कृष्ण शुक्ल की कहानी- कोई एक घर

कोई एक घर


शनिवार होने के वजह से स्कूल आधे दिन का था। वैसे भी मिसेस मेहता का मन काम में नहीं लग रहा था। छुट्टी की घंटी बजते ही वे स्कूल से निकल गई।
शायद रवि आ गया हो ? आज ही तो आने को कह गया था। घर पर पहंुचकर उन्होंने दालान पर चावल साफ कर रही नौकरानी से रवि के आने के बारे में पूछा लेकिन नौकरानी का नकारात्मक उत्तर सुनकर वे पास पड़े मोढ़े पर बैठ गयी और रवि का प्रतीक्षा करने लगीं।
‘खाना लगाऊं दीदी ?’ नौकरानी ने उनसे पूछा।
‘नहीं, अभी कुछ देर में रवि आ जाएगा तब साथ ही खा लेंगे।’ उन्होंने अनमयस्कता से कहा। वैसे भी खाने के कौर पिछले दो तीन दिनों से उन्हें कांटे की तरह चुभते रहे है।
— रवि आज आने को कह गया था फिर अबतक आया क्यों नहीं ? शायद टेªन लेट गयी हो। उन्होंने अपने मन में उठे प्रश्न का उत्तर स्वयं ही दे दिया था। समय गुजारने के उद्देश्य से वे घर का निरीक्षण करने लगी। दीवारें सूनी थीं। कुछ फर्नीचर बेतरतीबी से यहां वहां फर्श पर बिखरे थे। इस घर में आये पूरा सप्ताह भी नहीं गुजरा था। शायद इसीलिए वे इससे पूरी मानसिकता से सम्बद्ध नहीं हो पायी थी। वैसे भी किसी नये घर से सम्बद्ध होने के लिए एक लम्बे समय की आवश्यकता होती है। घर का दालान, कमरे, खिड़कियां, दरवाजे से लेकर सीढ़ियां तक हर अंग अपने आप में अजनबीपन लिए होते है। पास पड़ोस के अनजान चेहरों से तादात्म्य स्थापित करने में लम्बा अवधि लगती है। फिर भी सारी बातें उनके लिए विशेष महत्व नहीं रखतीं क्योंकि यह उनका अपना घर है।
अपना घर- शायद इसे अपना कहने के लिए उनके पास बहुत कुछ था। इस घर के निर्माण में उनकी बरसों की उत्कट इच्छा समाहित थीं। जिसे बनाने में उन्होंने अपनी कमाई लगा दी है। गृहविहीन होने का कलंक उन्होंने हमेशा के लिए अपनी जिंदगी से मिटा डाला था। जिसका उन्हें महज अहसास ही नहीं था वरन् जिंदगी के नाजुक मोड़ में जिसे वे भोग भी चुकी थीं।
उन्हें लगा, जैसे रवि कुछ देर में आकर उनसे जाने के पूर्व छोड़ गए प्रश्न का उत्तर मांगेगा और जबरन आसमान से मांस के लोथड़े पर झपट्टा मारती चील की तरह उनके इस घर को ले उड़ेगा। तब इस घर को अपना कहने के लिये उनके पास कुछ नहीं बचेगा। वे उसी स्थिति में पुनः पहुंच जायेंगी, जिस स्थिति में वे कुछ दिनों पूर्व थीं।
उन्होंने दलान पर सूप में चावल फटक रही नौकरानी की ओर देखा। जिसके सामने कुछ हटकर एक गौरैया टुकुर-टुकुर उसकी ओर देख रही थी। वह कुछ आगे बढ़ने की कोशिश करती लेकिन सूप की फटकार के साथ फिर उड़कर पीछे जा पहुंचती थी। उन्हें अपनी स्थिति गौरैया की तरह लगी। वे जितना आगे बढ़ने का प्रयत्न करतीं, समय की फटकार उन्हें उतना ही पीछे धकेल देती थी।
उन्होंने प्रवेश द्वार की चौखट की ओर देखा जिसमें नवगृह प्रवेश के दिन लगाया आम के पत्तों का तोरण अभी भी सूखकर लटका हुआ था। फिज़ा में लोबान की महक अभी तक समायी हुई थी।- सब कुछ पिछले इतवार की बात तो थी। जब नवगृह प्रवेश के दिन जलपान के लिये आए मेहमानों से, जिसमंे रिश्तेदार, जूनियर अध्यापिकाएँ और शहर के गणमान्य लोग थे, सारा घर उल्लासमय हो गया था। बच्चों के रोने, चीखने और कमरों में पैरो की धमक से सारे घर में अजीब वातावरण निर्मित हो गया था। उनके लिए सब एक ऐसा नया अनुभव था जो पिछले वर्षों की शिक्षिका की नौकरी और स्कूल के सैकड़ों बच्चों के बीच रहकर भी उन्हें न हो पाया था।
रवि ने भी उस दिन जाने कितनी दौड़धूप की थी। अपने कुछ दोस्तों के साथ मिलकर उसने सारे मेहमानों की खातिर में कोई कसर नहीं छोड़ी थीं। किसी को भी शिकायत का कोई अवसर नहीं दिया था। उन्हें लगा जैसे रवि ने सारी दौड़धूप सिर्फ मेहमानों के लिए नहीं वरन् मां के वर्षों बाद सच हुए सपनों के लिए की थी।
अपना घर- मिसेज मेहता का सपना ही तो था, जो उनकी आंखें की पुतलियां में, उसी तरह के वर्षों से स्थिर था, जिस तरह किसी मरे हुए सांप की आंखों में मारने वाले की तस्वीर जो उसकी आखों में मरने से पहिले उतर आती है। शायद यह सपना उन्होंने उस दिन देखा था, जिस दिन पति का घर छोड़कर वे एक ऐसे चौराहे पर आकर खड़ी हो गयी थी। जिसकी एक सड़क उनके पिता के घर और दूसरी पति के घर की ओर जाती थी। लेकिन दो सड़कों के बारे में उन्हें कुछ भी मालूम नहीं था। वे इतना भर जानती थीं कि तीसरी सड़क के किनारे उनकी एक सहेली है जो किसी शिक्षण संस्थान में काम करती है। उन्होंने अपने कदम उधर ही बढ़ा दिये थे।
आश्रय के लिए क्षणभर को उन्हें पिता की याद भी आयी थी। लेकिन अग्नि को साक्षी देकर सारा जीवन साथ निभाने को संकल्प करने वाले पति ने जब साथ नहीं दिया तो कन्यादान के पश्चात् भारमुक्त महसूस होने और पति के घर को स्वर्ग समझने की सलाह देने वाले पिता कब तक सहारा दे सकते थे। लिहाज़ा पिता अथवा किसी अन्य रिश्तेदार के आश्रय की जूठों पत्तलों की ओर न ताकना ही उन्हें उचित जान पड़ा था।
जबतब वे सहेली के घर नहीं पहुंच गई, तब तक उनके मन में एक दहशत सी बनी रही। उन्हें लगता जैसे कोई रीछ पीछे से आकर उन्हें और रवि को घसीट कर पुनः उसकी खोह में ले जायेगा जहां से वे किसी तरह मुक्त होकर आयी थीं। रीछ के बारे में उन्होंने बचपन में न जाने कब सुन रखा था कि-रीछ जंगल में इक्की दुक्की औरत को पाकर अपनी खोह में उठा जे जाता है और फिर उसके तलवे चाटकर जख्मी कर देता है ताकि वह चल फिर न सके।
पति का घर–रीछ की खोह की तरह ही तो था। जिसमें वे रीछ के द्वारा बलात न ले जायी जाकर माता पिता की मर्जी से डोले में बिठाकर बाजे गाजे के साथ भेज दी गई थीं। तब उनकी आंखों में पति का प्यार, रूठने मनुहारने के सैकड़ों सपने बसे हुए थे। लेकिन कुछ ही दिनों में सारे सपने उसी तरह सिमट गये थे, जिस तरह मकड़ी का जाला उसकी मुंह से सिमट जाता है। उन्होंने जब देखा कि पति की जीवन-संगिनी की नहीं वरन् समाज में अपनी प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिए एक ऐसी औरत की जरूरत थी जो लेागों की जु़बान बंद रखने के लिए ताले की तरह प्रयुक्त हो सके। पति ने उन्हें कुछ दिया तो वे थी निरन्तर-उपेक्षाएँ-क्योंकि उसके मन में पत्नी के स्थान पर कोई और प्रतिष्ठित थी।
घर के सदस्यों द्वारा डाले गये मोटी तहों वाले पर्दें और कमरों की दीवारों को भेदकर सारी बातें उन तक पहुंचने में समय लगा था। शायद इसीलिए शुरू में उन्होंने पति द्वारा बरती जा रही उपेक्षाओं को विशेष तूल नहीं दिया था। लेकिन ऐसी बातों को ढंककर रखा जा सकता हैं ? पर्दे की तहें कुछ ही दिनों में झिलझिली और दीवारें पोली हो गई थीं।
उन्हें जबतक सारी बातें स्पष्ट हुई, तब तक उनकी गोद में रवि आ चुका था। एक ऐसे पिता का पुत्र जिसे पिता की गोद कभी नसीब नहीं हुई। पिता ने जिसे कभी चुमकारा नहीं। जिसकी पेशानी बाप के होंठों के स्पर्श से सदा वंचित रही।
परिवार के लोगों ने भी उसी तरह के व्यवहार किये, जिस तरह पति के द्वारा उपेक्षित पत्नी से किया जाता है। भद्दी से भद्दी गालियां और ताने सुनना उनकी दिनचर्चा में शामिल हो गये थे। भोजन के नाम पर कुछ रूखा सूखा डाल दिया जाता और सारे दिन नौकरानी की तरह काम लिया जाता था। जिस पर भी वे न कभी रोयीं न चिल्लायीं और न किसी से शिकायत की। किसी बंधी नदी के जलाशय की तरह हमेशा ही शांत रहीं।
लेकिन जलाशय का पानी उस दिन खौलने लगा और बांध की दीवारों के परखच्चे उड़ गये थे। तब रवि बीमार था। ज्वर की तपन में छटपटाते और भुने मांस के लोथड़े की तरह झुलसते रवि की देह को वे सारी रात सीने से लगाये पड़ी रही परंतु परिवार की किसी सदस्य ने उनकी ओर न तो आंखें उठाकर देखा और न ही किसी चिकित्सक को बुलाकर रवि को दिखाया।
सुबह होने पर वे स्वयं उसे लेकर सरकारी अस्पताल न गई होती तो आज तक रवि की नाजुक हड्डियां किसी मरघट की मिट्टी की तह में दबी गल चुकी होतीं। अस्पताल से लौटती हुई वे मन में घर छोड़ने का निश्चय कर चुकी थीं। रवि के स्वस्थ होने पर जब वे घर छोड़ने लगी थीं तब उनकी आँखों में समायीं दृढ़ता को देखकर कोई भी उन्हें रोकने का साहस नहीं कर पाया था।
शायद औरत होने की वजह से उनकी सहेली ने उनके दुख को अच्छी तरह समझा था। उसने न केवल उन्हे सांत्वना दी वरन् जीविका – उपार्जन के साधन प्राप्त होने तक अपने घर में आश्रय भी दिया। तत्पश्चात् जिस शिक्षा संस्थान में वह शिक्षिका थीं, वहीं शिक्षिका की नौकरी प्राप्त करने में उन्हें मदद भी की।
नौकरी और शिक्षा संस्थान की ओर मिले दो कमरों के छोटे से क्वार्टर से उनकी गुजर बसर एवं आवास की चिंता हल हो गयी थी। घर के काम और पुत्र की देखभाल के लिये उन्होंने एक नौकरानी तय कर ली थी। जिसके पास दिन में पुत्र को छोड़कर वे स्कूल जातीं और शाम को भरा हुआ सीना लिये लौटती तो पुत्र को सीने से चिपटा लेती थीं। सीने से पुत्र को लेकर अंर्तद्वन्द हमेशा उनके अचेतन में चलता रहता था और मन रस्से पर चलती नटिनी की तरह अनिश्चय की डोर में दांयें बांये डोलता रहता था।
–रवि से उन्हें बेहद मुहब्बत थी क्योंकि उन्होंने अपनी कोख में उसे नौ महीने खून पिलाया था। रवि से उन्हें सख्त नफरत थीं क्योंकि वह एक ऐसे कमीने आदमी की औलाद थी, जिसने उन्हें किसी बाजारू औरत की तरह खेलकर छोड़ दिया था। फिर अय्याश आदमी की तरह पलट कर भी नहीं देखा कि उसके शरीर का कतरा किस गटर में पड़ा हैं। ऐसे अवसर पर रवि के चेहरे में वे क्या दंेखती कि उनकी भरी हुई छातियां सूख जाती थीं। उन्हें अपनी देह के हर हिस्से से घृणा की लहरें उठती हुई महसूस होती थीं और रवि उस बच्चे की तरह घृणित लगने लगता था, जिसे कोई कुंवारी मां लोगों की आंखे बचाकर अनजान चौखट पर डाल जाती है।
रात के अर्न्तद्वन्दों की छाप उन्होंने कभी दिन पर नहीं पड़ने दी। हर सुबह के साथ उनके जीवन में संघर्ष का एक दिन शुरू होता था। वे सारे दिन कक्षाओं में मेहनत से बच्चों को पढ़ातीं और खाली समय शैक्षणिक योग्यता बढ़ाने के लिए अध्ययन करती थीं। कुछ वर्षों की लगन एवं परिश्रम से उन्होंने शिक्षा, इतिहास और हिन्दी साहित्य में स्नातकोतर उपाधियां अर्जित कर लीं। जिस शिक्षण संस्थान की प्रायमरी कक्षाओं में अध्यापन से उन्होंने अपना नवजीवन प्रारंभ किया था, वहीं वर्षों में वे हाईस्कूल की प्राचार्य हो गई। चेहरे में हमेशा मुस्कुराहट लिए मेहता दीदी से गंभीर, अल्पभाषी मेहता मैडम हो गई। जिनसे दृष्टि मिलाने का साहस पुरानी अध्यापिकाएँ भी नहीं कर पाती थीं। दो कमरे वाले छोटे से क्वार्टर छोड़कर प्राचार्य के बंगले में आ गयीं।
रवि की ओर से भी इस अवधि में वे कभी उदासीन नहीं रही। उन्होंने उसकी शिक्षा का विशेष ध्यान रखा। कोई उसे बिना बाप की औलाद न कहे इसलिए मांग में सिंदूर और हाथों में चूड़ियां सहेजे रखा। ज्वर से पीड़ित रवि को गोद में लेकर मन में जो संकल्प कभी उन्होंने किया था, उसे पूरा किया। फलस्वरूप कल का नवजात रवि आज शहर का प्रसिद्ध बाल – विशेषज्ञ डाक्टर रवि मेहता हो गया था।
समय ने जहां उन्हें इतना कुछ दिया, वहीं उन पर कुछ छाप भी छोड़ी थी। उनके स्याह वालों में कई स्थानों पर सफेदी उतर आयी थी। आंखों में मोटे फ्रेमवाला चश्मा चढ़ गया था। माथा, गाल और गले की चमड़ियों में झुर्रियां पड़ गयीं थी और पीठ पर छोटा सा कूबड़ आया था।
उनकी जीर्ण अवस्था को देखकर एक दिन रवि ने उनसे कहा- मां, अब मैं कमाने लगा हूँ। तुम्हें नौकरी छोड़कर आराम करना चाहिए। पुत्र के मंुह से इतना सुनना उनके लिए आंशिक तृप्ति का क्षण भर था। एक क्षीण मुस्कान उनके चेहरे पर क्षणभर के आयी। न जाने कितने वर्षों से इन शब्दों को सुनने के लिए उनके कान आतुर थे। लेकिन कुछ ही पल में चेहरे पर उभरा सुकून लोप हो गया था।
दूसरे दरजे में लम्बी यात्रा कर चुके यात्री से जिसे मंजिल में पहुंचने के लिए कुड घण्टे औश्र शेष हों, कोई कहे कि आप बहुत थक गए हैं, अब आप प्रथम श्रेणी में आ जाइये, तब लम्बी यात्रा के दौरान दूसरे दरजे में व्यवस्थित हो चुका यात्री, जिस तरह की असुविधा महसूस करता है कुछ उसी तरह की असुविधा उन्होंने रवि की बातों से महसूस की थी। पुत्र को उन्होंने हां अथवा ना में स्पष्ट उत्तर देने की बजाय इतना ही कहा था कि बेटे अध्यापन मेरे लिए मात्र रोजी कमाने के जरिया ही नहीं वरन् एक साधना भी है और कोई भी साधना बीच में नहीं छोड़ी जाती। रवि निरूतर हो गया था।
एक दिन उन्होंने रवि से घर बनवाने के संबंध में अपनी इच्छा व्यक्त की। एक बड़ी राशि उन्होंने अपनी भविष्य निधि से निकालकर बैंक मंे जमा कर ली थीं। ‘मां, मैं जिस तरह की नौकरी में हूँ, उसमें न जाने भविष्य में कहां कहां भटकना पड़े। ऐसी स्थिति में तुम्हें अकेली तो मैं छोडूंगा नहीं, अपने साथ लिये जाऊंगा। फिर मकान बनाने की झंझट में क्यों पड़ती हो।’ उनसे रवि ने कहा था। फिर उनकी आंखों में उसे न जाने क्या दिखा था कि वह चुप हो गया था।
‘कुछ कार्यों के पीछे महज उद्देश्य न होकर वर्षों की भावनाएं भी हुआ करती हैं बेटे।’ उन्होंने रवि से कहा था। कुछ दिनों के पश्चात् स्वयं रवि ने एक बिकाऊ जमीन के बारे में उन्हें बताया जिसे उन्होंने खरीद लिया। फिर घर बनाना प्रारंभ हुआ और इसके साथ ही उनकी दिनचर्चा में हर सुबह बन रहे घर को देखने जाना और जुड़ गया। नींव की खुदाई से लेकर छत पर क्रांकीट डालने के कार्य के बीच शायद ही दिन ऐसा गया हो, जब वे वहां से अनुपस्थित रही हों।
घर के बनने और नवगृह प्रवेश के बीच के समय में शायद एक दिन भी ऐसा नहीं गया था जब उन्होंने रवि से उसकी सज्जा, आंगन में लगाये जाने वाले पौधे आदि को लेकर बातचीत न की हो। सूनी रातों में वे घंटो अकेली जागकर नवगृह प्रवेश के दिन आमंत्रित किये जाने वाले मेहमानों की सूची बनाती रही थीं ताकि कोई परिचित छूट न जाए। उनके मन की तहों में सोयी वर्षों पुरानी परम्परायें उन दिनों जाग गई थीं। उन्होंने पूजा-हवन आदि के न जाने कितने कार्यक्रम तय कर रखे थे। जिसकी व्यवस्था की जिम्मेदारी रवि पर थी। आधुनिक परिवेश में रवि को कभी कभी लगता, जैसे मां के द्वारा किये जा रहे ये सारे खर्च अनावश्यक हैं लेकिन उनकी सम्मोहित आंखों को देखकर वह कुछ भी कहने का साहस मन में बटोर पाता था।

नवगृह प्रवेश का दिन बीते दो दिन हो चुके थे। पिछले दिनों की शारीरिक एवं मानसिक थकान से कुछ स्वस्थ महसूसती मिसेज मेहता लान पर कुर्सी डालकर संध्या में बैठी हुई थीं। तभी उल्लासित सा रवि आया।
‘क्यों क्या बात है। आज बहुत खुश हो ?’ उन्होंने रवि की ओर देखकर पूछा।
‘माँ, मैं ही नहीं तुम भी खुश होगी यदि यह जान लोगी कि बच्चों की बीमारियों से संबंधित सेमिनार में मैं कल दो दिनों के लिए दिल्ली जा रहा हूँ। पूरे प्रान्त का हमारे अस्पताल के ही दो लोग प्रतिनिधित्व कर रहे हैं’’। रवि ने कहा था।
‘निश्चय ही खुशी की बात है। तेरे साथ दूसरा कौन जा रहा हैं ?’
‘अपने अस्पताल की ही डाक्टर है अंजली शाह। तुम उससे मिलेगी मां ?’
‘हाँ–हाँ–तुम कहोगे तो जरूर मिल लूंगी। क्या वह भी बच्चों की डाक्टर है ?’
‘हाँ, वैसे देखने में वह खुद बच्ची लगती है। मुझे विश्वास है कि उससे मिलकर तुम जरूर खुश होगी। अभी अस्पताल में ही होगी। मैं फोन से कह देता हूँ कि तुमने उसे रात में खाने पर बुलाया है। यहां आने पर कल के बारे में उससे बातें भी हो जायेंगी।’

‘माँ तुम्हें वह कैसी लगी ?’ रात में डाक्टर अंजली के जाने के बाद रवि ने उनसे पूछा था।
‘अच्छी है।’
‘हमारी टेªन सुबह करीब चार बजे जाती है। और…….माँ, मैंने अंजली से विवाह करने का निश्चय किया है। तुमसे आशीर्वाद मैं दिल्ली से आकर लूंगा।’
‘……’
‘अच्छा मां गुड नाइट।’
‘गुडनाइट–‘उन्होंने धीरे से कहा और अपने कमरे में जाकर सोने का प्रयत्न करने लगी। नींद सारे दिन की थकान के बावजूद उनकी आंखों से दूर थी। रवि जब प्रातः घर से जा रहा था तब भी वे जाग रहीं थीं। लेकिन वे कमरे से बाहर नहीं निकली। उन्हें उनींदी आंखों में देखकर कहीं वह चिंतित न हो जाये। वैसे भी वे मन में उभरी उदासीनता से रवि को अवगत कराना नहीं चाहती थीं।
रवि चला गया था और उसके साथ ही उनके मन का सुकून और आंखों की नींद भी चली गई थी। वे बार बार सोचती रहीं कि रवि को आने पर क्या कहेंगी। यदि वे रवि को विवाह के लिये मना करती है तो हो सकता है रवि उनकी बात नहीं माने तब वह उन से दूर हो जाएगा और स्वीकृति देने पर उनका यह घर रवि और अंजली का हो जायेगा। तब वे अपने घर में ही मेहमान हो जायेंगी और उनके मन में समाया अपना घर खंड खंड होकर बिखर जायेगा। रवि ने उन्हंे समझने की कोशिश क्यों नहीं की ? उन्हें अपनी समझ पर हंसी आने लगी थी-आखिर लोग सुनेंगे तो क्या सोचेंगे। बाल बच्चों की ब्याह शादी की बातों से तो मां बाप खुश होते हैं। फिर उनके मन में इस तरह की भावनायें क्यों आ रही हैं ?
वे अपने प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं तलाश पातीं। उन्हें लगता है, जैसे अचानक कोई अंधड़ आकर घर की क्रांकीट की छत उड़ा ले जायेगी और दीवारों को भरभरा कर गिरा देगी। तब अपना कहने के लिये घर के नाम पर खाली जमीन और उसमें पड़ा मलबा भर रहा जायेगा। जिस खोह से कभी वे जान-बचाकर भाग आयी थीं, उसी खोह का रीछ रवि की खाल ओढ़े उन्हें ढूंढता हुआ आ पहुंचेगा और खुले मैदान से उन्हें घसीटता हुआ पुनः अपनी खोह में ले जायेगा और पैरों के तलवे चाटकर फिर कैद कर लेगा। चावल साफ करने के बाद नौकरानी अंदर चली गयी थी। कुछ टूटे चावल फर्श पर बिखरे पड़े थे। उस क्षण की प्रतीक्षा में न जाने कब से खड़ी गौरेया चावल के दानों की ओर लपकी। उसने चावल के कुछ दाने चुगे और उड़कर पास के एक पुराने वृक्ष में बने घोंसले की ओर जा उड़ी। कुछ देर के लिये गौरये के बच्चों के शोर से दोपहर की खुश्क खामोशी भंग हुई। बच्चों को दाने खिलाकर गौरेया पुनः लौटी और चावल के कुछ दाने चुगने के बाद फिर घोंसले की ओर जा उड़ी। घोंसले से बच्चों को शोर उभरा। उन्हें लगा, जैसे गौरेया का सारा अस्तित्व घोसले में दुबके बच्चों में सिमट गया है। गौरेया-बच्चे-रवि सब कहीं से आकर एक जगह इकट्ठे हो गए थे।
अचानक उन्हें क्या सूझी कि नौकरानी से मुट्ठी भर चावल मंगाकर फर्श पर बिखरवा दिये और तन्मयता से गौरेया की ओर देखने लगीं, जो दाने चुगती, घोंसले में जाकर बच्चों की खिलाती और लौट आती थी। उनकी आंखों में पिछले दो दिनों से समाया रीछ कहीं अदृश्य हो चुका था। उन्हें लगा, जैसे गौरेया के मासूम चेहरे में रवि का चेहरा उभर आया है और आंखों में सारा घर सिमट गया है। पिछले दिनों के तनावों से मुक्त महसूसती वे बेकली से रवि की प्रतीक्षा करने लगीं।