भूख का सच
सोलह सीढ़ियाँ चढ़ वृद्धा ने बहु को आवाज लगाई-‘बेटा क्या तुम खाना खा चुकी हो ?’ टीवी की तेज आवाज के संग ही बहु की भी आवाज आई ’नहीं, अभी थोड़ी देर में आती हूँ। उन्होंने पुनः पूछा-‘क्या खाओगी, क्या मैं कुछ बना दूँ ?‘ उत्तर मिला, ‘‘नहीं, देखती हूँ मैं भी फ्रिज से कुछ निकाल कर खा लूँगी।’
नीचे आकर अपने कमरे में प्रतीक्षारत बैठी वे द्वार की घन्टी सुन दरवाजा खोलने गई। पुत्र एवम पौत्र जो होटल खाना खाने गये थे, अन्दर आये। पौत्र के हाथ मंे एक पारदर्शी थैली थी और उसमे से झांकते दो डिब्बे। थैली को छुपाने की कोशिश करता हुआ जल्दी-जल्दी सीढ़ियाँ चढ़ पौत्र सीधे ऊपर कमरे में चला गया। दादी अपने कमरे में जा टीवी देखने बैठ गई, बहु के नीचे आने के इन्तजार मंे….काफी देर के बाद बहु नीचे आकर बोली-‘आप खाना खा लें, मुझे भूख नहीं है, खाने की बिल्कुल इच्छा नहीं है मेरी..।
फ्रिज से बासी रोटी सब्जी निकाल वृद्धा खाने बैठ गई..।
स्वयंसिद्धा
बंगले का निर्माण-कार्य चल रहा था। मजदूर काम मंे व्यस्त थे। “जाऊँ जाकर देख आऊँ“ सोच कर आई थी। अचानक जोरों से झगड़े की आवाज़ आने लगी..
पुरुष स्वर-‘बच्ची को बालवाड़ी में भेजती ही क्यों हो, नाहक पैसे का खर्च, ऊपर से रोज लाने-ले जाने की परेशानी। मैं तो कहता हूँ, कान्ट्रेक्टर साहब कह रहे थे, उनके घर बर्तन-बासन कर लेगी तो वे उसे खाना और कपड़ा-लत्ता दे देंगे। ऊपर से अगर मालिक के हाथ-पाँव सहला दिया करेगी तो हमंे भी फायदा हो जावेगा, मेरी मान-उसे काम पे लगा…।’
शेरनी सी दहाड़ती आवाज में स्त्री अपनी पीठ पर गमछे से बंधी बच्ची को दिखा कह उठती है-‘बेटे की चाह में यह दूसरी बेटी मेरी पीठ पर टंगी है’, पेट की ओर ईंगित कर कहती है, ‘इस बार अगर यह तीसरी भी बेटी हो गई तो क्या करेगा?’
क्रोध से बेकाबू हुआ मजदूर पास पड़ी कुल्हाड़ी उठा, मार दूँगा कहता हुआ उस पर झपट पड़ता है। मुझे पास खड़ा देख दौड़ती हुई स्त्री मेरे पास आ जाती है।
‘मेम साहब यह हम सबों को मार देगा। मैं जीना चाहती हूँ, अपनी बच्चियों को पढ़ाना चाहती हूँ, इन्हें एक साफ-सुथरी जिन्दगी देना चाहती हूँ। मेरी मदद करें, मुझे कहीं काम दिलवा दें। खूब परिश्रम एवं ईमानदारी से काम करूँगी….आपको शिकायत का मौका नहीं दूँगी…।’ मुझे अपनी ओर ध्यान से देखते हुए पाकर, बड़े ही दृढ स्वर में बोल उठी-’आप मुझ पर भरोसा कर सकती हैं।’ न जाने उन याचनापूर्ण आँखों में कैसा तेज था, कैसा विश्वास था, कैसी मातृत्व की कर्तव्यपरायणता थी कि मैं विवश हो उठी, उसकी मदद करने को।
मैंने पूछा-‘क्या वह बड़े-बुजुर्गों की सेवा कर पायेगी और क्या उसका पति उसे काम करने देगा?’ प्रत्युत्तर में उसने जो कहा वह बेहद दर्द भरी कहानी है….’मैं एक अच्छे घर की लड़की हूँ। बम्बई शहर की चकाचौंध देखने गाँव से शिवा के संग भाग आई थी, आज अपनी गलती पर पछता रही हूँ। शिवा मेरा पति नहीं है, इसने मुझसे ब्याह नहीं किया पर माँ अवश्य बना दिया। स्वयं ही नहीं, दारू के नशे में धुत अपने साथियों से भी मेरा यौन-शोषण करवाता रहा। गाँव जाकर मेरी बदनामी और जान से मार डालने की धमकी देकर, वह आज तक मुझे बेबस करता रहा। मैं बच्चों की खातिर जीती रही….पर अब और नहीं…कहीं दूर जाकर नए जीवन की शुरुआत करना चाहती हूँ…।’
सन्तान के प्रति मोह, उत्तरदायित्व-बोध और दृढ़ निश्चय से दप-दप करता हुआ चेहरा लिए “स्वयंसिद्धा“ बनने को प्रस्तुत इस महिला को कार में बैठा, हम उसकी बेटी के बालवाड़ी की ओर निकल पड़े।
कुर्सी
एक छोटा सा कमरा, उस कमरे का हृदय बड़ा। दो पिंजरे, उनमें चहचहाती छोटी छोटी हरी-पीली चिड़ियों की जोड़ी।
पुस्तकों के ढेर, एक बड़ी-सी टेबल कागजों से लदी-फदी। उस पर एक टेबल लॅम्प। कुछ टंगी हुई तस्वीरें, कुछ रंग-बिरंगी पेन्सिल और कलम।
कमरे के बीचो-बीच एक छोटी-सी मेज़ और चन्द कुर्सियाँ।
लगातार आते-जाते अतिथियों और आती हुई गरमा-गरम चाय की प्यालियाँ।
एक अतिथि जाते, कुर्सी खाली होते ही दूसरे अतिथि उस पर आ बैठते।
बदलाव व्यक्तियों का-
कुर्सी अपनी जगह वैसे ही अडिग और दृढ़।
चोरी से झांक कर देखा कुर्सी के अन्तर्मन की ओर, उम्र के इस पड़ाव पर मन ही मन अन्दर से टूटती हुई….चरमराती हुई परन्तु ऊपर से सक्षम, सशक्त और सुदृढ़……।
वीनु जमुआर,
15,वृन्दावन
मुकुन्द नगर,
पुणे 411037
मो.–8390540808