यह तकनीक ही है जिसने कई कथा रूपों और कहन की शैली को जन्म दिया है. आत्मकथात्मक, विवरणात्मक, चित्रात्मक, वर्णनात्मक इत्यादि. जब बच्चों के लिए कथा लेखन की बात आती हैं तो यह प्रश्न अत्यंत गंभीर हो जाता हैं, क्योंकि बच्चों अथवा युवा पीढ़ी या वैसे पाठक जिनमें आप साहित्यिक संस्कार डालना चाहते हैं- कैसी भी रचना उन्हें नहीं परोस सकते, चाहे उस रचना को नोबेल पुरस्कार ही क्यों न मिला हो. ऐसा क्या है जिस पर गंभीर विचार आवश्यक है, या यह जानना कि बच्चों या युवा पीढ़ी या नये पाठकों का ‘टेस्ट’ क्या हो सकता है.
यहां मैं कहानी के दो मुख्य रूपों का जिक्र करना चाहूंगा – वे कहानियां जिनमें वास्तविकता हों, और वे कहानियां जो चित्रण प्रधान हैं.
कथा या कलाएं हमारे जीवन या इस संसार की प्रतिकृति ही हैं- अनुकृति नहीं. हम जीवन का हू-ब-हू फोटो खींच सकते हैं पर वो शायद अच्छी कला रूप नहीं हों, या कलारूप हो ही नहीं. प्रतिकृति इसलिए कि एक पेड़ जैसा है- जैसा दिखता है वैसा हू-ब-हू चित्रित किया जा सकता हैं ना यह संभव है ना ही आवश्यक. कैमरा भी इनकी तस्वीर कैद करता है तो वह तब-तक ‘आर्ट’ का रूप नहीं लेता जब-तक कि उसमें ‘मानवीय स्पर्श’ न हो. अतः कलाएं नकल होते हुए भी उस तरह की नकल नहीं होतीं. यह रचनात्मकता नकल होती हैं और इसे प्रतिकृति कहना ज्यादा उचित है. प्रतिकृति अर्थात् कलाकार की कोशिश से एक लघुतम संसार की रचना, समानांतर दुनिया का रचाव!
अब इस दुनिया के विषय हम तक किस तरह पहुंचते हैं ? पेड़ हम सब देखते हैं, अर्थात् आखें यहां काम करती हैं. उसी तरह अन्य इन्द्रिय सक्रिय हैं- देखना, सुनना, चलना, सूंघना, स्पर्श! यह अलग बात हैं कि आखें, देखती तो हैं, मगर दृष्टि कौन देता हैं ? कान सुनते हैं मगर अर्थ कौन देता हैं ? स्पर्श, कोमल या कठोर हम महसूस करते हैं पर इस संवेदना को हम तक पहुंचाने वाला कौन हैं ? स्वाद हम चखते हैं मगर अच्छे-बुरे का ख्याल रखने वाला हमारे भीतर कौन हैं ? हमारा मस्तिष्क, शिराएं, धमनियां, आत्मचेतना, हमारे प्राण ? बात बहुत गहरी होती जाती है. यह पेड़ है. कौन सा पेड़ ? साल का वृक्ष! इसके पत्ते चैड़े हैं. इसका रंग हरा हैं. वृक्ष घना है.
यह दृश्य है जो हम सब देखते हैं. हम तर्क नहीं करते. हम यहां कोई सवाल नहीं करते- यह क्यों हैं, यह हरा क्यों हैं, घना क्यों हैं. छोटा क्यों नहीं…. ! साहित्य या कला रूप प्रारंभिक सूचनाओं का केंद्र भर नहीं है. पेड़ सभी देखते हैं मगर जिसमें दृष्टि हो, जिसमें ‘देखने’ का नया अर्थ अथवा ‘एंगल’ हो वही प्रसंग साहित्य के दायरे में आएगा.
अब यह दृष्टि कहां से आती है. कल्पना! मेधा या और कुछ! मनुष्य की कल्पना शक्ति अपरिमित है. और इसी ने हमारी दुनिया को आबाद किया हैं- इसमें शक नहीं. महान् वैज्ञानिक आंइस्टीन कल्पना को मेधा से हमेशा ऊंचा दर्जा देते हैं. वे कल्पनाशील थे, स्वपनदर्शी थे तभी हकीकत में महान् आविष्कार कर पाए. अब इस पर विचार करना गैर प्रासंगिक होगा कि हमारी कल्पनाएं कहां से उद्भूत होती हैं- उसके प्राण कहां हैं. उसकी शक्ति कर स्त्रोत क्या है. जैसे पेड़ देखने के लिए आंखे एक ‘टूल्स’ मात्र है, उसी तरह मस्तिष्क स्वप्न देखने का एक ‘डिवाइस’ मात्र हैं.
फिलहाल, प्रश्न ये है कि कहानी में तकनीक कहां, कैसे प्रयोग किया जाए कि बच्चों के लिए, युवाओं के लिए और परिपक्व पाठकों के लिए पठनीय रचनाएं सृजित हों. बच्चों का मामला बहुत गंभीर है- क्योंकि इन बच्चों में ही कल्पनाशक्ति ज्यादा से ज्यादा उद्भूत करने का माकूल समय होता हैं, उनमें संस्कार और शिक्षा के बीज अभी ही डाले जाने का उपयुक्त समय है. और यह काम जितना बेहतर ढंग से कथाएं कर सकती हैं. दुनिया की कोई पाठशाला या विश्वविद्यालय यह करने में अक्षम हंैं.
अब प्रश्न हैं बच्चे क्या पसंद करते हैं – देखना, सुनना या पढ़ना. या इस तरह का पाठ कि सुनने जैसा प्रतीत हो. सवाल का उत्तर लम्बे विमर्श की मांग करता है. यह इसलिए भी कि अपनी भाषा, संस्कृति, या ज्यादा व्यवहारिक रूप से कहें तो आज का बच्चा ही कल हमारे गंभीर विषयों का पाठक होगा, या इस मिट्टी की धरोहर होगा- अतः इस पर विचार करना भी एक कर्तव्य होता है. आधुनिक साहित्य की सैकड़ों पत्रिकाएं / किताबें सात समुंदर पार की क्रांतियों का झण्डा लहराती हैं, मगर इन्हें अपने जमीन के नीचे की खाई नहीं दिखती. उन्हें एक चीज बड़े रचनात्मक रूप से करना आता है- टेसुएं बहाना! पाठक नहीं रहे. आधुनिक साहित्य तो बिरलों के लिए है. आदि…
संभवतः विज्ञान भी इस तथ्य से वाकिफ हो कि बच्चों में कल्पनाशक्ति अपरिमित होती है, जब कि तार्किक शक्ति लगभग शून्य! जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है यह मात्रा एक तरफ घटती और दूसरी तरफ बढ़ती जाती हैं, अर्थात् कल्पनाशक्ति क्षीण और उसकी जगह संसार का तर्क और तथ्य स्थान लेते जाते हैं. कल्पनाशील व्यक्ति तार्किक हो जाता है. यह स्वाभाविक है. यही गति हैं. (अपवाद छोड़ दें)
बच्चे गहरे और चटख रंग पसंद करते हैं. उनकी कथा में चरित्र स्पष्ट और गहरे रंग लिए हों, परिवेश का चित्रण रंगों से भरा हो ऐसा हम सभी कह सकते हैं.
वाचिकता द्वारा ऐसी कथा बुनना एक अच्छी सोच हो सकती हैं. मानव इतिहास कहता हैं कि ‘सुनने’ की प्रक्रिया मानव विकास में हजारों वर्षों से रहे हैं. शब्दों द्वारा चित्रण या फोटोग्राफी एक जटिल रचना-प्रक्रिया होगी, बच्चों के मामले में. और बच्चे ही क्यों- सभी उम्र के लोग कथाओं में वाचिक परंपरा को नापसंद नहीं कर सकते. हमारी तमाम लोककथाएं, क्लासिकल में वाचिकता का ही निर्वाह हुआ है. अमर कथा सुनने की इच्छा सती शिवजी से करती हैं, शिवजी राम की कथा सुनाते हैं, सती वो कथा सुनते-सुनते नींद आ जाती हैं, वहीं काग भुसंडी चोरी से कथा सुन रहा हैं, और कथा वाचक को प्रतीत होता हैं कि सती कथा सुन रही है- क्यांेकि काग मुसंडी कथा के साथ हुंकार मारता है. महाभारतकार भी कथा गणेश जी को सुनाते हैं और गणेश जी उन्हें लिपिबद्ध करते है. एक द्वारा सुनाई कथा दूसरे और फिर तीसरे के बीच घूमती हैं और हम तक पहंुचती हैं. हमारी पंरपरा में कथाकार कभी भी पाठकों से सीधा मुखातिब नहीं होता, उसकी कथा तोता कहे या काग या और कोई.
इसमें दो राय नहीं कि हम तक पहुंची कथाओं में वक्त के साथ खूब जोड़-घटाव हुए हांेगे, और यह जरूरी भी हैं- और इसी लचीलेपन के कारण आज भी ये विषय लेखकों और पाठकांे को आकर्षित करते हैं, क्योंकि इन चरित्रों में अपने समय व परिवेश के सन्दर्भ में चित्रित करने की भरपूर संभावनाएं होती हंैं. इस पर जितना काम किया जाए कम है. मेरा निजी ख्याल है कि इस पर हर प्रबुद्ध लेखकों, विचारकों, संपादकांे को विचार करना चाहिए और आनेवाली संतति के लिए बहुत कुछ छोड़ देना चाहिए सिवाय यह कोसने को कि बच्चे तो ‘डोरेमाॅन’ और ‘चींग-चांग’ टीवी में देखते हैं. क्योंकि शब्दों, भाषा की शक्ति क्षीण होने का अर्थ है अपनी संस्कृति का मरना और संस्कृति मृत होने का अर्थ किसी गैर की गुलामी! भारतीय वेश में एक अमेरिकन या अंग्रेज. अंग्रेजी या हिन्दी, मराठी भाषा भाषी हो जाना ही हमारी देशज या विदेशीपन की पहचान नहीं हैं,- बल्कि पहचान हैं हमारी सोच! आज आप जितनी भाषाएं जाने उत्तम है- मगर विचार ? आपके अपनी मिट्टी या परिवेश के बारे में क्या ख्याल हैं ? तो यह कहना सही होगा कि लोककथाओं की वाचिकता प्रधान कहानियां बच्चों और नये पाठकों के समक्ष पेश की जाएं. वाचिकता, अर्थात् कोई हमें कहानी सुना रहा हैं और हम उसे सुन रहे हैं- भले ही आज किसी घर में दादा-नानी नहीं हैं जो नाती-पोतों को कहानियां सुनाएं, मगर हम लिखित या मुद्रित तरीके से ऐसी कथाएं प्रचुरता में प्रकाशित कर सकते हैं जिनमें वाचिकता हो. यहां कहानी पढ़ते हुए भी पाठक कहानी ‘सुन’ रहा होता है. इस ‘सुनने’ की प्रक्रिया में उसकी कल्पनाशक्ति किस तरह काम करती है, जरा गौर करें-
नदी किनारे एक विशाल वृक्ष था.
इस प्रारंभिक वाक्य ने, जिसमें पूरी तरह वाचिकता है- जिज्ञासु बच्चों के मन में कई सवाल खड़े किए-कितना विशाल वृक्ष होगा ? कितना घना ? किस चीज का वृक्ष होगा ? नदी किनारे, यानी नदी कितनी लम्बी या चैड़ी होगी, इत्यादि. पाठक का मन या कहें उसका अतःस्थ कल्पना की सैर तत्काल करेगा, उसने जीवन में अब-तक देखे दृश्यों, पेड़ों, नदियों से साम्य करेगा. अर्थात् कहानी के पहले वाक्य से ही पाठक न सिर्फ तादात्म्य हो जाता है वरन अपनी कल्पनाशक्ति का प्रचुर इस्तेमाल अनजाने ही, मगर करने लगता हैं. यहीं उसका अनुभव, अर्थात् ऐसे देखे दृश्य की दुनिया में वह स्वयं को उपस्थित पाता है. औंर यह सब इतना द्रुत सम्पन्न होता है कि वह हमारी चेतना को लगभग अज्ञात ही रहता हैं.
यहीं मैं ठहरकर कहना चाहूंगा कि फिल्म, दृश्यात्मक तस्वीरें या आॅडियों-वीडियों सीन हमारी कल्पनाशक्ति को जागृत करने में अक्षम है. वे मनोरंजन का एक आसान और सहज उपलब्ध साधन हमें प्रस्तुत करती हैं, हमारा मनोरंजन करती हैं परन्तु यहां हमारी मेघा, कल्पनाशक्ति उत्प्रेरित नहीं होती क्योंकि यहां ठहरने का अवकाश नहीं मिलता.
इसी बात को लेखक चित्रात्मक शैली में लिखता हैः- पीपल का यह वृक्ष है, बहुत घना और विशाल. इसके पत्ते हवा में झूलते प्रतीत होते हैं. वृक्ष नदी के किनारे स्थित हैं. जहां मवेशी-डूबकी लगाये आराम करते हैं. कुछ मछुआरे बड़ी मछलियों की आस में जाल बैठाए प्रतीक्षारत हैं.
यह दृश्य भी गतिमान है और कथा साहित्य में प्रयुक्त होता है. मगर तकनीक चाहे जो भी हो, वहीं सर्वश्रेष्ठ तरीका होगा जो हमें अधिक से अधिक जागृत करें, हमारी कल्पनाओं को हवा दे. जब लेखक सारे दृश्यों को हू-ब-हू जैसा है वैसा उतार देता है तो पाठकों को सोचने, ठहरने का अवकाश ही कहां रह पाता है. दृश्यों के चित्रण में भी वही तरीका बेहतर है जिसमें हमारी कल्पना की उड़ानें भरपूर हों.
कहने की आवश्यकता नहीं कि चलचित्र द्वारा कही कथाएं हमे कितना निष्क्रिय करती हैं- क्योंकि यहां हमारे भाव तत्काल नायक / नायिका के साथ तादात्म्य होते हैं- मगर कल्पना उत्प्रेरित होने का अवकाश यहां नहीं रहता.
किसी ने क्या खूब कहा है कि अगर आप अपने बच्चे की मेधा प्रखर करना चाहते हैं तो उसे खूब लोक कथाएं पढ़ने को दें.
सिर्फ यही एक वो बात नहीं जिसके कारण लोककथाओं के तत्व कहानियों में अपरिहार्य प्रतीत होते हैं, बल्कि इसलिए भी कि जादुई कहानियां हमें अनिश्चित भविष्य, अज्ञात आनेवाले समय से लड़ने-भिड़ने का हौसला भी देती हैं. धरती का ही प्राणी आनेवाले समय से भयभीत होता है. सचेत रूप से न सही, अचेतन ही सही. इन कहानियों में चरित्र दुर्गम और दुर्लभ समय से सामना करता है और अंततः जीत उसी की होती है. यह जो प्राकृतिक न्याय व्यवस्था है – सत्य की जीत, अच्छाई की बुराई पर जीत वह हम सब के भीतर बीजरूप में मौजूद रहती हैं. यह हौसला, विश्वास आगे जीवन की नैयापार लगाने में बड़ी अहम भूमिका निभाता हैं.
मुझे तो यह कहने में जरा भी झिझक नहीं कि कोई अगर पूछे कि आप क्या हो तो बेझिझक कहना चाहूंगा, ये सारे मिथकीय पात्र! उन सभी का सम्मिलन! हम यहीं पर ‘हम’ हैं. हमारा अस्तित्व, सांस्कृतिक मनुष्य ही अपनी धरोहर हैं और एक सुसंस्कृत मनुष्य क्या है- परंपराओं/लोककलाओं का समुच्चय!
मुझे आश्चर्य होता है जब लोग सवाल उठाते हैं- क्या साहित्य समाज को प्रेरित कर सकता हैं ?
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