लघुकथा-रजनी साहू

बोतल का जिन्न

प्रकृति की सुन्दरता को आंखों में भरते हुए मैं समुद्र के किनारे टहल रही थी। अपने ख्यालों में मग्न और दुनियादारी से पूरी तरह बेखबर थी।
तभी अचानक मेरी नजर एक अजीब से आदमी पर पड़ी। सम्मोहित सी उसके पास चली गई और पूछ बैठी-आप कौन हैं ?
जवाब आया-बोतल का जिन्न!
मैंने पूछा-आप यहां क्या कर रहे हैं ?
वह बोला-मुझे सदियों पहले मेरे आका ने तैनात किया है आती-जाती लहरों की गिनती के लिए। उसी काम को अंजाम देने में लगा हूं।
मेरे और कुछ पूछने के पहले ही वह अपनी बातें कहने लगा।
‘जिन्न’ ने कहा-किनारों को किनारों से हटते देख रहा हूं। मैं कई बार इस विशाल समुद्र की दुर्दशा पर रो पड़ा हूं। कितनी शक्ति है इस समुद्र में फिर भी वह मजबूर है। चारो तरफ हरे भरे पेड़ पौधे और पक्षियों की चहचहाहट थी। कितना खूबसूरत हुआ करता था वह नजारा। कितना सुकून था। आज मैं परेशान हूं यहां फैली गंदगी, शोरगुल, और बनावटी चकाचौंध को देखकर। और तो और यहां के जलचर भी अब दम तोड़ रहे हैं। सिगरेट के कश लगाते युवक-युवतियां प्रेम की सार्थकता को बदनाम करते हुए अश्लील तरीके से लिपटे पाये जाते हैं। मैं निशब्द इसका साक्षी बनता हूं और शर्म से गड़ जाता हूं।
मैं जिन्न की बातें सुनकर सन्न रह गई। काश मैं कुछ कर पाती। सबकुछ अनसुना, अनदेखा कर मैं अपने जीवन में आगे बढ़ गई। बहुत कोशिशों के बाद जिन्न की बातें मैं भूला न पाई। काफी दिन बीतने के बाद मैंने उस जिन्न से मिलने का निर्णय किया।
जिन्न उसी जगह मिला। उसने मुझे देखते ही कहा- स्वच्छता अभियान आरंभ है, प्रदूषण खत्म करते कुछ वर्ष लगेंगे। इस पर नियंत्रण हो जायेगा, पर समाज में फैली अश्लीलता, अनैतिकता, असभ्यता की गंदगी पर कैसे नियंत्रण होगा ? खुली विचारधारा का मतलब असभ्यता, छिछोरापन नहीं है, लोगों को कैसे समझाया जायेगा ?
मेरे मुंह से अनायस ही निकल गया-अध्यात्म ही हमारी संस्कृति को बचा सकता है। पंचतत्वों के इस शरीर को हम आध्यात्म के माध्यम से दूषित होने से बचा सकते हैं।
मेरी बातें सुनकर अचानक जिन्न न जाने कहां गायब हो गया।
पुरूस्कार

काव्या कालेज के द्वितीय वर्ष की छात्रा थी। उसे पढ़ने के साथ-साथ चित्रकला का भी बड़ा शौक था। बहुत चाहकर थी वह अपनी कला की रूचि के प्रति न्याय नहीं कर पा रही थी क्योंकि वह पढ़ाई में व्यस्त रहती थी।
अपने अंदर के इस हुनर को वह दीपावली की छुट्टियों में अपने आंगन पर पूरी लगन से उतार देती थी। दीपावली के समय शाम को सभी लोग अपने घर के बाहर आंगन या सड़क पर रंगोली बनाया करते थे।
एक दिन काव्या ने पत्थर पर बैठी स्त्री क चित्र रंगीन रांगोली के माध्यम से सड़क पर इतना आकर्षक बनाया कि सड़क पर चलते लोग रूक-रूककर एकबार अवश्य देखते।
दूसरे दिन फिर शाम को रंगोली बनाने आंगन में गई तो सामने रहने वाले शर्मा जी का हमउम्र लड़का सार्थक आ गया।
उसने बताया कि कल रात लगभग साढ़े ग्यारह बजे एक सरदार सड़क पर ही बैठ गया और तुम्हारी रंगोली लगभग आधे घंटे तक देखता रहा। उसे देखकर ऐसा लग रहा था कि वह दिन भर का थकाहारा है। और वह तुम्हारी कलाकारी देखकर सुकून में डूब गया। वह तरोताजा होकर चला गया। वह कई दिनों से तुम्हारी रंगोली देखने आता है।
यह सुनकर काव्या को बहुत खुशी हुई। काव्या ने सार्थक से पूछा-तुम्हें कैसे पता चला ?
सार्थक बोला-मैं भी वही करता हूं जो सरदार करता है। कभी मैं सरदार को देखता हूं कभी तुम्हारी रंगोली को। मुझे भी बहुत सुकून मिलता है।
काव्या के चेहरे पर दिव्य मुस्कान फैल गई।


रजनी साहू
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