काव्य-एस पी विश्वकर्मा

यह बस्तर खुद ही बोल रहा है


मैं अबूझ वनवासी बस्तरिया क्या बोलूं
यह बस्तर खुद ही बोल रहा है।
इसकी रहस्यमय कथा-व्यथा मैं क्या खोलूं
यह बस्तर खुद ही खोल रहा हैै।
वन में ही था ऋषि मुनियों का आश्रम
बस्तर में भी था उनका डेरा
है आदिकाल से सभी जानते
यह बस्तर खुद ही बोल रहा है।
बस्तर की भाषा हल्बी, गोंडी, दोरली
धुरवी, भतरी मैं क्या बोलूं
यह बस्तर खुद ही बोल रहा है।
वनवासी के गीतों पर,
पत्ते संगीत बजाते हैं।
झरनों के कलरव में देखो
पक्षी धुन मधुर मिलाते हैं।
सुन लोकगीत संगीत सुहावन
वन विचरित पशु भी गाते हैं।
यह बस्तर खुद ही बोल रहा है।
दुर्भाग्य है ऐसे पावन वन का
जो बना ढेर बारूदों का
यह बस्तर खुद ही बोल रहा है।
मैं अबूझ वनवासी बस्तरिया क्या बोलूं
यह बस्तर खुद ही बोल रहा है।


परिचय
द्रुतगति का मैं आशु कवि नहीं
फिर भी कविता लिखता हूं।
जिला कवर्धा का बाशिन्दा
कोण्डागांव में रहता हूं।
जल संसाधन का इंजीनियर
था नहर बांध बनवाता।
क्यूरिंग के बुलबुले संजोकर
लिखता हूं कुछ कविता।
गांव सहसपुर है लोहारा
कोण्डागांव में रहता हूं।
नाम मेरा एस. पी. विश्वकर्मा
जनम जात ही ‘सृजेता’ हूं।
जिला कवर्धा का बाशिन्दा
कोण्डागांव में रहता हूं।