अंक-29 बहस-काम?

काम?

हम काम को फिर से परिभाषित करना चाहेंगे. कौन से काम? वह काम नहीं जो शास्त्रों में मोक्ष से पहले आता है- अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष! ये सभी लक्ष्य थे परम्परागत भारतीय शास्त्र में.
यहां आज के काम की बात की जा रही है जिसने संस्कृत वाले ’काम’ को बेदखल कर रखा है.
आप कहेंगे ये कैसी बेहूदगी है, उत्पादन तो हो रहा है, देखिये दुनिया की आबादी. बेदखल कैसा!
तनिक आज के काम अथवा वर्क, वर्किंग प्लेस, वर्क के तरीके इत्यादि पर नज़र करते हैं.
क्या हम सभी बंधुवा मजूर, स्किल्ड या अनस्किल्ड नहीं..? सर पे लोडिंग अनलोडिंग करते हुए या सॉफ्टवेयर के पास बैठे हुए, कुर्सी तोड़ते हुए.
क्या ऐसा करने में हमें आनंद आ रहा है, हम संतुष्ट हैं..?
आज मन नहीं है काम पर जाने का, मगर जाना है. सर दर्द है तो डिस्प्रीन खा ले, हरारत बुखार है तो एक सस्ती गोली.
हमने इसे स्वीकार कर लिया है और जिसने स्वयं की इस गुलामी को स्वीकार कर लिया है तो स्वयं पर प्रश्न ही नहीं उठता. हम उसी हाल में खुश हैं, शाम को पार्टी-सार्टी हो गया, थोड़ा फ्रीडम महसूस कर लिया, सवेरे का सवेरे देखा जायेगा. वही चक्की फिर से…!
यह काम नहीं, सिस्टम की दासता है.
इस काम में ब्लिस, आनंद, या सच्ची ख़ुशी है… शायद तनखाह के दिन! वह भी थोड़े समय के लिए. हम कहते हैं, हम तो अपने पेट, अपने परिवार के गुलाम हैं. मज़ेदार ये कि आप चाहे जितने भी अमीर हों, इस काम-भाव से परे नहीं. मतलब, ज़बरिया श्रम, शारीरिक-मानसिक श्रम करना ही करना है. राहत नहीं. जिस दिन आपने विश्राम लेना चाहा, उस दिन आपके ताश के महल धराशयी!
काम या श्रम तो हमें करना ही है, आखेट युग हो या कृषि युग. पर यहाँ फर्क आपको दिखना चाहिए. यानी, स्थितियों की वस्तुपरक व्याख्या क्या हो…, सच क्या है…?
थोड़ा पारम्परिक दुनिया की ओर चलते हैं. दुनिया की अधिकांश आबादी जंगलों में अथवा कृषि भूमि के आस-पास, नदी -समुन्द्र तटों के किनारे आबाद थी. ज़रूरी सामानों के उत्पादक स्थानीय लोग ही थे. याने उत्पादक, अन्न उगना हो, कपडे या सूत कातना हो, दर्ज़ी का या लकड़ी का काम हो. परंपरागत तरीके से परिवार, क़स्बा, यानी एक समुदाय इन ज़रूरतों को पूरा करता था. बदले में उसे भी अन्य ज़रूरतें पूरी होती थी. पिता, परदादा, बेटा, परिवार सभी अपने आप उस काम को सीख लेते थे. रोज़गार और बेरोज़गारी का प्रश्न ही नहीं था. सयुंक्त परिवार होने के कारण बच्चे-बूढ़े अशक्त, बीमार या आलसी – सबों का गुज़ारा हो जाता था. काम पर जाना है, 10 बजे हाज़िरी रजिस्टर पर अंगूठा लगाना है, कहीं आवश्यकता पड़ी तो छुट्टी से पहले अर्ज़ी लगानी है…, आदि आदि बाधाओं से दूर..!
कामगारों को अपने काम से कितनी संतुष्टि मिलती थी – इसका कोई पैमाना तो हम नहीं इज़ाद कर सकते, मगर यह निश्चित है कि परम्परागत उत्पादक या कारीगर या श्रमिक मन लगाकर अपना काम करते थे, क्योंकि उनका काम एकांतिक नहीं था, सामुदायिक प्रकृति का था. हम अच्छा उत्पादन करेंगे तो बदले में प्रशंसा, अच्छी चीजों की प्राप्ति होगी. ये मूल्य आधारित काम-काज था. लोगों की दुआएं हासिल करना भी बड़ी बात होती थी. यह मूल्य करेंसी मूल्य से जुदा थी.
ये सौन्दर्य आधारित थे. इसलिए आनंद, तृप्ति जैसे शब्द जीवन का हिस्सा थे, डिक्शनरी के शब्द मात्र नहीं.
ऐसा नहीं है कि आज हमे अपने काम से तृप्ति या संतुष्टि मिलती है या नहीं, इसका उत्तर आप स्वयं से बेहतर पूछ सकते हैं. मिलती है तो कितनी…, इतना तय है कि प्रश्न बेमानी नहीं है.
हम जिस बेगैरत लोमड़ियों की औलादों के लिए (सभी नहीं ) घर-परिवार, सुख, मन की शांति, भूख…, सब बिला चुके हैं, सच ये है के हम अन्न का स्वाद लेना ही भूल गए हैं. शायद हमारी पीढ़ी को ठीक से प्यास भी नहीं लगती. क्योंकि कुर्सी तोड़ते हुए उसे चाय, कोला, फांटा, पेप्सी हासिल होता रहता है. आँखे स्क्रीन पर और मुंह में मैग्गी.
क्या क्रिप्टोकरेंसी की पीढ़ी बता पायेगी कि स्वाद अन्न में होता है कि जुबां में कि हमारे पेट में. या फिर..विज्ञापन में बताये दीपक मसाला में..? (पूरी संभावना है कि अंतिम विकल्प ही सही उत्तर मन जाये.)
इस अनदेखी चीजों की ओर विशेष आँखों से देखने की कोशिश एकदम लाज़िमी लगता है. ये सभी तो तकनीकी और अहंकारी व्यवस्था के बाई प्रोडक्ट हैं. सीधा निशाना हम पर. और हम अनभिज्ञ…!
अकारण नहीं है कि जब आज के काम को याद करते हुए संस्कृत का काम स्मरण हो आया.
एक लेखक को लिखने में सुख या आनंद आता है, वह 6-8 घंटे रोज़ लिख सकता है. अफ़सोस, उसे लेखन से चाय-पकोड़े की भी व्यवस्था नहीं हो पाती. जीविका और परिवार चलाने कि लिए वह हवलदारी करता है और मौका लगते वसूली.
एक चित्रकार, मूर्तिकार, एक संगीतज्ञ, एक गायक, एक खिलाडी रोज़ 6-8 घंटे काम करना चाहता है. और ये सब अपना काम करते हुए थकते नहीं. गुलामी नहीं, काम करके मुक्त होने का एहसास करते हैं.
ऐसा काम जो व्यष्टि को मुक्त करे, संतुष्ट करे, आत्मानंद से भर दे – क्या उसे काम (जॉब ) कहेंगे ..? या संस्कृत में वर्णित ’काम’ और ’कामनन्द’ जैसा समझना चाहेंगे. जरा गौर करें- पोइट्री में काम सुख और चित्र में सौन्दर्य-श्रृंगार सुख!
कलाकार, लेखक, गायक, संगीतज्ञ, खिलाड़ी अपनी- अपनी दुनिया में रम कर भी (6-8 घंटे ) थकते नहीं. स्फूर्ति बनी रहती है, आनंद से भरे रहते हैं.
क्या आधुनिक सफ़ेद कुर्ते के गुलाम पीढ़ी काम नहीं करती…? एक अर्थ में तो यह ’कामपीड़ित’ हैं. बंधुवा मजूर! 8 घंटे क्या, 12 घंटे क्या, 8 घंटा तो शरीर बंधक हैं, मन, चैतन्य तो 24 घंटे ’टारगेट’ पे लगा हैं. जीवन कहाँ हैं…? स्वाद कहाँ से आएगा..? काम चाहे आरामदायक कुर्सी पर का हो चाहे खटिया पर वाला, पिक्चर फ्लॉप है. वियाग्रा का विज्ञापन सिर्फ कंपनियों को लाभ देनेवाला है.
न व्यष्टि मुक्त या प्रसन्न है न समष्टि…! बस, आसमान में ताश के महल बनाये जा रहे हैं. लगे रहो..!
राजनीतिशास्त्र का विषय है अनार्की! यह अराजक स्थिति से भिन्न है. इस अवधारणा की खूबसूरती इस बात में है कि मानव समुदाय को किसी शक्ति या सत्ता या पुलिस अथवा मिलिटरी अथवा धर्म पंडितों की आवश्यकता नहीं है. ऐसा इसके सिद्धांतकार मानते हैं. यदि समष्टि की प्रत्येक इकाई (लगभग ) जागरूक हो और उसकी ट्रेनिंग, शिक्षा-दीक्षा एक निश्चित सिद्धांतों के तहत हो तो ऐसी स्थिति मानव अपने लिए निर्मित कर सकता है, जो कि एक सत्ताविहीन आदर्श समाज के लिए संभव हो सके. अपराधों के लिए दंड नहीं बल्कि सुधार की ज़रूरत पर बल हो. पब्लिक बस या कुंए का पानी प्राप्त करने के लिए किसी चैकीदार की ज़रूरत न हो. लोग स्वयं ही एक अनुशासन या सोच विकसित करें. बीमार या बूढ़े की मदद किसी लोभ-लालच या दवाब से न हो, स्वतःस्फूर्त हो. ऐसे आदर्श मानव चेतना के लिए प्रेरक तो होते ही हैं, स्वयं में मार्ग एवं लक्ष्य भी होते हैं.
कितनी बड़ी विडम्बना है कि प्रगतिशील मानव जो कि विवेकवान और चैतन्यशील प्राणी है – के शांतिपूर्ण अस्तित्व के लिए सिद्धांतों की ज़रूरत पड़ती है. और सच्चाई में वह इन आदर्शों से प्रकाशवर्ष की दूरी पर हो.
इसी को कहते हैं स्वयं की वास्तविक प्रकृति से दूर होना. अपनी ज़मीन छोड़ देना, उसे भूल जाना. एक छद्म जीवन को इस तरह स्वीकार करना मानो वही सच हो.
फिलहाल, अनार्की में लोग काम करते हैं, जॉब नहीं.
किसी को आखेट पसंद है वह शिकार करेगा. कल उसकी इच्छा होगी खेती करने की या पहाड़ खोदने की वह वही काम करेगा. मुक्त चेतना, मुक्त कार्य! इस स्थिति को काम नहीं कहते, हाँ, आप चाहे तो इसे संस्कृत वाले काम से मेल कर सकते हैं. एक आनंददायक क्रीड़ा!
वर्तमानयुगीन बच्चा जन्म के कुछ ही वर्षों बाद निप्पल से माँ का दूध नहीं अपने टारगेट और सौ प्रतिशत की घुट्टी वाला ज़हर पीता है. वह वास्तविक या स्वाभाविक रह ही नहीं पाता. एक अज्ञात, अदृश्य हसरत उसे अपनी ओर खींचती है, दूसरी ओर दुनियादारी और अमेरिकी डॉलर अपनी ओर!
अग्नि में हवन सामग्री डाली जाती है, हविष्य शुद्ध और वास्तविक हो, ताकि वातावरण शुद्ध हो, अग्नि वायु द्वारा अपने पदार्थों (हविष्य) को सूक्ष्म कर वातावरण को सौंप देती है. क्या करे अगर हविष्य ही अशुद्ध हो…, प्लास्टिक हो…, क्या होगा वातावरण का!
हर व्यक्ति चलता-फिरता ब्रम्हांड है. वह भी अपनी खुशियां, अपने दुःख, अपना विलाप या आनंद इस अनंत दुनिया को रिफ्लेक्ट करता है. इस संसार की एक भी ऐसी चीज नहीं जो कम या ज्यादा, कुछ न कुछ हासिल नहीं करती. जो भी हासिल करती है उतना ही रिफ्लेक्ट भी. भले ही वो दिखाई न दे. मानव तो बहुत गहरा ऊर्जा गोदाम होता है. हमारा मानव इस दुनिया को क्या सौंप रहा है- फ्रस्ट्रेशन…, डिप्रेशन…, या आनंद या ब्लिस…?
सवाल गैरवाज़िब नहीं….,
इसलिए वह वही है जो अग्नि को अर्पित है.
और अग्नि को हम क्या अर्पित कर रहे हैं…!