नक्कारखाने की तूती -परम्परायें और कुंठा

परम्परायें और कुंठा
समय के इस कालखण्ड में एक विशेष ट्रेण्ड सभी को नजर आ रहा है। ये ट्रेण्ड है परम्पराओं में खामी ढूंढ कर उस परम्परा के वाहकों का परिहास! माना कि यह सही बात है कि हर परम्परा एकदम सटीक हो और सार्वकालिक सत्य हो और ये भी सच है कि हर परम्परा कसौटी में अस्वीकृत की जाये।
जरा देखें किस तरह समाज के कुछ तथाकथित स्वघोषित प्रबुद्धजन परम्पराओं की खाल खींचते नजर आते हैं।
दीपावली आते ही मिट्टी के दीये खरीदने की अपील करना और फिर इतने सारे तेल के जलाने पर चिंता करना।
होली आते ही पानी की कमी का रोना रोना और होली की लकड़ी से जंगल कटने की चिंता करना।
इसी प्रकार की हर भारतीय त्योहारों की टीका टिप्पणी आपको मिल जायेगी। दशहरा पर रावण के पुतले को जलाने की परम्परा तो साहित्यकारों का अभीष्ट और प्रिय विषय है। शिवरात्रि पर शिवलिंग का दुग्धअभिषेक भी एक बड़ा प्रिय विषय है।
उपरोक्त समस्त विषयों पर हर बरस तोड़ मोड़ कर अनंत लघुकथाएं, कविताएं और कहानियां भी साहित्य के नाम पर थोप दी गयी हैं। यहां तक कि परम्परा के वाहक स्वयं लेखक भी हैं फिर भी धकापेल इन विषयों पर कलम तोड़ रहे हैं।
दीपावली पर दीये में जलने वाले तेल की मात्रा का हिसाब लगाते हुये एकदम त्वरित ब्यान है (किस तथाकथित बुद्धिजीवी का है यह जानना उस तथाकथित बुद्धिजीवी का सम्मान करने की तरह अनुभूत होगा।) कि अयोध्या में प्रकाशित बाइस लाख दीयों से बाइस हजार लीटर तेल की बरबादी हो गयी। अगर इस तेल को बाइस हजार गरीबों को दिया जाता तो कम से कम पंद्रह दिनों तक उनके परिवार का गुजारा हो जाता।
कितने आश्चर्य की बात है कि एक ओर उन बुद्धिजीवियों द्वारा आह्वान किया जा रहा है कि मिट्टी के ज्यादा से ज्यादा दीये की खरीदी आम जनता करे ताकि कुम्हारों की आर्थिक स्थिति में सुधार हो, उनको संजीवनी मिले। और दूसरी ओर ये तेल के दुरूपयोग की थ्योरी!
ये दोहरी सोच वाली बुद्धि ही पागलपन की निशानी नहीं लगती है! वास्तव में ये बुद्धिजीवी बेलगाम हो चुके हैं। अपने घर में बैठे बैठे ही दुनिया भर के सिद्धांतों का वमन करते हैं जो वास्तविकता से परे होते हैं। दीया और तेल में तो सामने ही नजर आता है कि ये कैसी दोगली बात करते हैं। ठीक इसी तरह दीपावली के फटाकों के लिये कहते हैं कि इससे प्रदूषण फैलता है और यही लोग जब फटाकों के कारखानों को अवैध बता कर बंद करते वक्त उनके अधिकारों के लिये आकर खड़े हो जाते हैं कि इससे गरीबों की रोजी रोटी छिन जायेगी।
शिवरात्रि के दुग्धाभिषेक के लिये ये डेढ़ होशियार कहते हैं कितना दूध पानी की तरह बहा दिया जाता है जबकि देश में करोड़ों बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। ये इस वक्त ये क्रूों नहीं विचार करते कि गौपालकों की स्थिति में सुधार होता होगा। उनका व्यापार ज्यादा होने से उनकी जरूरतों की पूर्ति होती है।
त्योहारों में फूलों से साज सज्जा की जाती है। गनीमत है अभी तक किसी नकली विद्वान का ध्यान इस ओर नहीं गया वरना वे लोग कहते कि इन फूलों को उगाने से प्राकृतिक जीवन तहस नहस हो रहा है क्योंकि इन फूलों को उगाने के लिये जलस्त्रोतों का जल बरबाद हो रहा है। एक ओर पानी की कमी से जनता हफ्ते में एक बार नहाने पर मजबूर है और दूसरी ओर बोरिंग के पानी से फूलों की खेती की जा रही है। घोर अनर्थ है ये तो। फूलों से ही जलप्रदूषण हो रहा है क्योंकि फूलों के उपयोग के बाद उनको नदियों में बहा दिया जाता है। घोर अनर्थ!
रावण को जलाने की परम्परा पर भी भारी विवाद है। मन के रावण को पहले मारो तब रावण को मारो। इस रावण के शुभचिंतक भी आ गये हैं। पहले रावण को राक्षस मानकर मूलनिवासियों से जोड़ा गया फिर उसे ब्राम्हण बताया गया जो कि सच है।
क्या रावणदहन से रोजगार में बढ़त्तोरी नहीं होती है ?
अब हम इन सभी परम्पराओं के लिये दूसरी तरह से विचार करते हैं। उपरोक्त समस्त परम्पराओं से मेला, मडई, बाजार लगते हैं जिनमें लोग अपने घरों से बाहर निकलते हैं। अपनी अंटी ढीली करते हैं। खाने की चीजें खाते हैं। जरूरत की सामग्री खरीदते हैं। इस प्रकार घर में रखा धन बाजार से होता हुआ लोगों तक जाता है। धन के प्रवाह से रोजगार का सृजन होता है। लोगों की जरूरतें पूरी होती हैं। इससे कहीं अधिक लोगों को स्वयं के जीवित होने का अनुभव होता है। सामाजिकता बढ़ती है। गरीबी दूर होती है। हुनर वाले पारम्परिक रोजगारों को बढ़ावा मिलता है।
आइये अब देखते हैं चित्र का दूसरा पहलू।
नेताओं के प्रचार प्रसार आमसभाओं से धन की बरबादी नहीं होती है ? लोगों को जबरदस्ती एक जगह एकत्रित करके भाषणबाजी होती है, इससे प्रदूषण नहीं फैलता है ?
उनके स्वागत सत्कार में हजारों की संख्या में बोर्ड़ बना कर लगाये जाते हैं फटाके फोड़े जाते हैं क्या इससे प्राकृतिक संसाधनों की बरबादी नहीं होती है ?
फ्लेक्स बनाने में सूती धागे के इस्तेमाल से जितनी बरबादी होती है क्या उस बरबादी को रोकने से गरीबों के तन ढंकने के लिये कपड़े की कमी नहीं रोकी जा सकती है ?
सरकारी कार्यक्रमों में लगने वाले टेंटों के किराये की बरबादी को रोक कर देश के गरीबों के लिये घरों का निर्माण नहीं किया जा सकता है ?
सरकारी कार्यालयों में होने वाली लगातार बिजली की बरबादी को रोक कर हमारे देश की कोयला खदानों पर पड़ने वाले बोझ को नहीं रोक सकते हैं ?
गाड़ियों को धोने से खर्च होने वाले पानी को रोक कर हम गरीबों की बस्ती तक चैबीसों घंटे पानी पहुंचा सकते हैं।
दारू बनाने के लिये जो अनाज सड़ाया जाता है क्या उसे रोककर हम गरीबों को दोनों वक्त मुफ्त अनाज नहीं दे सकते हैं ?
ऐसे अनंत सुझाव हो सकते हैं जिनसे हम गरीबों का पेट भर सकते हैं।
पर क्या हर बात से सिर्फ गरीबों के पेट भरने, उनको रोटी, कपड़ा और मकान देने की बात ही की जानी चाहिये?
क्यों समाज गरीबों का पेट भरे ? क्यों समाज गरीबों के तन पर कपड़े डाले ? क्या आवश्यकता है कि गरीबों की व्यवस्था के लिये ही विचार करे ?
क्या व्यक्ति को अपने लिये जरा भी नहीं सोचना चाहिये ? गरीब देश में है ही क्यों इस बारे क्यों विचार नहीं किया जाता है ? गरीबों को दो वक्त का अनाज देकर गरीब ही बनाये रखने का क्या फायदा है ? सिर्फ अपनी दरियादिली दिखाने के लिये ? समय समय पर गरीब को कुछ अनाज और कुछ कपड़े दे देने से आपका कर्तव्य पूरा हो जाता है ? गरीब की चिंता में इतने दुबले होने वाले लोग गरीबों की गरीबी का स्थायी इलाज क्यों नहीं करते हैं ? क्यों नहीं कोई स्थायी योजना तैयार करते हैं जिससे गरीबी ही खत्म हो जाये। अपनी दरियादली को दिखाने के लिये गरीबी को प्रदर्शनी की तरह स्थायी बनाये रखना मायाचार है।
इन सबसे बड़ी बात इस देश में जितना गरीबों का ध्यान बगैर फोटो खिंचवाये और अखबारों में खबर बनाये होता है कि जितना दुनिया में कहीं नहीं होता है। दुनया भर के गरीब तो मंदिर के सामने ही नजर आते हैं। भंडारा की परम्परा देश के हर कोने में है। गरीबों को दान करने की परम्परा देश भर में है। इसलिये हर बात में गरीबों का ख्याल करने की जरूरत में ख्याल से नहीं होनी चाहिये। और बरबादी के मायने अपने अपने हो सकते हैं।
परन्तु भरतीय त्योहार देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। त्योहार और धार्मिक पर्यटन ही देश में अरबों खरबों का धन एक दिशा से दूसरी दिशा की ओर ले जाते हैं।
आप यदि सोचें कि एक मिट्टी कलाकार या पीतल, लोह शिल्प कलाकार जो बनाता है उसकी उपयोगिता क्या है सिर्फ देखने में अच्छा लगता है इसलिये खरीद लो ? उस आर्ट को एक पैसे वाला खरीद कर अपने घर में सजाता है। देखा जाये तो ये अनावश्यक खर्च है। इस वक्त भी कहा जाये कि इससे अच्छा तो गरीब को दो वक्त का अनाज दिया जाये तो उसका जीवन सुखमय हो जाये।
परन्तु इस लेन देन से गरीब को धन के साथ मान सम्मान भी मिलता है। क्या गरीब को हमेश अपनी झोली फैलाकर रखनी चाहिये ? उसे अपना आत्मसम्मान जाग्रत नहीं करना चाहिये ? गरीब को दीन हीन बने रहने से क्या सामाजिकता सही दिशा में जाती है ?
पैसे वाला गरीब के निर्माण को खरीद कर उसके पैसे देता है। ज्यादातर गरीब प्राकृतिक स्त्रोतों से सामग्री निर्मित करते हैं अतः उसकी लागत कम होती है, मेहनत का उचित मूल्य मिलता है।
कुछ कुंठित बुद्धिजीवियों के द्वारा समाज को कुंठित बनाने की ये युक्ति लगातार कार्य कर रही है। बरबादी और निर्माण के अपने अपने पैमाने न बनाये जायें बल्कि पुराने पैमानों का आंकलन किया जाये।
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