प्रवेशांक-पाठकों से रूबरू-बस्तर पाति पत्रिका प्रकाशन के उद्देश्य

प्रवेशांक-बस्तर पाति पत्रिका प्रकाशन के उद्देश्य

किसी भी सुन्दर बड़े भवन के नीचे एक मजबूत नींव होती है, जो भले ही नजर नहीं आती है परन्तु समझदार, समझता ही है. इस नींव पर पड़ रहे दबाव और उसे झेलने की क्षमता ही उसकी महत्ता बता देती है. यही वह ताकत होती है जो हर प्रकार के क्षेत्र में सुंदर और विशाल भवन तैयार होने देती है.
लघुपत्रिकायें एक आंदोलन हैं, यह कोई नकार नहीं सकता है. यही हैं जो किसी भी भाषा के जमीनी लोगों को जोड़ते हुए कारवां बनाती हैं. ये जहां से भी निकलती हैं उस क्षेत्र की गंध समेटे हुए रहती हैं. इनमें हर प्रकार के फूलों की गंध होती है, अब जिस गंध को फैलना है तो उसे रोकना आसान नहीं.
क्षेत्र के साहित्यकर्मियों को मंच मिलता है अपनी बात पूरे देश तक पहुंचाने का, तो साथ ही नवीन साहित्यकारों का सृजन भी होता है. लघु पत्रिकाओं की गतिविधियां पत्रिका प्रकाशन के अलावा भी बहुत कुछ होती हैं. इन पत्रिकाओं से जुड़े लोग आम जनता से सीधे सम्पर्क में होते हैं. उनके दोस्त यार, पहचान वाले सामान्य जन होते हैं; कोई ताले की चाबी बनाने वाला तो कोई खाना बनाने वाला, तो कोई पान वाला. इन पत्रिकाओं की आंदोलनकारी टीम इन्हीं पर नजरें गड़ाकर वो अमृत खींच लाती हैं जो आमतौर पर विभिन्न सुन्दर सुवासित द्रव्यों से घिरा हुआ नजर ही नहीं आता है. प्रत्येक मेधा में एक खास दृष्टि होती है. बारीक दृष्टि के मालिक को ढूंढना और उसे लगातार थपकियों से संवारना, गद्दी पर बैठे और फीता काटने वाले लोगों के लिए संभव नहीं है.
पानवाले की बातों में वह रस होता है जो पान से भी ज्यादा स्वादिष्ट होता है. उसकी बातों में न जाने कितनों का सुख दुख समाया होता है. खाली समय में आते जाते लोगों की बारीक से बारीक तब्दीली उसकी नज़रों से होती हुई दिमाग में कैद हो जाती है. अब उस रिकार्ड को बाहर लाना, ये आंदोलनकारियों से ही संभव है.
साहित्य में पठन पाठन दोनों को जोडने का सेतु बनती हैं लघुपत्रिकायें. यह वह साधन हैं जो नये पाठक तैयार करती हैं और नये रचनाकार भी. छपे छपाये लोगों को छापना, जितना जरूरी है, उससे कहीं ज्यादा जरूरी है जमीनी स्तर का यह काम. व्यवस्था और समय के बदलाव को जबानी जमा खर्च से तौलने वालों को लेख, कहानी, कविता आदि के माध्यम से तराशना, प्रोत्साहित करना, आसान काम नहीं है, परन्तु प्रत्येक लघु पत्रिका यही करती हैं. यही तो आंदोलन है, जमीनी लोगों के विचारों में तब्दीली, उनके व्यवहार में तब्दीली. उनके मस्तिष्क के बीच एक बीज डालना और खाद, दवा, पानी से पौधा बनते देखना!
इस वैचारिक मन का ठोस सत्य है कि वह संगीत, कथा या जो भी सहज क्रीडायें हैं उनकी ओर ही भागता है. वह रह रहकर उस ओर जाना चाहता है और अंधी आधुनिकता उसे एक विशेष खांचे में समाने कहती है. उसी उसी खांचे में रहकर सोचने समझने और मानसिक शांति पाने को कहती है, जबकि प्राकृतिक स्वरूप है सहज की ओर आकर्षण.
अतिज्ञानी और धनवानों ने जो साहित्य का खांचा तैयार किया है, गले में ढोल बांधकर जिसका बारम्बार नाद करते हैं, वो इतना कठिन है कि स्कूल की बोझिल किताबों की तरह लगता है. जबकि साहित्य वह होना चाहिए जो आप ही आप बहकर हृदय की बंद खोलियों से निकलकर किसी दूसरे के हृदय में समा जाए. प्राकृतिक नदियों के किनारों के दृश्य देखे जाते हैं न कि मानव निर्मित नहरों के. उन नहरों को देखने वाला इंजीनियर, ठेकेदार और फीता काटने वाला नेता ही होता है. यह सच है कि नहरें खेतों में पानी डालती हैं और जीवन देती हैं.
अतिज्ञानी ऐसे ऐसे शब्द तैयार करते हैं और उनकी लकीर खींचकर, नवीन उर्वर मन को सांप बताकर डरा देते हैं. क्या मालूम उनकी मनसा क्या है, स्वयं को स्थापित करने के लिए उन्हें कुचलना या फिर साहित्य को भी वेद पुराण बना देना. इस दिशा में उदाहरण स्वरूप जरा देखा जाए.
नई कविता को ही लें, जो छंद विहिन इसलिए बनी कि वह आमजन से दूर हो रही थी. पर आज यही नई कविता, छंदयुक्त कविता से भी कठिन है. अतिज्ञानियों ने जो खांचा तैयार किया है उसके अनुरूप हो गई हैं कवितायें. इन खांचागारों ने साहित्य में ही खांचे तैयार नहीं किए हैं जिनमें रचनायें फिट बैठ जायें बल्कि साहित्यिक गतिविधियों को भी खांचें में ढाल दिया है. छोटे छोटे स्थानों में रहने वाला छोटा सा भी साहित्यकर्मी बनारस, दिल्ली की शैली में बात करता है. मंच कैसा हो, कैसे बोला जाए, क्या पढ़ा जाए, कैसे अखबार में नाम आए, कैसे इन छोटे मोटे आयोजनों को सीढ़ी बनाकर लाइम लाइट में आया जाए!
इन सबके बीच किसी को इस बात की जरा भी चिन्ता ही महसूस नहीं होती है कि नये पाठक और नये रचनाकार कैसे आएं या फिर वे कम क्यों होते जा रहे हैं ? हर कोई स्नो-पावडर, तेल-साबुन लेकर खुद को संवारने में लगा है. अब तो यह होता जा रहा है कि अच्छी रचनाओं के लिए चुप्पी थाम ली जाती है. तो ऐसे में नये लोगों को तैयार कौन करे, कौन स्कूल कालेज के छात्रों में साहित्य का बीजारोपण करे ? कौन उन तक साहित्य की पहुंच बनाए, उनकी रचनाओं को छापकर कौन ये बीड़ा उठाए ? कौन उनसे संवाद स्थापित करे ?
बातों से अलंकार गायब होते जा रहे हैं, मुहावरे मरते जा रहे हैं. बोलचाल में हिन्दी शब्दों की संख्या कम होती जा रही है और सबसे बड़ी बात, इस प्रकार भाषा के तिल तिलकर मरने से भारतीय संस्कार मरते जा रहे हैं. जीवन में सहजता खत्म होती जा रही है. मानव मन की सहज, सरल प्रवृत्ति कैसे बनी रहे ? हमें सहज प्रवृत्तियों को सहारा देकर बचाना जितना जरूरी है उससे कहीं ज्यादा जरूरी है नई पीढ़ी में इसका बीजारोपण! सबसे पहले तो उन तक पहुंच बनाई जाए, उन्हें साहित्य उपलब्ध कराया जाए. साहित्य की पाठशाला लगाई जाए, फिर परिदृश्य में आई रचनाओं पर पीठ थपथपाई जाए. ऐसा सतत् प्रयास निश्चय ही एक सुसंस्कृत, सुविचारित और जवाबदेह समाज का निर्माण करेगा. बाजारू पत्रिकाओं की भीड़ में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई जाए. जब उपलब्धता होगी तो उसके चाहने वाले भी आयेंगे.
साहित्यिक भ्रूण हत्या जो आज के समय की प्रबल योग्यता मानी जाती है, जो अपने आप को स्थापित करने का जरिया बनाया जा रहा है. संपादक अपनी सीमित दुनिया का ब्रह्मा बना बैठा है, उसके इस वर्चस्व को चोट पहुंचाना जरूरी है. पत्रिका की गुणवत्ता बनाए रखने की खाल के पीछे क्या चाल है, प्रत्येक रचनाकार जानता है परन्तु मजबूरी है कि अकेला क्या करे ? कैसे इस व्यवस्था से बचे ? शहरों में रहने वाले जुगाडू लोग, जल्दी ही लाइम लाइट में आ जाते हैं. कई पत्रिकाओं में छप छपाकर पाठकों के दिमाग में बैठा दिया जाता है कि यही प्रेमचंद हैं, यही निराला हैं और यही मुक्तिबोध हैं. संपादकों के पत्र आते हैं आपकी रचना पत्रिका के मूड के हिसाब से नहीं है. जब उन्हीं संपादकों की रचनाएं दूसरी पत्रिका में आती है तब पता चलता है कि वो अपना चेहरा चमकाने के लिए बड़ी लकीर खींचने ही नहीं देना चाहता है.
थोड़ा बहुत छपे, वो भी जुगाड़ से, ऐसे साहित्यकार भी अपने क्षेत्र में ऐसी ही भूमिका निभाते हैं. जब भी गोष्ठियों में जायेंगे, अपनी छपी रचना वाली पत्रिका लेकर ही जायेंगे, अपनी विशिष्टता जतायेंगे. स्थानीय साहित्यकारों की टोली (समिति कहना बेमानी होगा.) अपने मतलब से गोष्ठी रखती है, जिसमें एक दूसरे को अपनी उपलब्धि बताई जाती है. इन गोष्ठियों का मकसद, गोष्ठी करना कम, एक दूसरे से मिलने का जरिया ज्यादा होती है. इस गोष्ठी के अगले दिन प्रकाशित होने वाले अखबारों में खबर छपवाते हैं अपने मित्र पत्रकारों को बुलवाकर. इसके माध्यम से अपने बडे़ पोस्टर में एक कील और ठोंककर अपने को साहित्यकार बनाये रखते हैं. हम इस साहित्य कर्म की विपरीत विचारधारा में, भारी भरकम जहाज नहीं, बल्कि छोटी कश्ती लेकर उतर रहे हैं. जिसे विपरीत विचारधारा के हिचकोले डुबाने की कोशिश लगातार करेंगे. उसके बाद भी साहित्य की सनक, कश्ती की पतवार को रूकने न देगी.
समस्त नवीन रचनाकारों, गांव के रहने वालों, छात्रावास में रहकर पढ़ने वालों, समस्त पान वालों, चायवालों, नाई दुकान वालों, खेती-किसानी करने वालों से विनम्र अनुरोध है कि अपने भीतर बहने वाली गंगोत्री को रास्ता दें. इस पत्रिका के आंदोलन का हिस्सा बनें. आपका और आपकी रचनाओं का स्वागत है. ये हमेशा याद रखें कि खूब पढ़ा लिखा ही साहित्यकार नहीं होता है, बल्कि आम आदमी ही साहित्य का वाहक होता है. अपनी रचना भेजते हुए जरा भी संकोच न करें. साथ ही स्थापित रचनाकारों से भी विनम्र अनुरोध है कि अपनी विशिष्ट रचनाओं से इन नये नवेले लोगों का मार्गदर्शन करें. उनका हाथ पकड़कर आगे करने वाली रचनाओं से सहयोग करें.
लोक जीवन लोक संस्कृति और आम लोगों की कहानियां, कवितायें, लेख आदि जो वास्तव में आम जीवन से जुड़े हैं उनका सदैव स्वागत है. चार सौ से भी ज्यादा पत्रिकाओं में छपने वाले उन स्थापित रचनाकारों से सहयोग की विनम्र अपेक्षा है. प्रवेशांक आपके हाथ में है, जो छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले की भौगोलिक विषमताओं और सीमित साधनों की उपलब्धता के बाद भी संभव हो पाया है. हमें इस आंदोलन को चलाये रखने के लिए धन की आवश्यकता होगी जो आप स्वेच्छानुसार दे सकते हैं, परन्तु कम से कम पंचवर्षीय सदस्यता अवश्य लें.
शेष शुभ
आपका सनत जैन