प्रधानमंत्री की कुर्सी कितने की ?
पार्टी-नेता का यह तीसरा चुनाव था। यानी वे तीसरी बार देश की सत्ता संभालने और प्रधानमंत्री बनने जा रहे थे। चुनाव अभियान में करोड़ों रुपयों की जरूरत होगी। जहां पिछली बार प्रेशरकूकर बंटे थे वहां अबकी कांजीवरम साड़ियों की मांगें हुई हैं। बच्चों में जहां साधारण बॉटा के जूते दिए गए थे वहां से आडीडास की फरमाइशें आई है। लड़कियाँ स्थानीय चमड़ी की नहीं
कोल्हापुर की चप्पलें पहनेंगीं। पुरुष 500 के नहीं 1000 के नोट से खुश होने की इच्छा जता रहे हैं। शराबी देशी रम नहीं जॉनीवॉकर से नशा चढ़ाएँगे।
एक तरीका सूझा। चुनाव में खड़े होने की टिकटों के लिए भीड़ पड़ी थी और मुंहमांगा रोकड़ा मिलने की संभावना तेज थी। पार्टी नेता ने दाम निर्धारित किए और एक सूची बनाई। टिकट पीछे एक करोड़। मंत्री बनना हो तो दो करोड़। कामधेनु मंत्रालय संभालने हों तो तीन करोड़। वित्त मंत्रालय पाना हो को चार करोड़। उप प्रधानमंत्री बनना हो तो पाँच करोड़। पर पिछली सरकार में रहे कुछ प्रमुख मंत्रियों ने आश्चर्य से पूछा “प्रधानमंत्री के पोर्टफोलिओ के दाम तो सूची में है ही नहीं!”
आधा नोट
महंगाई बढ़ गयी थी। वोटर अगले आम चुनाव में 500 के नोट के बदले 1000 रुपए की मांग कर रहे थे। पार्टी नेता ने न कह दिया तो था, पर बहस अभी बाकी थी। वे 500 पर ही अड़े हुए थे। लेकिन चुनाव जीतने के लिए वोटरों का यह नखरा उठा लेना ज़्यादा अक्लमंदी था, और फिर आठ सौ करोड़ एक सत्तासीन के लिए कौन सी बड़ी थी जो पहले ही दो आम चुनाव लड़कर देश संभाल चुका हो !
चुनावी अभियान के दौरान हज़ार-हज़ार रुपयों के नोट आधा-आधा फाड़ कर एजेंट आठ लाख वोटरों में बाँट चुके थे और बाकी का आधा, चुनाव में जीत के बाद देना तय हुआ था ! चुनाव आया और पार्टी की जीत भी हुई। आठ लाख आधे नोटों का वायदा फुर्र हो गया था। जनता का दबाव पड़ा पर कोई खास असर नहीं पड़ा। मायूस वोटरों को आखि़र अपने पड़ोसी से समझौता करने के सिवाय और कोई विकल्प न था।दो आधे नोटों का एक पूरा नोट बनाया और 500-500 का बखरा किया। पहली बार जनता पूरा वोट देकर हारी थी।
प्रेशरकूकर
चुनाव अभियान समाप्त हो गया था। जनता ने जिस सत्तारूढ़ पार्टी को समर्थन वोट दिए थे वह जीत कर सरकार का गठन कर चुकी थी। मगर राजनीतिज्ञों ने अपने वायदे पूरे नहीं किए थे। किसी को बिना ढक्कन का प्रेशरकूकर दिया था तो किसी को बिना प्रेशरकूकर का ढक्कन ! घरों में दाल नहीं गल रही थी इसी लिए सब को जरूरत थी एक प्रेशरकूकर की जिस का एक ढक्कन हो या एक ढक्कन जिस का एक प्रेशरकूकर हो ! वे तो छली थे कहां से लाते प्रेशरकूकर या कहाँ से लाते ढक्कन? आधा-आधा कर के तो बाँटा था। पर महिलाओं ने घर की दाल गला ही दी ! एक दिन इस पड़ोसन के यहाँ दाल गलती तो दूसरे दिन दूसरी पड़ोसन की दाल गलती !
हर साल चुनाव हो
पिछले पाँच वर्षों के दरमियान देश में तीन आम चुनाव आयोजित किए गए जब कि सिर्फ एक होना था। चुनाव आयोग यानी सरकार के ख़र्च भारी हो जाते हैं। बुद्धिजीवियों को तो हर बात की चिंता लगी रहती है। वे तो ऊपर दिवाल पर बैठे होते हैं जो जीता उधर लुढ़क लिए। पर सच में व्यापारी विशेष चिंतित रहते हैं। चुनाव के आयोजन में सरकारी ख़र्चों से अधिक इन का पैसा पानी की तरह बहता है! सत्तारूढ़ पार्टी को तो सहयोग देना ही देना होता है पर विपक्ष की छोटी-छोटी पार्टियों को भी खिलाना होता है। कौन किस से गठबंधन करे और सरकार बना ले यह किस को पता ?
पर आम जनता की खुशी का ठिकाना नहीं रहता। वह सोचती है कि रोज़ ही आम चुनाव हो ! ग्राम चुनाव हो। शहरों में म्युनिसिपल चुनाव हो। बेकारी और ग़रीबी में चुनावी समय में पाने का यही सब से अच्छा अवसर होता है ?
नेता पर जूते पड़े
अभी हाल ही में एक बड़े देश के नेता को एक प्रेस कान्फ्रेंस के दौरान एक प्रेस प्रतिनिधि ने उन पर जूता चलाया। नेता अभी जूते से बचा ही था कि रिपोर्टर ने अपना दूसरा जूता दे मारा। सारी दुनिया ने यह घटनादेखी। राजनेताओं को बड़ी चिंता हुई। तभी यूएन का अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन जीनिवा में लगा था कि मीटिंग के बाद ए ओ बी में इस पर बहसें हुईं। सभी देशों ने अपने-अपने विचार दिए। लगभग सभी देशों का मानना था कि पत्रकार कान्फ्रेंस रूम में बिना जूते के प्रवेश करें। पर भारत का विचार मान लिया गया और सभी नेताओं ने अपने-अपने देश में एक मंदिर का निर्माण शीघ्र करना तय किया!
राज हीरामन
त्रिओले, मॉरीशस
सम्प्रति-महात्मा गाँधी संस्थान की हिन्दी त्रैमासिकों ‘वसंत’ और ‘रिमझिम’ के वरिष्ठ उप संपादक