जेटयुगी आस्था
जैसे-जैसे वैज्ञानिक युग छाता जा रहा है एक ऐसा परिवर्तन समाज में आ रहा है जो वैज्ञानिकता से एकदम हट कर है। वो परिवर्तन है धार्मिक कट्टरता! भगवान (ईश्वर, अल्लाह, जीसस, महावीर और अब भीम) को मानते हैं लोग पर भगवान की नहीं! भगवान की फोटो लगाकर दीपक जलाना और अगरबत्ती खोंसना ही भगवान की मानना हो चुका है। ऐसे लोगों से मिलो और उन्हें बताओ ये सब, फिर देखो न तो बाल बचेंगे न ही सिर।
यहां जिस समस्या से रूबरू होंगे वह प्रतीकात्मक है यानी प्रत्येक समाज के लिए समान रूप से लागू है। जिनका उदाहरण लिया गया है वे भगवान कुछ ज्यादा ही लाइम लाइट में हैं। इनका सीधेपन का इनके भक्तों ने खूब दुरूपयोग किया है और आज भी धड़ल्ले से कर रहे हैं। चंदा मांगना, सड़क घेरना, भजन के नाम पर फिल्मी गीत बजाना, रास्ता घेर कर जुलूस निकालना, जुलूस में शक्ति प्रदर्शन करना आदि आजकल के धर्म के अध्याय हैं। इन अध्यायों के माध्यम से हम भगवान से अपनी अपेक्षा की पूर्ति चाहते हैं। भगवान को भक्तों ने आजकल खुलेआम रिश्वतखोर की तरह प्रस्तुत कर दिया है। उनके नाम पर चंदा और फिर अपना धंधा। जो त्यौहार एक दिन मनाये जाते थे उसे खींच-खांच कर कम से कम दो दिन और पंद्रह दिन तक घसीटा जा रहा है। यदि किसी के घर परिवार का कोई बीमार हो जाये तो एक रात के लिए कोई अस्पताल में सोने वाला न मिलेगा मगर धर्म और भगवान के नाम पर महीनों काम धंधा छोड़कर सड़क पर भी सोने तैयार हो जायेंगे। रिश्तेदार मर जायेगा पांच-दस हजार के लिए पर उससे संबंध ही तोड़ लेंगे और धर्म यात्रा के नाम पर लाखों खर्च कर देंगे।
इन धर्म यात्राओं में कितना पुण्य कमाते हैं इससे ही समझा जा सकता है कि जब हम मरघट जाते हैं तो वहां शादी तक तय हो जाती है, उस मरघट में जितना मजाक और हास-परिहास होता है उतना तो आप किसी की शादी में न देख पायेंगे। धर्मक्षेत्र पहुंचकर आसपास के पर्यटन स्थलों की पहले पूछताछ होगी उसके बाद खरीददारी।
खैर हमारा विषय ये नहीं है, हमारा विषय है कि हम चंदे के माध्यम से प्राप्त करोड़ों-अरबों की राशि को बरबाद करते हैं उसे जोड़ना क्यों नहीं चाहते ? हम अपनी धार्मिक आस्था को बचाने का जरा भी प्रयास नहीं करते। और कोई दूसरे धर्म का व्यक्ति वही काम कर देता है तो हम उसकी जान तक के दुश्मन बन जाते हैं।
आज सबसे ज्यादा दुख होता है कि जहां लोग रोज कचरा फेंकते हैं, गंदगी फैलाते हैं ऐसी जगह में हम अस्थाई पूजाघर बनाकर पूजा करते हैं। स्कूल के बाजू में, अस्पताल के पास, बुजुर्गों के घर के पास ऐसे पूजाघर बनते हैं। दिन रात शोर शराबा होता है। सड़क घेर कर धार्मिक क्रिया कलाप करना ऊपर वाले को खुश करता है या नहीं पर नीचे वालों को परेशान जरूर कर देता है। शायद ही कोई होगा जो ऐसी बातों से चिढ़कर अपशब्द न कहता हो। चंदाखोर और अधार्मिक लोगों के चलते आम आदमी पाप का भागी बन जाता है क्योंकि मुंह से भगवान के नाम पर ही अपशब्द निकल जाते हैं। बुरा जरूर लग रहा होगा ये पढ़कर परन्तु हम सभी की ऐसी ही प्रतिक्रिया रहती है। हमने तो भगवान को अपना नौकर ही मान लिया है।
ऐसे अस्थाई पूजाघरों को पार्षद, सरपंच, विधायक, मेयर, सांसद, कार्यालयीन अधिकारी आदि फण्ड देते हैं अपना वोटबैंक बनाये रखने के लिए, अपनी पकड़ बनाये रखने के लिए। फिर चंदा गैंग निकलता है मुहल्ले को लूटने। पचासों बेरोजगार लोग भीड़ बनाकर आते हैं जिससे चंदा देने वाला डर कर ज्यादा से ज्यादा पैसा दे। इस भीड़ में रोज दारू पीकर दंगा करने वाले जैसे लोग भी शामिल होते हैं। जिसने भी चंदा देने में आना कानी करी, फिर भुगतो साल भर। या तो वे घर के कांच फोड़ेंगे, कार के कांच फोड़ेंगे, या घर की महिलाओं को छेड़ेंगे। दबंगई से सभी परेशान हैं, पर मजबूर हैं क्योंकि उस भीड़ में हमारे घर का भी बेरोजगार पूत होता है।
एक छोटे से छोटे पंडाल का खर्च कम से कम दो से तीन लाख होता ही है। इस राशि में वो अवैध चंदा नहीं जुड़ा है जो हम सब मिलकर साल भर चुकाते हैं जैसे बिजली का बिल, पानी का बिल, रोड के गढ्ढे भरने का बिल, पेट्रोल का पैसा ( बिना कारण के दसों दिन शार्टकट छोड़कर लंबी सड़क से जाना होता है।) नाली जाम का सफाई का बिल आदि। आजकल पंडाल से सौ-सौ मीटर दूर तक सभी दिशाओं की सड़क पर बिजली की झालर, ट्यूब लाइट, हेलोजन आदि दिनरात जलाया जाता है, क्या आपको लगता है इस बिजली का बिल कोई पटाने जाता होगा ? अगर आप को लगता है कि सच में कोई पटाने जाता है तो वाकई महान हैं।
खैर, ये जो लाखों का खर्च है इसे प्लान करके स्थाई पूजाघर बनाकर पूजा क्यों नहीं की जाती है ? हर मुहल्ले में परमानेन्ट पूजाघर बनाये जाने की योजना क्यों नहीं बनती है ? पूजाघर ही क्यों धर्मशाला बनाई जाये गरीबों के सोने की मुफ्त सोने, रूकने की व्यवस्था बनाई जाये। इस व्यवस्था में न जाने कितने ही लोगों को स्थाई रोजगार भी मिलेगा। लोग दूसरे शहर जब किसी काम से जाते हैं तो वहां होटल में रूकने में ही हालत पतली हो जाती है। टोटल बजट का आधा तो होटल चार्ज में ही चला जाता है।
स्थाई पूजाघर वाली व्यवस्था से व्यक्ति को वास्तव में धार्मिक होना पड़ जायेगा शायद यही डर उन्हें रोक लेता है। अगर एक साल के चंदे से जमीन खरीदी जाये और अगले साल से मंदिर, धर्मशाला का निर्माण कराया जाये, सार्वजनिक नल, गरीबों के सोने की जगह बनाई जाये तो शायद भगवान, खुदा, जीसस ज्यादा प्रसन्न होंगे। हां, ये बात अलग है कि उनके चेले ये बात पढ़ सुन कर ही पगला जायें। इस टेम्परेरी व्यवस्था से उनके धंधे का क्या होगा। उनकी भक्ति (बगुला)के चलते दुनिया परेशान होती है तो होती रहे, वे तो सीधे-सीधे मोक्ष के द्वार पहुंच रहे हैं।
आश्चर्य की बात है कि जिसे माना जाता है कि वह अंतरआत्मा की आवाज सुन लेता है और वह कहीं भी आ सकता है, उसे हम डीजे के माध्यम से याद दिलाते हैं कि देखो हम भक्ति कर रहे हैं ध्यान दो, सो मत जाना। मानलो ऊपर वाले और नीचे वाले का वास्तव में संवाद होता तो अब तक तो झगड़ा ही हो जाता।
क्या हम इतने बेवकूफ हैं कि हम इन बातों को समझ नहीं पा रहे हैं ? या फिर समझकर न समझने में अपनी भलाई जान कर न समझना बेहतर लग रहा है। ये हमारी सोच बड़ी खतरनाक है। इसके चलते हमारी विश्वसनीयता स्वयं पर से खत्म होती जा रही है। हमें तो वही होना चाहिए वही दिखना चाहिए जो हम हैं।
यदि हमारे द्वारा जमा की गई राशि से धर्मशाला बनायी जाये और उस धर्मशाला को नाममात्र शुल्क पर लोगों की सुविधा के लिए दिया जावे तो आम जनों को कितनी राहत मिलेगी, कभी हमने सोचने की जुर्रत की है ? पर्यटन उद्योग बढ़ेगा, नौकरी ढूंढने वालों को कम खर्च में रूकने की सुविधा मिलेगी। छोटा मोटा धंधा करने वालों को वहां रूकने मिलेगा, उनका जीवन स्तर सुधरेगा। बेमकसद की हर साल की सजावट, टेंट, लाइट में पैसों की बरबादी के अलावा क्या है ? अगर इतनी ही श्रद्धा है तो लोग अपने पैसे खर्च करें और उतने ही जोश के साथ त्यौहार का मजा लें और पुण्य कमाएं। चंदा (एक तरह की लूट और डकैती) के पैसों से मोक्ष कैसे मिलेगा ? सड़क में बैठ कर पूजा पाठ से मात्र अन्य लोगों को असुविधा ही होगी।
धर्म के नाम पर इतने सारे दिनों तक अपनी ऊर्जा की बरबादी करके क्या मिलता है पता नहीं ? उतने समय में वे अपने न जाने कितने महत्वपूर्ण काम निबटा सकते हैं। धर्म मानना और धर्म का दिखावा करना दोनों में जो अंतर है उसे ही बाजार की शक्तियां भुनाती हैं। आप देखिए आज कल बाजार में पूजा संबंधित सभी चीजें रेडिमेड मिलती हैं। जैसे कि दुर्गा पूजा के वक्त अनेक डिजाइनों में चुनरी, कांवड़ यात्रा के लिए ड्रेस व प्लास्टिक के कांवड़ सेट, लगभग हर मंदिर के आसपास प्रसाद, फूल, फोटो, गाने की सीडी की दुकानें।
लोग पूजा पाठ के चक्कर में इस कदर पड़ गये हैं कि वे कर्म की जगह भाग्य को ही मुख्य स्थान देने लगें हैं। जबकि भाग्य यदि कुछ है तो वह भी पहले का पुरूषार्थ ही है। आज का पुरूषार्थ कल का भाग्य माना जा सकता है।
जगह जगह मंदिर, मस्जिद बना कर हम अपनी जनता को भाग्यवादी कर्मकांडी और कट्टर रूप प्रदान कर रहे हैं। सड़कों पर हथियारों का प्रदर्शन कर हम किस तरह की देवभक्ति करते हैं ? यह तो साफ-साफ शक्तिप्रदर्शन है।
धर्म निहायत ही पर्सनल चीज है। इसलिए उसके पालन से किसी अन्य को तकलीफ नहीं होनी चाहिए। इसलिए धर्म का प्रदर्शन सड़कों पर न करके अपने अपने घरों में हो। और सामान्यजनों के बीच एक इंसानियत का गुण होना चाहिए। वृद्धों को होने वाली असुविधाओं का ख्याल रखना किसका फर्ज है ? कौन आयेगा जो उनका ध्यान रखेगा ? धर्म का ये कैसा पालन है, कैसी गलत परिभाषाओं से जकड़ दिया गया है जो दूसरों को असुविधाओं में ढकेलने वालों को मोक्ष पहुंचाता है ?
ईश्वर अपने नाम को बदनाम करने वालों को सद्बुद्धि प्रदान करे।