ग़ज़ल-ऋषि शर्मा ऋषि

  1. ग़ज़ल

होता वही जो होना है, होनी को न टाला जाए है
फिर भी न जाने दिल मेरा किस सोच में डूबा जाए है.
मिट्टी में पड़े हीरे को भी पत्थर ही समझती है दुनिया
कुछ क़द्र नहीं होती उसकी जब तक न तराशा जाए है.
इफ़लास के दरिया में बहती कश्ती के मुसाफ़िर से पूछो
गुर्बत के अंधेरों में कैसे साहिल को ढूंढा जाए है.
ये क़र्ज़ का मर्ज़ लगा जब से हर रात कटी बस आंखों में
था नींद का इक सरमाया वो भी सूद में निकला जाए है.
तू सीख ज़रा उससे जाकर जीने की अदायें ऐ नादां
सौ ज़ख़्म छुपाकर सीने में जो आदमी हंसता जाए है.

ग़ज़ल

जैसे-जैसे मैं रह-हक़ की तरफ़ बढ़ता रहा
मुझको मेरा ही पता हर मोड़ पर मिलता रहा.
अपनी क़िस्मत के अंधेरों का बनाकर तख़्तियां
रोशनी की इक तहरीर मैं लिखता रहा.
सिर्फ़ इक मुठ्ठी उजाले के भरोसे दोस्तों
मैं अंधेरों से लड़ाई उम्र भर लड़ता रहा.
आदमी से आदमी नज़दीक तो आया मगर
जिं़दगी से ज़िंदगी का फ़ासला बढ़ता रहा.
और क्या करता भला मैं पत्थरों के शहर में
ले के हाथों मे हथौड़ा मूर्तियां गढ़ता रहा.
ज़िंदगी का कर्ज़ क्या होता अदा मुझसे ‘ऋषि’
बस से समझो मूलधन का ब्याज मैं भरता रहा.

ऋषि शर्मा ’ऋषि’
जगदलपुर
मो.-9425592202