसकी पत्नी स्वर्ग सिधार चुकी थी. उसकी अपनी कोई भी संतान नहीं थी. गली के नुक्कड़ पर उसकी छोटी-सी दुकान थी-अंतिम संस्कार की रस्मों के सामान की. सिले सिलाये कफन, डोरी, चंदन का बुरादा, सूत, मटके, अगरबत्ती, लकड़ी के चम्मच, लकड़ी के छोटे फावड़े, अंगीठी की राख उलटने-पलटने के लिए इत्यादि-इत्यादि. अब उसके शरीर मंे हिम्मत नहीं रह गई थी. दूसरे उसका बूढ़ा शरीर अंदर से खोखला होता जा रहा था. जैसा मन वैसा तन! गोपाल पहाड़िया ने चेत राम से अपने दिल की बात कही. यदि उसे कोई ईमानदार, नेक-नीयत व्यक्ति मिल जाये तो वह उसे अपने साथ मिला लेगा. जब तक साँस चलती है, उसकी सेवा होती रहे, तीनों वक्त का खाना, चाय पानी मिलता रहे, धुले कपड़े मिल जायें, बस…. उसे और कुछ नहीं चाहिए. चेत राम ने टेक चंद को गोपाल के हाथों सौंप दिया. टेक चंद के परिवार ने भी उसे अपना अन्नदाता और पिता मान तन-मन से उसकी सेवा की. टेक चंद ने दुकानदारी के सभी गुर भी गोपाल पहाड़िया से मिल कर सीख लिए थे. गोपाल तीन वर्ष पश्चात् टेक चंद के परिवार ने अपनी खोली और दुकान सौंप कर गुज़र गया.
अब टेक चंद मुंह बोले ताऊ के कारण खोली वाला बन गया. दुकान से दाल-रोटी चलती रहती. लेकिन तंगी हमेशा खलती. बच्चों के कपड़े अकसर पुराने होते और पत्नी के भी. नये कपड़े वे कभी सिलवा ही नहीं पाये थे. बर्तन बेचने वालों से पुराने कपड़े खरीदकर तन ढांपते. टेक चंद की पत्नी लीला दो घरों में बर्तन और झाड़ू-पोंछा करके टेक चंद को कुछ सहारा देती रहती. बच्चे अब बड़े हो रहे थे. लड़की नौ वर्ष की एवं लड़का चार साल का और दूसरा सात का हो चला था. उन्हें सरकारी विद्यालय में दाखिल करवा दिया गया था, ताकि कुछ पढ़ लिखकर अपने पैरों पर खड़े हो सकें, लेकिन तंगी, गरीबी सदा घर में डेरा डाले रहती. जिस किसी दिन चार-पांच अंतिम-संस्कारों का सामान बिक जाता, वह दिन कुछ अच्छा गुज़र जाता था. कई बार तो टेक चंद खाली हाथ, मुंह लटकाये घर वापिस आता. यमराज का नाम जपता रहता, लेकिन यमराज भी कई बार तो उसकी सहायता कर पाने में असमर्थ होता. रात की नींद में कई बार स्वप्न में भी उसे मृत व्यक्तियों की भीड़ दिखाई पड़ती तो प्रसन्नचित वह सुबह-सुबह उठकर दुकान पर जाता. लेकिन जब कोई भी ग्राहक उसकी दुकान पर न आता तो उसे निराशा होती. उसे लगता मानो स्वप्न और वास्तविकता का सम्बंध तो ऐसे हैं जैसे बर्फ और धूप का, जिनका मेल नामुमकिन ही है. टेक चंद को तो सदैव यमराज की ही टेक बनी रहती.
टेक चंद नित्य प्रति सुबह चार बजे उठ जाता पहले पानी से भरे तांबे के लोटे को गटकता और फिर पब्लिक शौचालय में निवृत होता. नीम की दातुन लेकर ताऊ चेत राम के घर का रूख करता. ताऊ पहले से ही घर के बाहर खड़ा उसकी प्रतिक्षा कर रहा होता. दोनों देहाती इलाके के रहने वाले थे और दोनों को सुबह-सुबह सैर करने की आदत थी. दोनों की सैर के लिए जगह निश्चित थी. सैर करते-करते वे घर परिवार की बातें भी करते रहते और दुख-सुख भी बांटते. ताऊ चेतराम पत्नी मूर्ति के साथ ही रहता था. उसका एक बेटा मेरठ में नौकरी करता था तथा दूसरा सूरत में हीरों का कारीगर था. बेटी नारनौल शादी शुदा थी. चेत राम रेलवे की नौकरी से रिटायर हो चुका था और दोनों के गुज़ारे लायक पेंशन उसे सरकार से मिल जाती थी. उसने और उसकी पत्नी ने बड़ी-बड़ी ख्वाहिशें कभी रखी नहीं थी. टेक चंद का परिवार उनके घर आता जाता. मूर्ति बच्चों को घर से कभी भी खाली हाथ न जाने देती. लीला भी ताऊ के घर को अपना समझ साफ-सफाई कर जाती, कपड़े धो देती. गठिया की वजह से मूर्ति से घर के काम आसानी से नहीं होते थे. वह तो दो वक्त का भोजन ही मुश्किल से बना पाती. जब चाय का मन होता तो चेत राम खुद ही बना लेता था. और कोई शौक चेत राम को भी नहीं था. बस कड़क चाय और दिन भर में बीड़ी का एक बंडल फूंक देता था. निकटवर्ती हनुमान मंदिर में नित्यप्रति जाता और सुबह शाम हाज़री लगाता. उसके हमउम्र अन्य बुजु़र्ग उसे वहीं मिल जाते जो उससे अपनी-अपनी घरेलू और शारीरिक दुख-सुख की बातें करते और दुख-सुख बांटते.
वह कभी-कभी टेक चंद की दुकान पर जा बैठता. उसके साथ अकसर वह अपने गांव की ही बातें करता, गांव में रहते लोगों की, रिश्तेदारों की, गांव में आ रहे बदलाव की, नई पीढ़ी के लगाव की, लोप हो रहे पुराने रस्मों-रिवाजों की. अंततः बात घूम फिर कर तोट, खोट और जोटों पर खत्म होती. अंत वह इस निष्कर्ष पर पहुचंते कि जीवन यापन के लिए जोटों अर्थात् जुगाड़ बंदी तो करनी ही पड़ती है.
टेक चंद व उसका परिवार करोल बाग आकर मुरथल से कहीं अधिक संतुष्ट थे. मुरथल में तो कई-कई बार उन्हें भूखे पेट भी सोना पड़ता था. लेकिन यहां दिल्ली में कम से कम ऐसी नौबत कभी न आई थी. वह अकसर कहते-‘हनुमान जी की दया से यहां रोटी, कपड़ा और मकान तीनों मिल गये हैं. यूं तो इंसान का पेट कभी न भरै… इंसान में भूख कभी खत्म न होवे, चाहे पेट पाटन नै आवे…. हे पवन पुत्र हनुमान…… बस हाथ पैर चलते रहें…… यो ही गनीमत सै….’
लेकिन ज्यों-ज्यों बच्चे बड़े हो रहे थे, त्यों त्यों घर की जरूरतें भी बढ़ रही थीं. बच्चे आस-पड़ोस में टी.वी. चलता देखते तो मां को अपनी ख्वाहिशें बताते- कि रंगीन टी.वी. न सही कम से कम ब्लैक एंड व्हाईट ही सही. कई खोलियों में तो टी.वी. के साथ-साथ पुराना फ्रिज भी था. बच्चे दूसरे बच्चों को एैश करते देखते, आईस्क्रीम खाते, कोल्ड ड्रिंक/ठंडा पीते देखते तो उनके मुंह से भी लार टपकने लगती. लीला उन्हें समझाती,
‘‘राम जी ने सभी को एक सा न बनाया…. जो थारे पास सै वो सब कै पास न सै…. राम जी मेहर करेंगे तो टी.वी. भी मिल जावैगा बस थम दिल लगा के पढ़ाई करो. यो जो चाॅकलेट, आईस्क्रीम सैं, बहुत नुकसानदायिक होवैं. मैं जिस घर मैं काम करूं वे बतावों थे कि उनके चार साल के छोरे की दाढ़ चाॅकलेट-टाॅफी चट कर गए. चार साल के बच्चे के मुंह में सुईयां लाग रही सै.’’ लीला, बच्चों को राम की लीला का भेद समझाने का प्रयत्न करती.
इस बार दीपावली निकट आने लगी तो बाज़ार, पटाखों, मिठाईयों, खिलौनों और नये-नये कपड़ों से लद गये. बच्चों ने फरमाईश रखी कि उन्हें मिठाई, पटाखों के साथ-साथ एक-एक नयी रेडीमेड डैªस भी चाहिए. टेकचंद और लीला दोनों ने बच्चों को आश्वासन दिया था कि इस दीपावली पर वे उन्हें नये-नये कपड़े जरूर लेकर देंगे. लड़की बड़ी थी समझदार थी लेकिन फिर भी उसका दिल चाहता कि वह भी अन्य लड़कियों की भांति नया लहंगा-चोली पहने और नया लहंगा-चोली पहन नाच-नाच कर जमीं-आसमां एक कर दे. लड़कों को भी बड़ी-बड़ी इच्छायें थीं- बढ़िया पैंट, जींन्स, शर्ट, पटाखे/आतिशबाजी, मिठाईयां, चाॅकलेट और कुछ जेब खर्ची अपनी पसंदीदा चीज़ों की खरीदारी के लिए. शैंपू और सुगंधित तेल की इच्छा तो पत्नी लीला की अपनी भी थी और साथ ही साथ एक नयी साड़ी की भी. पुरानी और घिसी-पिटी साड़ियां पहनकर वह स्वयं भी कब की ऊब चुकी थी.
टेक चंद उनकी फरमाईशों की लिस्ट देखता और फिर ऊपर की ओर ताकता तथा मन ही मन यमराज का स्मरण करता-‘‘हे यमराज जी. हे यम देवता. मेरे बच्चों की, मेरी घरवाली की दीपावली इब कै अच्छी सी मना दीजो.’’ अभी दीपावली में आठ दिन रहते थे. सुबह ठीक सात बजे वह दुकान पर पहुंच जाता. अकसर सुबह की सैर से सीधे ही वह दुकान पर पहुंचता. नज़दीक की दुकान से छोटे कसोरे में डेढ़ रूपये की चाय और साथ में एक मठ्ठी लेकर ब्रेक फास्ट/नाश्ता करता और फिर बीड़ी सुलगाकर ग्राहक के आने की प्रतीक्षा करनी शुरू कर देता. उसकी पत्नी लीला उसे प्रतिदिन ग्यारह बजे काम पर जाने से पूर्व पांच चपातियां, साथ मंें सब्ज़ी और आचार दे जाती जिसे वह तीन भागों में बांट कर खाता और अपने पेट की आग झुलसाता. दुकान के पास गुज़रते, आते जाते हर व्यक्ति में उसे ग्राहक की छवि ही दिखाई पड़ती. सोचता यदि आज से प्रतिदिन आठ ग्राहक आयें तो वह तीनों बच्चों और लीला की भी ख्वाहिशें पूरी करने में समर्थ होगा. यदि नौ ग्राहक प्रतिदिन आयें तो वह अपने लिए भी एक नयी धोती और बंगाली कुरता खरीद लेगा. वैसे तो वह शराब पीता नहीं था लेकिन सौगंध भी नहीं खाई थी, न पीने की. उसका दिल चाहता था कि यदि सभी आवश्यकताएं पूरी हो जायें और कुछ पैसे बच गये तो अधिया अंग्रेज़ी शराब का खरीदेगा और दीपावली को रात और विश्वकर्मा दिवस पर जश्न मनायेगा. दीपावली की रात को ताऊ भी एकाध पैंग लगा लेते हैं. वह उस रात ताऊ को भी बुलायेगा और अपने हाथों उन्हें भी एक पैंग भेंट करेगा.
आकांक्षाओं और इच्छाओं के घोड़े बेलगाम होते हैं, हर किसी की पकड़ में आसानी से नहीं आते. इनकी घुड़सवारी करना हर किसी के वश में नहीं होता. टेक चंद को अपने ख्याली पुलाओ और लेखा-जोखा कमज़ोर होते दिखाई पड़ते. दीपावली से पूर्व सातवें-आठवंे और नौवें दिन मात्र दो-तीन ग्राहक ही प्रतिदिन आये. इस विक्रय अथवा सेल से तो घर का गुज़ारा ही मुश्किल से चलना था. दीपावली बस छह दिन दूर थी. अब वह कम से कम दस ग्राहक प्रति रोज़ आने का अंदाज़ा लगाने लगा. छठे दिन एक ग्राहक और दीपावली से पांच दिवस पूर्व सात ग्राहक आये. वह खिल उठा कि यदि दीपावली से पूर्व सात-आठ ग्राहक भी प्रतिदिन आते रहे तब भी कुछ गु़ज़ारा तो हो ही जायेगा. लेकिन दीपावली से पूर्व चैथा, तीसरा और दूसरा दिन बिल्कुल खाली ही रहे. खर्चा प्रतिदिन बढ़ता गया. पहले वह प्रतिदिन बीड़ी का एक बंडल फूंकता था. लेकिन तंगी और परेशानी में उसने दो बंड़ल फूंके. निराश, उदास टेक चंद की रातों की नींद भी उड़ चुकी थी. उसने विचार किया कि वह ताऊ से कुछ पैसे उधार पकड़ ले, लेकिन फिर खुद ही चुप हो गया क्योंकि पिछली दीपावली पर ताऊ से उधार लिये दो सौ रूपये अभी तक वह वापिस न कर पाया था. लीला ने ढ़ांढ़स बंधाया और एक-एक, दो-दो रूपये जोड़कर इकट्ठे किये हुए एक सौ बीस रूपये उसकी हथेली पर रख दिये. उसकी आंखों में चमक आ गई. लेकिन दीपावली के खर्च लिए उसे तो कम से कम छह सौ रूपये चाहिए थे. लीला ने कहा कि वह उन घरों से कुछ एडवांस ले लेगी जहां वह काम करती है. दो सौ रूपये उसे आज सांयकाल मिल जाने थे.
अगले दिन दीपावली थी. टेक चंद ने सोचा दो दिन जितनी भी सेल होगी वह पूरी की पूरी दीपावली को भेंट कर देगा और बच्चों की इच्छाओं को पूरा अवश्य करेगा. अकसर वह सेल में से दुकान की खरीदारी अलग निकाल देता था। बचत मंे से ही घर की आवश्यकतायें पूरी करता था. लेकिन इस बार उसने सोचा कि वह दो दिन की पूरी कमाई दीपावली पर खर्च कर बच्चों के खिलते चेहरे देख हम दोनों भी बाग-बाग हो जायेंगे. दीपावली के मात्र एक दिन पूर्व फिर उसे निराशा ही पल्ले पड़ी. दो ग्राहक आये और कमाई मात्र दो सौ रूपये. दीपावली का दिन भी आ गया. नहा-धोकर धूप बत्ती की, ईश्वर को स्मरण किया व आँखें बंद कर मन ही मन प्रार्थना की कि, ‘‘हे प्रभु! आज तो लाज़ रखयो.‘‘ ईश्वर शायद बहरा था उसे और व्यस्तताएं जकड़े हुई थी. दीपावली का शुभ दिन भी खाली ही जा रहा था. तीन बज गए…….. लोग नयी-नयी और बड़ी-बड़ी खरीदारी करके अपने घरों को वापिस जा रहे थे. लेकिन उसकी जेब अभी भी खाली ही थी. सवा तीन बजे उसकी उम्मीद पर कुछ नूर आया. एक-एक करके आगे पीछे सुबकते हुए तीन ग्राहक आये. संस्कार-सामग्री लेकर शीघ्रता से वह काम निपटाने की चिंता में लग रहे थे. उनके पश्चात् चार अन्य ग्राहक आ टपके. साढ़े चार तक उसकी जेब में कुल मिलाकर नौ सौ रूपये एकत्र हो गये थे.
तीन सौ रूपये अलग से निकाल दुकान के गुल्लक में रख दिये, आवश्यक खरीदारी के लिए छह सौ रूपये लिये और उससे उसने घर के लिए जल्दी-जल्दी सामान खरीदा- बच्चों के लिए आतिशबाज़ी, मिठाईयां, चाॅकलेट, एक-एक सस्ती नई पोशाक बच्चों के लिए…. और दस-दस रूपये हर बच्चे की दीपावली के शुभ अवसर पर जेब खर्चों के लिए….. लीला की साड़ी के लिए एक सौ बीस रूपये उसने अलग से रख दिये…. लेकिन अपने लिए उसके पास मात्र पचास रूपये ही शेष बचे जिसमें चालीस रूपये का अंग्रेज़ी शराब का पऊआ और दस रूपये की नमकीन खरीद ली. सभी वस्तुएं लेकर दुकान पर पहुंचा. उसके दोनों हाथों में सामान में सामान के थैले/लिफाफे थे और चेहरे पर ऐसी चमक थी मानो उसकी करोड़ रूपये की लाॅटरी निकली हो. अभी दुकान बंद करने की तैयारी में ही था कि इतने में उसके ताऊ जी आ पहुंचे. ताऊ जी कुछ कहना तो चाहते थे लेकिन कह न पाये. दुकान पर दीपावली के लिए की गई खरीदारी देखी और पूछा, ‘‘सुबह सैर करन कब आवैगा?’’
‘‘आज तो दीपावली सै, आराम से उठेंगे…. कल सैर जरूरी सै के ?’’
‘‘सैर मिस न करनी चाहिए. सुबह कितने बजे पहुंचेगा ? चल पांच की जगह छह बजे पहुंच जइयो.’’ ताऊ ने बात खत्म की और वापिस घर का रूख किया. टेक चंद ताऊ को कैसे मना कर सकता था.
‘‘ठीक है. पर आज रात नैं घर आ जाईयो. थोड़ी देर बच्चों के साथ दीवाली मना लेना.’’
‘‘यो मुमकिन न होगा. थारी ताई की तबीयत ठीक न सै. हमारी तरफ से दीपावली की बहुत-बहुत बधाई. बच्चों और बहुरिया को या हमारी तरफ से दे दीजो….. ’’ ताऊ ने पचास का नोट उसे थमाते हुए कहा और घर की ओर चल पड़ा.
टेक चंद उसे रोकना चाहते हुए भी न रोक पाया. दीपावली की खरीदारी का सामान उठाया और जल्दी-जल्दी घर की ओर चलने लगा.
टेक चंद घर पहुंचा. बच्चे और लीला बेसब्री से उसकी राह देख रहे थे. टेकचंद को लिफाफों के साथ देख सभी के चेहरे खिल उठे. बच्चे सामान और बीस-बीस रूपये जेब खर्ची लेकर अति प्रसन्न हुए और लीला एक सौ चालीस रूपये लेकर संतुष्ट थी. बच्चों से वे दोनों भी बहुत खुश थे. रात में लक्ष्मी पूजन से पूर्व लीला ने ताऊ और ताई के बारे में बात की कि दीपावली की रात वे अकेले होंगे….. लेकिन किया भी क्या जा सकता था. टेक चंद कहने लगा अब तो देर हो चुकी है. प्रातः ताऊ के घर जाऊंगा और बेसन की बर्फी का डिब्बा उन्हें दे आऊंगा जो दोनों की मनपसंद है. बच्चों से छिपाकर उसने दो पैग बनाये और गटक गया. पऊये से भी बोतल का नशा हुआ क्योंकि पूरा परिवार जो खुश था. अगले दिन टेक चंद सुबह साढ़े पांच बजे उठा. रोजमर्रा की दिनचर्या से निवृत्त होकर पानी पीया और मिठाई का डिब्बा ले ताऊ के घर की ओर चल पड़ा. ताऊ के घर पहुंचा. लेकिन ताऊ आज बाहर खड़ा इंतज़ार करता न मिला. दरवाज़ा बंद था. दरवाजे को धकेला…. तो ताऊ डयौढ़ी में चारपाई पर बैठा उसी की राह देख रहा था. मिठाई का डिब्बा लेकर ताऊ ने एक तरफ रख दिया. टेक चंद ने पूछा- ‘‘इब चले सैर को ?’’
‘‘…..आाज थारी ताई ने पहले सैर करवा आवें…. बाकी की सैर फेर देखांगे.’’ चेत राम ने अंदर की ओर झांकते हुए कहा.
‘‘…..ताई इब सैर पे जावैगी ? क्यों मज़ाक करो सो ?’’ टेक चंद ने सहज हो मुस्कुराने का प्रयत्न किया.
‘‘हां भाई! थारी ताई इब अंतिम सैर पै जा गी.’’ ताऊ ने सुबकते हुए कहा.
‘‘हैं……..ताई कब छोड़गी ?’’ टेक चंद ने माथा पकड़ लिया और उसके गले से चीख सी निकल पड़ी.
‘‘….ताई तारी तो कल शाम के चार बजे ही चल बसी थी….. मनै सोचयो कि थारी और दूसरों की दीवाली क्यूं खराब करूं. न पड़ोस में किसी नै बताया और न छोरों और छोरी को…… इब तनैं सब काम करने सैं… सब नै फोन मार….और बर्फ का इंतज़ाम भी कर… संस्कार तो शाम के पांच बजे ही कर पावांगै..अकेला के के काम करेगा ? पड़ोस तैं बनवारी ने बुला ले….’’
‘‘ताऊ! यो तुमने कै किया…?’’
टेक चंद औरतों की तरह बिलख पड़ा और ताऊ के कन्धे पर सिर रखकर फूट-फूट कर रोने लगा.
‘‘चल साऊ चल. धीरज राख, अन्तिम क्रिया का पूरा इंतजाम तनै ही करना सै.’’ ताऊ ने बंडल से एक बीड़ी निकाली, हथेली पर मसली दीया-सिलाई से जलाई और बीड़ी का एक लम्बा कश लिया और नासिका द्वारा सारा धुंआ बाहर छोड़ दिया, बीड़ी लगभग एक ही कश में खत्म हो गई थी.


बी.एस.धीर
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