लघुकथा-अलोक कुमार सातपुते

प्रशंसा


‘क’ ‘ख’ के पास ‘ग’ की इस तरह बुराई कर रहा था-साला वो ‘ग’ निहायत ही मतलबी और घटिया किस्म का आदमी है, पर पता नहीं कैसे तिकड़म करके जुगाड़ बिठा लेता है और चापलूसी करके अपना उल्लू सीधा कर लेता है। लानत है यार ऐसी जिन्दगी पर….
ख-शः शः चुप हो जाओ। ‘ग’ पीछे खड़े होकर हमारी बातें सुन रहा है।
तभी ‘ग’ सामने आता है और ‘क’ से कहता है-बोलते रहो मित्र, बोलते रहो….।
‘क’ झेंपते हुए- हें,हें…..मेरे मुंह से तुम्हारी बुराई निकल गई।
ग-मित्र जिसे तुम बुराई कह रहे हो, वह आज के दौर में प्रशंसा है, और इस लिहाज से तुम मेरे प्रशंसक हो।

जीत


वह मुझसे बहुत प्रतिद्वंद्विता रखता था। एक दिन अचानक उसे रूपयों की जरूरत आन पड़ी और उसने मुझसे कर्ज ले लिया। अब वह मुझसे बचता फिरता है। कर्ज नहीं लौटा पाने के लिए बहाने बनाने लगता है। उसकी इस स्थिति से मैं बिना लड़े खुद को विजेता महसूस करने लगता हूं और मेरे चेहरे पर विद्रूप सी मुस्कान तिर जाती है।
सेवकपुर
उस देश में राजशाही की परम्परा थी, और राजा बड़ा ही अलोकप्रिय हो चला था। आसपास के दूसरे देशों में लोकतंत्र की बयार बह रही थी। उस देश के लोग भी अपने यहां लोकतंत्र लागू करवाना चाह रहे थे और इस हेतु क्रांति के लिए माहौल बनाने में जुटे थे। परेशान राजा ने राजगुरू से सलाह ली। राजगुरू की सलाह पर राजा ने खुद को प्रजा का सेवक घोषित कर दिया। राजदरबारी अब शासकीय सेवक हो गये। कुछ समाजसेवक तो पहले ही थे। अब एन.जी.ओ. भी समाज सेवा की दुकान लगाने लगे। और तो और प्रजा का खून चूसने वाले व्यापारी भी खुद को सेवक कहने लगे। आम जनता में भी कई तरह के सेवक पैदा हो गये। राज्य में जो जितना अधिक सम्पन्न था वो उतना ही बड़ा सेवक माना जाने लगा। इस तरह उस राज्य में लोकतंत्रात्मक राजशाही कायम हो गई और जनभावनना के मद्देनजर उस देश का नाम सेवकपुर रख दिया गया।

आलोक कुमार सातपुते
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