लघुकथा-विष्णु कुमार श्रीवास

नया सबक
सुबह करीब 9 बजे झुंड के झुंड वे लोग आये और सड़े हुए दांत निपोर कर उसमें से एक आदमी बोला-’’मालिक दस आदमी हैं।’’ शायद भिखारियों का लीडर था।
सेठ अपनी दुकान में पसर कर बैठा हुआ था अपने वर्कर से बोला-‘‘मोहन! उससे चिल्हर लेकर, बाकि पैसा दे दे।’’
मोहन उठ कर सेठ के गल्ले से दस रूपये का नोट निकाल कर भिखारी को थमाते हुए कहा-‘‘ये लो और बाकि के पांच रूपए लौटाओ।’’
भिखारी पांच रूपए काट कर बाकि के चिल्हर लौटाया। मोहन उस चिल्हर को वापस सेठ के गल्ले में ही डाल दिया। ध्यान ही न रहा कि भिखारियों को दान देने के लिए अलग से रखी गई पेटी में इस चिल्हर को डालना है।
कुछ क्षण के बाद, दो भिखारी और आये।
‘‘अरुण बेटा!’’ अपने भतीजे से सेठ ने कहा-’’उसे भी चिल्हर दे दो।’’
अरूण चिल्हर लेने गया और भिखारी वाली पेटी देखी। वह तो खाली थी। वह सेठ को बोला-’’चाचा! इसमें तो पैसे ही नहीं हैं।’’
सेठ मोहन से पूछा-‘‘मोहन भिखारियों से जो चिल्हर पैसा लिया था वो कहां रखा है ?’’
मोहन एक क्षण के लिए खामोश रहा, फिर उसने जवाब दिया-‘‘आपके गल्ले में ही डाला था।’’
‘‘उसमे क्यों डाला ?’’ सेठ ने जवाब चाहा।
‘‘गलती से वहीं डाल दिया।’’ मोहन ने जवाब दिया।
सेठ नाराजगी जाहिर करते हुए बोला-’’याद रखना अब से कभी भी भिखारियों की दी हुई चिल्हर गल्ले में नहीं डालना।’’
मोहन को लगा जैसे आज नया सबक मिला है। उसे क्या पता कि भिखारियों के पैसे और भले आदमियों के पैसे में भी अंतर होता है।


विष्णु कुमार श्रीवास
अमलीडीह, रायपुर
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