लघुकथा-मधुदीप

जागृति


शाम का धुँधलका रात के सन्नाटे में बदल चुका था। गाँव की हर गली, हर चौराहे पर अँधेरा पसरा पड़ा था। जी हाँ पाठकों ! यह दिल्ली या किसी राज्य की राजधानी की नहीं, बल्कि भारत के एक दूर-देहात की लघुकथा है।
गाँव की चौपाल में जल रहे पेट्रोमेक्स की थोड़ी-सी रोशनी सामने की पगडंडी पर भी पड़ रही थी। अरे ! आप तो पेट्रोमेक्स के नाम से ही चौंक गए ! जी हाँ जनाब ! वही गैस का हंडा जो आजकल हम शहरी लोग ब्याह-बारात में ही देखते हैं और जो अब मिट्टी के तेल से नहीं जनरेटर की बिजली से चलता है। गाँव में मिट्टी के तेल से जलनेवाले गैस के एक-दो हंडे भी तभी पहुँचते हैं जबकि रात को वहाँ कोई बहुत बड़ा आयोजन होना हो।
इसे गाँव का बहुत बड़ा सौभाग्य ही कहिए कि इस इलाके के विधायक, जोकि राज्य के बिजली मन्त्री भी हैं आज रात चौपाल में तशरीफ ला रहे थे। तशरीफ लानी ही पड़ रही थी क्योंकि चुनाव-प्रचार पूरे जोरों पर था और काँटे की टक्कर होने के कारण एक-एक वोट से जीत-हार की सम्भावना ने सभी उम्मीदवारों की धुकधुकी बढ़ा दी थी।
चौपाल में भीड़ जुड़ने के एक घंटे बाद झंडा और लाल बत्ती लगी मन्त्रीजी की कार तीन अन्य कार-जीपों के काफिले के साथ वहाँ पहुँची। भीड़ के स्वागत के लिए नीचे आने से पहले ही पूरा दल-बल ऊपर आकर वहाँ बिछी खाली चारपाइयों में धँस गया।
गणमान्य व्यक्तियों द्वारा हार-फूलों से लाद दिए जाने के बाद अब मन्त्रीजी अपनी लच्छेदार बातें भीड़ के सामने परोस रहे थे कि तभी बूढ़े दीनू काका उठकर खड़े हो गए।
“का हो काका, कुछ कहना है का !” मन्त्रीजी के मुख से शहद टपका।
“हाँ रे ! तनिक देखियो तो रमुआ, मन्त्रीजी अपनी कार में बिजली भर के लाये हैं का !” दीनू काका के कहने के साथ ही चौपाल में हँसी का एक ठहाका गूँज उठा।
“का कहत हो काका ! बिजली का कार में भरके आत है ?” ठहाके के उतार के साथ ही रमुआ ने कहा।
“आत है रे रमुआ ! मन्त्रीजी पिछली बार कहि के जात रहिन कि अगली बार आवत रहिन तो बिजली लेकर आवत रहिन। अब मन्त्रीजी कार में आत रहिन तो बिजली का पैदल आत रहिन ? ढूँढत रहो, बिजली उस कार मा ही होत रहिन।”
दीनू काका के कहने के साथ ही भीड़ ने चौपाल से नीचे उतरकर मन्त्रीजी की कार को चारों तरफ से घेर लिया।
मन्त्रीजी अब अपने दल-बल सहित वहाँ से खिसकने की जुगत लगा रहे थे।


मजहब


यह 9 सितम्बर, 2014 की एक त्रासद सुबह थी।
लोग तीन दिनों से घर की छतों पर टँगे थे।
लोगों की निगाहें खाली-खाली आसमान पर टिकी थीं। लोगों की निगाहें घरों-सड़कों पर हरहराते पानी पर टिकी थीं ।
धरती की जन्नत सदी के सबसे बड़े सैलाब की गिरफ्त में आ चुकी थी।
आसमान के फरिश्ते कुछ देर पहले ही हेलीकॉप्टर से खाने के पैकेट तथा पानी की बोतलें गिराकर गए थे। जमीन के फरिश्ते कुछ देर पहले ही छत पर टँगे लोगों को बोट से महफूज किनारों पर लेकर गए थे।
सोजुद्दीन उन अभागों में से था जिनकी आँखें इन दोनों के इन्तजार में पथराने लगी थीं। तभी अपने घर की तरफ तेजी से आ रही एक बोट को देखकर उसकी आँखों में चमक लौट आई।
जमीन के फरिश्तों ने उसे तथा दूसरे अभागों को बड़ी होशियारी से छत से उतारकर बोट में बैठाया।
बोट अब महफूज किनारे की ओर लौट रही थी। सोजुद्दीन की निगाहें बड़ी शिद्दत से एक फरिश्ते के चेहरे पर टिकी थीं ।
“तुम सुभाष कौल के बेटे हो ना !”
“हाँ बाबा।”
“तुम मुझे पहचानते हो ?”
“हाँ बाबा, आप सोजुद्दीन हैं।”
“तुम्हें कुछ याद है ?”
“हाँ बाबा ! पन्द्रह साल पहले दहशतगर्दों ने मुझे और मेरे परिवार को इस जन्नत से बेदखल कर दिया था।”
“तुम्हें यह भी पता होगा कि उन दहशतगर्दों का सरगना कौन था ?”
“उस चेहरे को मैं कैसे भूल सकता हूँ बाबा !” आँखों में अंगारे दहके मगर अनुशासन ने उन्हें भड़कने नहीं दिया।
“क्या तुम्हारे मजहब में दुश्मन की जान बचाना जायज है ?”
“बाबा, एक फौजी का मजहब उसका फर्ज होता है और उसके तहत आपकी जान बचाना मेरे लिए बिलकुल जायज है।”
महफूज किनारा आ चूका था। सोजुद्दीन बोट से उतरते हुए इस मजहब को पुरजोर सलाम कर रहा था।


मधुदीप
लघुकथा शृंखला ‘पड़ाव और पड़ताल’ के 25 खण्डों के सम्पादन/ संयोजन में संलग्न, अब तक 20 खण्ड प्रकाशित
138/16ओंकारनगर -बी, त्रिनगर, दिल्ली-110035
मो.-93124 00709 , 81300 70928