लघुकथा-प्रह्लाद श्रीमाली

सुरक्षित संवेदना

वे प्रातः सैर के लिए निकले तब आसमान लगभग साफ था। बस छुटपुट बादल थे। किंतु इस शहर के मौसम का कोई भरोसा नहीं। इसलिए छतरी साथ ले ली थी। चिंतन करते-करते वे शहर की तंग सड़कें और गलियां पार करते हुए एकदम खुले वातावरण में आ गये थे। समुद्र किनारे साफ ठंडी हवा में सुखद सांस लेते हुए भी वे फुटपाथ पर दिन गुजारने को मजबूर परिवारों के बारे में सोच रहे थे।
अपनी इस मानवीय संवेदना पर उन्हें नाज था। वरना आजकल कौन किसी का भला सोचता है। करने की बात तो दूर। विचार करते हुए उन्होंने तय किया। आगे से वे सिर्फ सोचेंगे ही नहीं। यथा संभव किसी का भला करने की चेष्टा रखेंगे। इस निर्णय ने उन्हें अपने प्रति गर्व का अतिरिक्त अहसास दिया।
अकस्मात बादल घिर आए और तड़ातड़ बरसने लगे। छतरी साथ लेने की समझदारी पर प्रसन्न होते हुए वे लौट पडे। नजर पडी, फुटपाथ पर सामने से एक फटेहाल महिला साल भर के रोते हुए बच्चे को गोद में लिए भीगती हुयी चली आ रही है। बच्चा शायद बीमार था या थपेड़े सह नहीं पा रहा था। वे विचलित से हो गये। अब क्या किया जाय इसके लिए! उनका दिमाग ठस सा हो रहा था। महिला काफी निकट आ चुकी थी। जाने कैसे अतंःप्रेरणा हुयी और उन्होंने खटाक से छतरी बंद कर दी। तब तक महिला और निकट आ गयी थी। पास से गुजरते हुए वे भी महिला और उसके बच्चे की तरह भीग रहे थे। इसका उन्हें परम संतोष था। आगे जाकर उन्होंने छतरी खोल दी। किंतु चाहते हुए भी मुड़कर देखने का साहस नहीं कर पाए। यदि कर पाते तो देखते। मुड़ कर देखते हुए वह महिला उनकी संवेदनशीलता पर मुस्कुरा रही थी।
हजार आंखों वाला विश्वास
‘‘अच्छी तरह से देख लीजिए मैडम। कहीं कोई नल टपक तो नहीं रहा। बाथरूम, किचन, वाशबेसिन सब जगह। टपक रहा हो तो अभी ठीक किए देता हूं।‘‘
मकान की छत पर बनी टंकी तक पानी पहुंचाने वाला पंप खराब हो गया था। उसे सुधारने आए प्लंबर ने आते ही इस बाबत जोर देकर पूछा था। और अब अपना काम खतमकर जाते हुए उसने दुबारा कहा तो गृहस्वामिनी झुंझला उठी।
‘‘अरे भाई कहा ना सब नल बराबर है। फिर ये बार-बार क्यों पूछ रहे हो। जब भी जरूरत पड़ती है तुमको ही तो बुलाते हैं तो फिर चिंता क्यों करते हो ?‘‘
‘‘आप गलत समझीं मैडम। वो बात नहीं है। मैं आपका घरेलू प्लंबर हूं। इसलिए चिंता तो करनी ही पड़ती है!‘‘
‘‘चिंता, किस बात की चिंता ?‘‘ झुंझलाहट और तेज हो गयी।
’’दरअसल मेरे पिताजी कहा करते थे कि जिस घर में नल टपकता रहता है और पानी फिजूल बहता है उस घर में पैसा भी पानी की तरह खर्च होता है। ऐसी मान्यता है। शायद आपने भी सुना होगा। अब क्या है कि आप लोग ठहरे हमारे स्थायी कस्टमर। सो आपका भला तो हमें सोचना ही चाहिए।‘‘ प्लंबर ने खुलासा किया। अब गृहस्वामीनी के चेहरे पर एकदम अलग भाव थे। वहां आश्चर्य, आनंद और प्लंबर के प्रति सम्मान साफ नजर आ रहा था। ‘‘जरा दो मिनट रूको।‘‘ उसने नम्रता मिली मुस्कान के साथ कहा और पहली बार घर के सारे नल ठीक से तपास कर आयी। इस काम के लिए उसने दो मिनट से कुछ ज्यादा ही वक्त लिया था।
‘‘नहीं भैया सब ठीक है।‘‘ राहत की सांस लेते हुए उसने प्लंबर को विदा किया।
‘‘ये क्या उस्ताद! आप तो खूब पढ़े-लिखे हो। बड़ी ऊंची-ऊंची बातें करते हो। फिर खाली-पीली उन मैडम को अंधविश्वास में क्यों डाला?‘‘ बाहर आते ही प्लंबर के छोकरे सहायक ने जिज्ञासा भरा उलाहना दिया।
प्लंबर चौंका, उसने घूरकर छोकरे को देखा। फिर मुस्कुराते हुए उसकी पीठ पर एक प्यार भरी धौल जमाते हुए बोला, ‘‘वाह! बड़ा तेज है रे तू तो। देख, यह अंधविश्वास की नहीं विश्वास की बात है। और मेरा मानना है कि पानी और बिजली की किल्लत के जमाने में इस मान्यता के दम पर यदि थोड़ी बहुत भी बचत हो जाती है और वह पानी-बिजली जरूरतमंदों के काम आ जाती है तो यह अंधविश्वास नहीं बल्कि हजार आंखों वाला विश्वास है।‘‘
छोकरा अपने उस्ताद के दूरदर्शीता भरे व्यवहारिक ज्ञान को पीने की कोशिश कर रहा था।


प्रहलाद श्रीमाली
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