काव्य-कुमार प्रवीण सूर्यवंशी

अजीब सन्नाटा

शेर, वनभैंसा और हिरण
सज गये रईसों की बैठक में
सन्नाटा ही सन्नाटा है बाकी जंगल में
सागौन, शीशम और चंदन
बदल गये रईसों के दरवाजे, सोफों में
सन्नाटा ही सन्नाटा है बाकी वादियों में
सड़क, स्कूल और अस्पताल
बन गये कागजों में
सन्नाटा ही सन्नाटा है बाकी उजड़े गांवों में
आबरू, ढोल और मालिकपन
लुट गये सब शहरी शैतानों में
सन्नाटा ही सन्नाटा है बाकी वनवासी ठिकानों में
अब तो रातों को भी सन्नाटा नहीं रह पाता है
देखो देखो, घोर अचरज भरा वाकया है
सन्नाटा भी डरकर जोर जोर से चिल्लाता है.

संरक्षित वन

वही जंगल है वही वृक्ष हैं
वही तालाब और वही नदी है
हवा भी वही है पानी भी वही है
इमली, आम, रातरानी भी वही है
हम भी पीढ़ियों से वही हैं
क्या हो गया अचानक
कि कुछ भी हमारा नहीं है.

क्षणिका

सर से सर टकराते वन
बाहों में बाहें डाल लहराते वन
जाने क्या कान में कह मुस्काते वन.

कुमार प्रवीण सूर्यवंशी
उपअभियंता ग्रा.या.से.
जगदलपुर
मो.-9329503426