आलेख-नारी के आसपास-नवल जायसवाल

नारी के आसपास


नारी सृष्टि का प्रतीक है जो पृथ्वी के उद्विकास की विभिन्न अवस्थाओं एवं अवधारणों का बखान करता है। आग का गोला थी, जलमग्न हुई और धरती के पावन स्वरूप, मिट्टी का अस्तित्व प्रकाश में आया।
नये जीव जलचरों की विभिन्न प्रजातियांे की श्रृंखला ने अपने अस्तित्व की नींव रखी और कालान्तर में जाकर यही प्रजाति मानव के स्वरूप को संवारने में सफल हुई।
महादेव ने विष्णु की रचना की, विष्णु ने ब्रहा की उत्पत्ति का श्रेय पाया और अपने वरिष्ठों की आज्ञा को शिरोधार्य कर सृष्टि की रचना में संलग्न हो गये। बिना नारी के मानव जैसे क्रीचर को निरन्तरता नहीं दी जा सकती थी अतः उन्होंने पुरूष के साथ ही नारी को भी अस्तित्व में लाने का उपक्रम किया।
समस्त विश्लेषण का यही सार है कि समस्त दृष्टि से अवलोकन किया जाय तो नारी और पुरूष एक दूसरे के पूरक हैं। अर्धनारीश्वर इस तथ्य का प्रतीक है जो एक शाश्वत मूल्य है। मनुष्य पुरूष के रूप में आ तो गया और उसे इस बात का विश्वास हो गया कि नारी अपने स्वयं के बल पर निरन्तरता नहीं पा सकती है। इसी अहं से आरम्भ होता है नारी का शोषण और पुरूष का आतंक। उसने आते-आते नारी को अनेकों रूपों में देखा, परखा और सदुपयोग-दुरूपयोग सब कर डाला। नारी शक्ति को प्रश्रय देने का अर्थ यही मान लिया गया कि उसे कभी स्वतंत्र करना ही नहीं है। शारीरिक आधिपत्य की चर्चा तो छोड़ ही दें तो अपनी मातृभूमि के साथ भी खिलवाड़ करना आरम्भ कर दिया। भारत की धरती, एक विश्वास, आस्था और संस्कारों को आधार मान कर सामाजिक, आर्थिक संरचना में तल्लीन थी, को दूसरों के हवाले करने का सिलसिला आरम्भ हो गया। इसका नतीजा यह हुआ कि इस्लाम और ईसायत के पांव भारत में जम गये। देश स्वतंत्र तो हुआ किन्तु आधार धर्म का रहा। भारतीय संस्कृति को धर्म का नाम दे दिया गया। मैं आज इस बात को स्वीकार करने को तैयार हूँ कि आज इसकी अनिवार्य प्रासंगिकता नहीं है किन्तु स्मृति-पटल अपना काम तो करेगा। कभी इस बात की कल्पना अवश्य करिए कि राजस्थान में सैकड़ों नारियाँ अपने आप को अग्नि के हवाले कर दिया करती थीं, प्रसंग है गांधारी जैसी, नारियाँ उसी प्रदेश से आया करती थी, जहाँ आज इस्लाम नाम की संस्कृति पनप रही है। महात्मा बुद्ध की प्रतिमाओं को तोड़े जाने का कुकृत्य बहुत पुराना नहीं है। मेरा यह मानना है कि पूरे विश्व में धर्म नाम की कोई वस्तु नहीं थी, थी तो केवल एक आराधना अपने-अपने ईष्ट के वलय में प्रवेश कर जन्म-मरण से मुक्ति पा जाने की लालसा अर्थात् प्रजनन क्रिया को सीमित कर देने की एक पहल।
यदि यह क्रिया सफल हो जाती तो इस जनसंख्या वाले प्रदूषण से हम बच जाते और भू्रण हत्या की हमारी मानसिकता पल्लवित नहीं होती।
ये सारे तथ्य और कोई नारी शक्ति अर्थात् सृष्टि की भलाई के लिए, उसके हित में प्रस्तुत किए जाने वाले उपाय थे किन्तु हमारे अहं ने शक्ति को पहचानने की आवश्यकता के विवेक को ही नष्ट कर दिया। अपना आधिपत्य बना रहे, नारी अपना विकास मनुष्य की सीमा में रह कर करें और भारत पर आक्रमण करने वालों की कुदृष्टि भारतीय नारी के सौन्दर्य पर न पड़े, इसी विडम्बना ने उसे परदे के अन्दर ढकेल दिया। उस पर किए जा रहे उत्पीड़न ने ही झांसी की रानी, अवन्ती बाई, दुर्गावती आदि को अपने बन्धनों को तोड़कर, कुचक्रों से लड़ने के लिए, समाज में आगे आना पड़ा। अनेकों उदारहण हैं, अनेकों घटनाएँ हैं, अनेकों कहानियाँ हैं।
बीसवीं सदी के आते-आते परदे का पालन कम होने लगा। नारी ने अपना स्थान पुनः प्राप्त करने का संकल्प दुहराया। उसने कला और संस्कृति को सबसे पहले अपना कार्य क्षेत्र माना। समाज सुधार और राजनीति में आने के लिए उसे थोड़ा समय लगा। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई इस संग्राम का आगाज कर चुकी थीं। अंग्रेजों को बाहर कर देने का समय आ गया था और समाज के हर वर्ग ने इस आंदोलन को अपना लिया था। सारे देश में आजादी पाने की लालसा और अधिकार ने सर्वोच्च स्थान पा लिया था।
नारी वर्ग ने अपनी अनेक शाखाओं का विस्तार किया, अपने उत्कर्ष के नये माप-दण्ड आरम्भ किए और समाज में अपनी बढ़त के ग्राफ को ऊँचा किया। उसने हर क्षेत्र में पुरूषों से कंधा ही नहीं मिलाया बल्कि उससे आगे निकल जाने को एक आधुनिक चुनौती भी मान ली। सर्व विदित है चुनौती, लक्ष्य पाने का एक माध्यम भी है। हमारे उत्कर्ष का सबसे बड़ा, महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक कार्य था अन्तरिक्ष में जाना और भारतीय नारी ने इसे स्वीकारा और सम्पादित भी किया किन्तु नियति अपना खेल खेल गई।
समाज में कसैलापन सदैव साथ आता रहा है। पुरूष समाज ने अपने आप को नारी समाज की प्रगति के पीछे लगा दिया और उससे कुछ घृणित कार्य भी करना डाले। उनकी सूची पर फिर कभी चर्चा करना चाहूँगा। मैं एक कलाकार हूँ अतः नारी जाति के समस्त विकास और पवित्रता का पक्षधर ही रहना चाहूँगा। ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं कि नारी ने नारी को ही प्रताड़ित किया है किन्तु ये सब उँगलियों पर गिने जाने वाले उदाहरण होंगे। हमारे लोकतंत्र ने इस ओर ध्यान तो दिया है किन्तु वह अपर्याप्त हैं। सच कहा जाय तो उसने लोकतांत्रिक पद्धति को चकनाचूर कर दिया और अमानवीय विसंगतियाँ पैदा कर दीं। नारी सुरक्षा आज ऊँट के मुँह में ज़ीरे के समान है। प्रत्येक मानव के आस-पास मां-बहन-बेटी-पत्नी-मित्र आदि भूमिकाएँ बिखरी पड़ी हैं किन्तु वह अपनी लोभी प्रवृत्ति की पूर्ति के लिए सब भूल जाता है और कलयुग की परिणिति, अपनी स्वयं की अबोध, बच्ची के साथ कुकर्म करने से भी नहीं चूकता है। गाथा यहीं आकर नहीं खत्म होती है आगे बढ़ जाती है, इसे रोकने के लिए समर्थ और सार्थक प्रयास करने होंगे, प्रशासन में बैठे लोगों के अलावा अन्य समुदायों को भी करना होगा।
पुलिस और प्रशासन की भूमिका संदिग्ध होती जा रही है। आज हर आदमी थाना जाने से डरता है। न्यायपालिका भी स्वयं के कटघरे में आती जा रही है। न्याय समाज से दूर होता जा रहा है। शीर्ष में बैठे लोगों ने अपने आप को बड़े-बड़े घोटालों से बचा रखा है। हम नहीं जानते वे घपला कैसे करते हैं और किस प्रकार बच जाते हैं। यह ऐसा समीकरण है जो नारी की अस्मिता से दूर नहीं है। जन प्रतिनिधियों का उत्तरदायित्व है कि वे इन अनियमितताओं पर स्थायी अंकुश लगायें तभी जननि को जनने दो और जननि को जीने दो जैसी कविता अपनी फुलवारी बचा सकेगी। नारी सब जगह अपने आप को श्रेष्ठ तो साबित कर सकती है किन्तु अपने शारीरिक गठन का क्या करे। अपने लालित्य के कारण वह कमज़ोर हो जाती- ऐसे समय में मनुष्य अपने कुचक्रांे के सहारे जीत जाता है। वह ऐसे दांव चलता है कि नारी उसके जाल में फंस जाती है और विवश होकर आत्म समर्पण कर ही देती है।
मनुष्य नामक प्रजाति को अपने आप में बदलाव लाना होगा और इसकी सम्भावना क्षीण ही दिखाई देती है। वह अपने स्वार्थ के लिए अश्वत्थामा बन जाता है और अपने कलुषित ब्रहास्त्र यानि सोनोग्राफी के माध्यम से भू्रण हत्या कर डालता है। ऐसी परिस्थिति में नारी न तो जननि बन पाती है और न ही माता, उसे मिलती है एक सूनी और सूखी कोख। वह अपने मातृत्व के अधिकार से वंचित हो जाती है। निःपुती होने का कलंक उसके माथे पर जड़ दिया जाता है। सभी जानते हैं इस अपराध के पीछे किनका हाथ होता है।
रही बात धनाढ्य बनने की तो इस लालच ने पुरूष ही नहीं नारी को भी पतिता बनाने से नहीं बख़्शा है, उसे भी शिकार होना पड़ा, राजनीति की तो बात ही नहीं करिए उस जगह कुछ नारियों ने तो, सीमा तक लांघ डाली। मीडिया और फिल्मों ने भी नारी को विकृत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। टी.वी. के माध्यम ने तो चौके-चूल्हे तक अतिक्रमण कर डाला है। सेन्सरशिप नाम की वस्तु अधिनियमों में दूर दूर तक दृष्टिगोचर नहीं होती है। सरकारें भी इस सोच को न जाने कहाँ ले जाकर रख देंगी। वही पलाश के तीन पान।
कोयला कितना अच्छा होता था/ घिसने के काम आता था/हमने सब उसे/अपने जीवन से हटाकर/संग्रहालय में रख दिया है………
किन्तु यह सब अन्तिम नहीं है, हर रात के बाद सबेरा है, फिज़ाँ बदली है, और बदलेगी, मैं वही सब पाने का सपना देख रहा हूँ…….
उस नारी के एक रूप को/प्रस्तर की मूर्ति बना/विधवा के कपड़े पहना दिए/जु़र्रत तो देखिए/हाथ में तराज़ू तो दी /लेकिन/आँखों पर काली पट्टी बांध दी/न्याय नेपथ्य में चला गया/मैं इस नारी में अग्नि देखना चाहता हूँ/आँखों की पट्टी खोलना चाहता हूँ/उसके हाथ की तराजू़ को हिलाना चाहता हूँ।
मैं दृश्य विधा से आने वाला कलाकार हूँ। जननि के आसपास रह कर कुछ व्यक्त करने का प्रयास करता रहा हूँ- उनसे कुछ शब्द बच जाते हैं उन्हें संग्रहित करने का नाम नवल है। इसी आशय के साथ कि हम जागें, आप जागें, समस्त समाज जागे और तब तक जागते रहें जब तक………….यही तो आपको सोचना है और करना है। मैं अपने बारे में इतना बता दूँ कि मैं इस आशय का पालन करता हूँ जो अभी अभी आपने सुना-पढ़ा। आइये जननि को जीने दें।
सादर………………।

नवल जायसवाल
प्रेमन,
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