रंगीला बस्तर-बस्तर में आस्था से जोड़कर वन एवं वनौषधि पौधों का परम्परागत् संवर्धन

रंगीला बस्तर

बस्तर में आस्था से जोड़कर वन एवं वनौषधि
पौधों का परम्परागत् संवर्धन

वनवासी संस्कृति में पेड़-पौधो का विशेष महत्व है। एक वनवासी परिवार, अपना घर अपने पशुओं की सुविधानुसार बनाता है एवं छत्तीसगढ़ का वनवासी क्षेत्र वनौषधि पेड़-पौधों के लिये विख्यात है, यहां इन औषधि महत्व के पेड़-पौधों से जुड़ा परम्परागत् ज्ञान आस्था के साथ संरक्षित किया जा रहा है। क्षेत्र मंे परम्परागत् ज्ञान के विशाल भण्डार एवं यहां पायी जाने वाली औषधि महत्व की जड़ी-बूटियों से अनेक असाध्य रोगों का परम्परागत् रूप में उपचार किया जा रहा है। जहां गांव में सिरहा, गुनिया द्वारा पोलियो, मस्तिष्क ज्वर, सर्दी-खांसी, हड्डी जोड़ना, पीलिया रोग, महिला की प्रसव क्रिया आदि में परम्परागत् रूप से परम्परागत वैध चिकित्सा बस्तर में प्राचीन काल से चली आ रही है, जो आज भी जीवित है।
वनवासियों में परम्परागत रूप से ऐसी मान्यता है कि वनवासी के देवी-देवता वृक्ष पर रहते हैं सभी प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रम में विभिन्न प्रकार के वृक्षों का तना, टहनी व पत्तियों का उपयोग किया जाता है एवं बिना इसके पूजा-अर्चना अपूर्ण मानी जाती है। गर्मियों में शादी-विवाह पर पेड़ों की टहनियों को धूप से बचाने के लिये मंडवा के रूप में किया जाता है। वर-वधु के श्रृंगार हेतु मुकुट भी इन पेड़ों के पत्तियों से बनाये जाते हैं। शादी की प्रत्येक रस्म पेड़ों के साथ ही की जाती है। आदिवासियों द्वारा भोजन परोसकर खाने हेतु थाली और कटोरी के स्थान पर दोना-पत्तल का उपयोग किया जाता है। जामुन लकड़ी के लट्ठों एवं बल्लियों को जलस्त्रोतों में या कुंओं में बंधान के रूप में प्रयोग किया जाता है, ये जब एक गांव को पार करते हैं तो सरहद में एक-एक पेड़ की टहनी को निर्धारित जगह पर डालते चले जाते हैं। उस स्थान को बगरूमपाठ कहते हैं। त्यौहारों में जंगली फूल-पत्तियों को अपने घर में लगाने, पालतू पशुओं को वनौषधि फल-मूल खिलाने का, वनौषधि पौधे की फूल-पत्तियां, डंठलों को सिर में बांधने व घर में लगाने का रिवाज है। उपरोक्त उपचार से पशु विभिन्न बीमारियों से बचे रहतें हैं, क्योंकि ये तीज-त्यौहार में वनौषधि पौधों का सेवन जानवरों को कराते रहतें हैं। वनौषधि पौधों के सम्पर्क में आने से घर में स्वच्छ वातावरण निर्मित होता है। आदिवासियों के देवी-देवताः-
प्रकृति पुजारी आदिवासियों का जीवन जंगल में गुजरता है, हवा, पानी, पहाड़, पर्वत सभी को देव तुल्य समझ कर पूजा की जाती है। यह सब कुछ उनकी संस्कृति एवं परम्परा में स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है। आदिवासी की जाति व्यवस्था में पेड़ पौधों, जीव जन्तुओं का विशेष महत्व होता है। वह अपने गोत्र के पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों से जीवन भर संबंध स्थापित रखता है। उनका कुल देवता वृक्ष हो या पशु-पक्षी उस कुल के लिये विशेष रूप से महत्वपूर्ण माना जाता है।
इस मान्यता के अनुसार आदिवासी अपने कुल के वृक्ष, पशु-पक्षी का शिकार या वध नहीं करते हैं। उनके कुल देवता या देवी विभिन्न वन क्षेत्रों पर मुख्यतः सूची क्रमांक-1 के अनुसार वृक्षों पर विराजमान होते हैं। ये वृक्ष सामान्य वृक्ष से बड़ा व प्रभावशाली होता है। इन वृक्षों के आसपास विभिन्न प्रकार के वृक्षों का रोपण किया जाता है। ग्रामवासी अनेक दुर्लभ वनौषधि पौधांे को देवगुड़ी में लगाकर अनेक गंभीर बीमारियों का उपचार देवगुड़ी से करते हैं।
आदिवासी संस्कृति में वृक्षों का उपयोगः-
आदिवासी संस्कृति में वृक्षों का बहुत महत्व है। जीवन मरण में वृक्षों का उपयोग मुख्य रूप से किया जाता हैं। प्रत्येक संस्कार में विभिन्न प्रजातियों के वृक्ष का उपयोग किया जाता है। आम, बेल-बांस, महुआ-साल-साजा पत्ता के अर्पण से प्रकृति पूजा की जाती है। विवाह संस्कार में महुआ, साल, साजा के खंबे बनाये जाते हैं। मड़वा में आम, बांस, जामुन, गुलर, छिंद पत्ती डाला जाता है। घास या फूल झाडू का भी उपयोग किया जाता है। मृत्यु संस्कार में शिशु मृत्यु होने से महुआ वृक्ष के नीचे दफनाया जाता है। गर्भवती स्त्री के मरने से गांव से दूर अर्जुन वृक्ष के नीचे दफनाया जाता है। स्वभाविक मृत्यु होने पर उसी गांव में दाह संस्कार या दफनाया जाता है, जिस गांव का निवासी है। अन्यत्र गांव पर किसी भी दशा में दफनाया या दाह संस्कार नहीं किया जाता है। विषम परिस्थिति में दूसरे गांव में दाह संस्कार या दफनाना आवश्यक हो तो उस गांव के माटी पुजारी से अनुमति लेना आवश्यक होता है।
सूची क्रमांक-1ः-

आदिवासी संस्कृति में वृक्षों का विवाह परम्परानुसार किया जाता है। आम वृक्ष के विवाह के दौरान, विवाह रस्मों रिवाज के अनुसार आम वृक्ष की एक शाखा को फूआ को देने का विधान है, जिससे आपसी सम्बन्ध बना रहता है।
कुंवारा-कंुवारी, पति-पत्नी की मृत्यु के उपरांत उनके पुत्र या प्रपौत्र द्वारा महुआ की लकड़ी से पुतला-पुतली बनाकर सम्पूर्ण विधि विधान से विवाह सम्पन्न कर उन्हें कुल देवता में मिलाया जाता है। पुतला-पुतली को घर अथवा रास्ते के किनारे गाड़ दिया जाता है।
वनवासी द्वारा देव-वनों का संरक्षणः-
बस्तर में मनाये जाने वाले सबसे बड़े पर्व दशहरा में शहर से लगा हुआ साल वन कुम्हड़ाकोट, जिसमें दशहरा पर्व के अनेक विधि विधान सम्पन्न होते हैं, उसे परम्परागत रूप से वनवासी जाति धुरवा, भतरा, गोंड़ आदि जाति के लोग आस्था से जोड़कर संरक्षित कर रहे हैं। इसी तरह माड़पाल के वन मंे मंगुर लकड़ी जिसका उपयोग रथ बनाने में मुख्यरूप से उपयोग होता है उसे भी परम्परागत ढंग से संरक्षित किया जा रहा है। अपने निजी जीवन के उपयोग के लिये प्रत्येक ग्राम पंचायत में एक छोटा वन विकसित किया जाता है, जिसे झार जंगल कहते हैं। उसमें उगे बड़े एवं अच्छे पेड़ों को नहीं काटा जाता है तथा प्रत्येक ग्रामवासी परम्परागत रूप से उस जंगल की सुरक्षा करता है। बड़े जंगल को देव-वन के रूप में संरक्षित किया जाता है।
इसी तरह छत्तीसगढ़ में सबसे घना साल वन तिरिया, माचकोट जो शबरी नदी के तट से लगा हुआ है, वहां शिवजी (बूढ़ादेव) का मंदिर है। अनेक विद्वानों ने यह क्षेत्र रामायणकाल के राम वनगमन का क्षेत्र बताया है। इसलिये इस घने वन में चार सागौन के पेड़ हैं, जो राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघन के नाम से आज भी मौजूद हैं, जिसका संरक्षण परम्परागत रूप से हो रहा है। यहां के धुरवा, भतरी, हल्बी लोकगीतों में इन वनों की महत्ता व संरक्षण का उल्लेख मिलता है। इस प्रकार बस्तर केे वनवासी क्षेत्रों में पाई जाने वाली जातियों में आस्था से जोड़कर पर्यावरण संरक्षण का कार्य परम्परागत रूप से हो रहा है।