कहानी-बंजारन-रत्न कुमार सांभरिया

बंजारन

सांप की लकीर- सी सर्पाकार सड़क खेतों-खांखरों से होती गांवो-ढाणियों की ओर निकल गई थी। समूची सड़क सुनसान और सन्नाटा समेटे थी, दूर तक। देह उधड़ी थी। रोड़ियां खड़ी थी। गढ्ढों-खांचों भरी थी, पूरी की पूरी। आता-जाता कोई वाहन उसके ऊपर से खड़-खड़ करते हुए गुजर जाता। जैसे कोढ़ उतरी काया हवा के हलके झोंके से सिहर जाती है, सड़क थोड़ी-सी आवाजाही से भी दर्द से कराह उठती थी।
सड़क के मोड़ पर रेगिस्तान में नखलिस्तान की तरह एक दुकान आबाद थी। अद्धों, पौनों, खौरों और गार-मिट्टी से जुड़ी नंगी दीवारों पर टीन-टप्पर रखे हुए थे। अंदर चाय-पानी, बिस्कुट, नमकीन और पेठा जैसी जरूरत की चीजें मर्तबानों में थी। कोयलों की भट्ठी लहक रही थी।
दुकान के सामने पड़े मूढ़े-मूढ़ियों पर तीन जने आ बैठे थे। एक औरत। दो मर्द। मर्द अगल-बगल। औरत उनके सामने। तीनों के तीनों अधेड़ावस्था। चालीस-पैंतालीस के दरमियान। तीनों बंजारा।
औरत! रूनाबाई। लाड़ से उसे रूना पुकारते। वह छींट का ऊंचा- सा घाघरा और कुरती पहने थी। सिर पर सितारों से जड़ी कढ़ाईदार, लूगड़ी ओढ़े थी, काले रंग की। फावड़ा-गैंती बजाते, विषम झेलते, पकते-तपते वक्त को ठेलते उसका वह गोरा रंग, कलाइयों से बांह तक पहने बाजूबंद सफेद चूड़ा की भांति मैल, धूल, धुंआ पकड़ते फीका पड़ता जा रहा था। उसके कान चिपके थे। कानों की लवों में चांदी के भारी-भारी झुमके झूल रहे थे। उसके होंठ भले ही नेक गोटे थे, लेकिन नाक में पहनी सोने की चौड़ी गोल नथ ओष्ठसंधि पर पड़ी उस दोष को ढंके-ढांपे थी। नथ से बंधी काली डोर बाएं कान से लिपटी थी। गिरे नहीं। छिने नहीं। वह गले से चांदी की भारी हंसुली पहने थी, अगर सांस या खोट न हो, किलो भर होगी।
मर्द। उसके ठीक सामने दायें-बायें बैठे सादूराम और दोदूराम। जवानी के ज्वार रूना को होश नहीं, साथ-साथ मजूरी करते उसने उन दो युवा भाईयों को कब अपने प्रेमाश्रय में ले लिया था। मां-बाप, घर-परिवार सगे-संबंधियों ने हाथ जोड़-जोड़ खूब समझा लिया लेकिन जन्म की जिद्दन रूना टस से मस नहीं हुई। उसने उनकी बोलती यह कहते हुए बंद कर दी थी कि द्रौपदी के पांच पति होकर वह पतिव्रता थी, रूना के दो धनी हैं, तो क्या आसमान टूट पड़ा ? वह ना गिरी ? ना ऊदली।
बेटों के बराबर का बड़ा हो जाने पर बाप उन्हें अपनी भुजाएं बताकर अहम दर्शाता है। रूनाबाई अपने मर्दों को अपनी ताकत बताया करती थी। तीनों थे भी एक मिजान। धूप में छाया की तरह। छाया में काया की तरह।
हालांकि रूना की जवानी अतीत हो गई थी, परंतु ऊंचे से कद की पतली-सी सरोटन की उस बंजारन में किशोरियां सा गरूर बरकरार था। उसकी कमर में लचक होने के कारण चाल में मटक थी। वह अपने मन की मालकिन थी। संदूक की चाबी अपने नाड़े से बांधे रहती थी। तीनों के एक लड़की थी, सविताबाई। दसवीं किताब पढ़ रही थी वह।
रूनाबाई का लावा की भांति उफनता आक्रोश आज अहम बात थी, जिसके निमित उसके ये दोनों पति थे। अगर उनकी मूंछों में खम है, तो रूना की बात में भी दम है।
पचासेक की वय का दुकानदार सांवले रंग, गठीले बदन का था। उसने सिर पर छींटदार भारी पग्गड़ बांधा हुआ था। ऊंची सी धोती पर डोर बंधा कुरता पहने था। कानों में सोने की मुर्कियां झूल रही थीं। वह ऊंचा सुनता था। उसे कम सूझता था। वह उन तीनों के पास आकर खड़ा हो गया था। उसने मोटे फ्रेम के चश्मे के नीचे बुझती आंखे टिमटिमाई।
उन तीनों की तीन-तीन अंगुलियां एक साथ दुकानदार की ओर संकेत करती उठीं। दुकानदार बात समझ कर अपनी भट्ठी की ओर बढ़ गया था।
रूनाबाई के ये दोनों पति एक दूसरे से न बोले, न चाले। चुप होंठ और छुपी नजरों से बैठे रहे।
दुकानदार हाथ की अंगुलियों से दबाए चाय के तीन गिलास लाया और उन तीनों को एक-एक गिलास पकड़ा कर लहकती अपनी भट्ठी के पास जा खड़ा हुआ था। तीनों सड़-सड़, सुरड़-सुरड़ चाय पीने लगे थे। तीनों के अंतःकरण में अपनी-अपनी पीड़ाएं थी, तनाव बरपा था।
सादूराम और दोदूराम, दोनों भाइयों की उम्र में साल-सवा साल की बीछा (अंतर) था। सादूराम बड़ा। दोदूराम छोटा। दोनों कद-काठी एक जैसी थी। न अदने। न ऊंचे। न मोटे। न बड़े। रंग उतरते मेघों-सा सांवला था। वे सफेद रंग की ऊंची-सी धोती पर डोरी बंधे मैल खाए कुरते पहने थे। उनके सिर पर लट्ठे (मोटा कपड़ा) के भारी-भारी पग्गड़ बंधे थे। दोनों के कान बिंधे थे लेकिन अब रूंधते जा रहे थे। एक वक्त उनमें मुर्कियां रही हांेगी। सादूराम के पांवों में चप्पलें थीं और दोदूराम कुरम की पाती जुड़ी जूतियां पहने था।
सादूराम उधेड़बुन में डूबा अपनी ललाट पर उंगलियां फेरे जाता था। आंखे सिकुड़ती-फैलती थीं। घुट कर दम तोड़ते शब्द उसकी अंतर्वेदना का बोध था। चाय पीकर उसने गिलास नीचे रख दिया था। रूनाबाई को सुनाते दोदूराम से रू-ब-रू कहने लगा- ‘यह ससुरी अपनी जात है न, हथेलियों पर कस्सी से पड़े फफोला फुड़ाते-फुड़ाते मर-खप जाएगी, पर टाबरा ने दो आखर ना सिखावगी।’
उसने दोनों हाथों की अंगुलियां एक दूसरे में फंसाई और चटका कर फफोलाई हथेलियां आकाश को दिखाने लगा, मानो अंबर बाबा की फजल चाह रहा हो।
दोदूराम ने चाय पीकर गिलास नीचे रख दिया था। उसने दोनों कुहनियां जांघों पर रख ली थी और चिंता से विदीर्ण चेहरा हथेलियों पर टिका लिया था। एकाएक उसने धोती उघाड़ कर अपनी जांघ पर थपक मारी, मानों मक्खी मच्छर उड़ा रहा हो। वह रूना से मुखातिब हुआ और फिर मुंह फेरता बोला-‘यो तो खाली-पीला की बकवास है कि लड़कों दो टावरां को बाप है। यो भी धियान दो, ऊकी सिरकारी नौकरी है। घर को पक्को ठियो है। दो बीघा क्यार है। ऐसा खाता-पीता घर लड़की दे रहा हां, तो जुरम ना कर रहा। कहावत है ना, अकल बड़ी के भैंस।’
सादूराम ने रूनाबाई की ओर कातर दृष्टि लखा। उसने दोदूराम की हां में हां मिलाते उसकी बात सवाई की-‘दोदू ठीक कह दूं। अपनी बिटिया जिन्दगी भर राज करेगी। मेम कहावेगी। म्हारी तरह धूप-तावड़ा में तपनों तो दूर, छाया में रहेगी चौबीस घंटा। पर भैस बड़ी है, अकल छोटी।’ आकाश की ओर ऐसे देखने लगा, जैसे तीतरपंखी मेघों के मिलने और जुदा होने की अठखेलियां निहार रहा हो।
रूनाबाई को उन दोनों की बात शूल से बुरी चुभी। रोम-रोम सुलग उठा था, उसका। चेहरा तंबिया गया था। वह इतना गुस्साई कि अगर वे दोनों उसके पतिदेव नहीं होते, जूती निकाल सिर-सिर मारती। उसने हम कदर निरखा वे उसके मर्द नहीं गैर-कपटी हों।
रूना को आज पहली दफा ऐसा अहसास हुआ था कि वह दो सिरों की जिस नाव में बैठी अपने चातुर्य के चप्पू से जीवन नैया खेए जा रही है, वह दो नावों पर सवार है। नावें उसे विपरित दिशा में लिए जा रही हैं। यह तो उसके विश्वास में विष घोलना है।
रूनाबाई के चांदी के बोरले के नीचे ललाट, भैंहों, कपोलों, चिबुक तथा पांवों में पहनी कड़ियों से ऊपर पिंडलियों पर गोदना था। उसने चाय का गिलास नीचे रखकर अपनी दोनों पिंडलियों के गोदनों पर खोर की थी। उनसे आंखें मिलाते कहने लगी-‘जिन्दा मक्खी ना निगली जाए। वो लड़का ने अपनी अनपढ़ बीरवानी मार दी। अगर ऊनै ऐसी ही पढ़ी लिखी लड़की की भूख थी तो अपनी घरवाली ने खुद पढ़ातो। सिम्मान पातो। दो बालकां की मां पीट-पीट घर से निकाल दी। तंग आई जोहड़ में जिनगानी होम दी अपनी। ना-ना-ना मैं तो अपनी फूल सी लाड़ो ना ब्याहूं ऐसा पापी के।’
वह कहती गई-‘थम दोनों तो बाप हो के गैर हो गया। मैं मां हो के अपनी बेटी को बुरो चेतूं कीड़ा के कुंड में पड़ी सडूं।’ रूना के दांत भिंच गये थे और भौंहें सिकुड़ गई थी। पश्चिमांचल की ओर जा रहे भानु की किरणों से उसकी सिकुड़ती भौंहों के गोदना चमक उठे थे।
दोदूराम रूना के एतबार के लिए उससे कहने लगा-‘ऊकी घरवाली तो अपने आप ही मर गई। बात मिट-सिट, आई गई हो गई। लड़का के पेट पाप नी है। मैं फेर कहूं। राज करेगी म्हारी बिटिया। बावली बात करना छोड़ दे तू। हम ब्याह दे आया।’
रूना को ऐसा लगा जैसे उसकी कामनाओं की बगिया में बबूल उगाया जा रहा है। रूना की हृदय कलिका सुलग उठी थी।
उसने अपने दाएं हाथ पर सादूराम गोदवा रखा था और बाएं हाथ में दोदूराम। रूना ने सादूराम के गोड़े पर दायीं उंगली गड़ाई और दोदूराम के गोड़े पर बायीं। आंखें तरेरते उनसे बोली -‘तुम दोनवां में कोई एक अपनी छाती पे हाथ धर के गारंटी से कह दे, लड़की मेरो खून है। हो यो बात दाई से गुवाड़ी जाने सवितबाई, रूना की जनी-जाई है।’
रूनाबाई की बात दोनों भाईयों की छाती में आर-पार होकर भी उनके होंठ सिल गये थे। आंखें पथरा गई थीं।
दोनों बगलें झांकने लगे थे। यह बात आज उन दोनों के बीच अविश्वास की रेख थी कि सवितबाई का बाप कौन ? वे दोनों भाई रूना के हाथ पर गुदे गोदना की तरह दायां-बायां अपना मान रहे थे।
कहीं गांव-गोठ, मेला-ठेला, ब्याह-कारज, काम-मजूरी जाना हो, बच्ची को आधी राह सादूराम अपने दायें कंधे पर और आधी राह दोदूराम बायें कंधे पर बैठाता था। बच्ची ने पांव लिए तो सादूराम उसको अपने दायें हाथ की उंगली पकड़ाये रहता और दोदूराम बायें हाथ की। वे दोनों उसे इसी प्रकार दायां-बायां हाथ पकड़े स्कूल ले गये थे और नाम मंडवा आये थे।
एक अफसोस भरी सांस भरकर दोदूराम अपने सिर का पग्गड़ जांघों पर रख लिया था। सादूराम ने भी अपना पग्गड़ जांघों पर रख लिया था। दोनों ने अपना-अपना सिर खुजलाया। अपमान को गरल की तरह पीकर सादूराम ने रूना को समझाते हुए दिलासा दी-‘अब भी मान जा, लड़को मन को कालो ना है। हंसुली…।’
दोदूराम ने भी वही बात दोहराते हुए कहा-‘बिल्कुल सोलह आना।’
रूना ताव में आ गई थी। उसने दोनों के गोड़ों पर फिर उसी तरह अंगुलियां गड़ाई और तमक कर बोली- ‘ना मानूं। झूठ की बुहारी से सांच की सफाई ना हौवे।’ उसने दो-तीन लंबी-लंबी सांसे भरी और तुनकती हुई कहने लगी- ‘बापकाना (हरामी), मां-बेटी ने बीच में लिया बिना ओले-ओले (चुपके-चुपके) बेटी को ब्याह दे आया। दारू पी, रोकड़ा ले आए अब घरवाली की रकम बेचो ब्याह की ब्यौत। शर्म आनी चाहिए। मूंछ दाढ़ी धोली आ गई दोनवा के।’
रूना की अंगुली-गड़ाई से उन दोनों के पांव हिले और जांघों पर रखे पग्गड़ धरती पर गिर पड़े थे। दोनों को ऐसा महसूस हुआ उनके पग्गड़ जमीन पर नहीं गिरे, रूना ने उनकी पगड़ी उछाल दी हो, सरेराह। उनके भीतर गोड़ली (गोड़े) मोड़े बैठा पशु-पुरूष उठ बैठा था।
आवेश भरे हाथों उन दोनों ने अपने-अपने पग्गड़ फिर सिर पर रख लिये थे। दोनों के बीच नैना-सैना हुई। उनके हाथ एक साथ रूना की गरदन की ओर बढ़े और गले में पहनी हंसुली के दोनों सिरे पकड़ लिये थे।
बिगड़े हाथी के क्रोध की कूत हो सकती है। छोहभरी औरत के गुस्से की थाह नहीं होती है। हाथ हंसुली खींचे। चौडाएं। खींच ले जाएं। रूनाबाई ने अपने दायें हाथ से सादूराम का तथा बायें हाथ से दोदूराम का हाथ पकड़ा और झटक कर दूर कर दिए थे। घायल बाघिन की आंखों की आंखों में उतरे लहू की भांति सुर्ख आंखे लिये वह उठकर अपने झोंपड़े की ओर चल दी थी।
दोनों पति अपनी पत्नी रूनाबाई से गुंथते, खींचातानी करते, लड़ते-झगड़ते गाली-गलौज करते दायें-बायें, आगे-पीछे कभी त्वर, तो कभी हौले तो कभी हौले तो कभी रूकते-ठिठकते उसके कदमों के साथ-साथ चले जा रहे थे। दोनों के हाथ रह-रह कर उसकी हंसुली की ओर बढ़ते और वह उन्हें दूर कर देती थी। रूनाबाई समूची धरती और सारे आकाश को सुना-सुना कर सादूराम और दोदूराम को बखानती जा रही थी-‘ नपूतों’ चाहे ई कान सुन लो, चाहे ऊ कान। मैं असल बंजारण हूं, अपनी नाड़ (गरदन) कटवा लूंगी, पर बेटी से धोखो ना करूंगी। अगर हम मां-बेटी पर बेटी ने सताओगा, कीड़ा पड़ेगा थारी काया में। नरक सड़ोगा। पानी तरसोगा।’ और उसके मुंह से गालियां निकलती थीं। चुभती सान उतरीं।
दुकान पर तीन-चार ग्वाले बैठे हुए थे। गप्पाने। वे बंजारा दंपती की छीना-छपटी और लड़ाई-टंटे को देखते रहे, आंखों से ओझल होने तक। पगडंडी के दोनों ओर सरसों के खेत कट रहे थे। खेत काटते स्त्री-पुरूष गेरा (खुद काट कर हाथ में पकड़ी फसल-पूंजी) और दरांती लिये तमाशबीनों की तरह खड़े-खड़े उन तीनों की धींगाधांगी देख दांत निकाल रहे थे। पगडंडी-पगडंडी चिड़ियाएं बैठी थीं, खेत चुगने इनका शोरगुल सुनकर वे उड़ कर दूर जा बैठतीं और उनके गुजरते फिर वहीं आ बैठती थीं।
दोनों मर्दों के हाथ रह-रह कर रूना की हंसुली की ओर बढ़ते थे और वह झुंझलाकर उन हाथों को दूर कर देती थी। रूना के पैर अचानक बीच राह ठिठक गये थे। वह इस ख्याल से कि दोनों को गरज भूत सवार है। झोपड़ी में उस अकेली को मीस-मोस काबू कर लें और हंसुली खींच ले जाएं। सुल्फ सौदा कर लावें ब्याह का। वह उन्हीं कदमों से वापस लौट पड़ी थी।
तीनों दुकान के पास आकर सड़क की ओर खड़े हो गये। तीनों ने दुकानदार की ओर फिर तीन-तीन उंगलियां एक साथ उठाईं। दोदूराम के कंधे पर पुरानी-धुरानी सी एक धोती पड़ी थी। वह धोती उसने सड़क के दसेक फीट दूर फेली रोड़ियों पर बिछा ली थी। वे तीनों धोती पर बैठ गये थे। सादूराम दायें। दोदूराम बायें। रूना बीच में। रूना गले की हंसुली छोड़कर दोनों हाथ आकाश की ओर नचाकर बोली-‘अगर ऐसो अड़ंगो अड़ावोगा, कुछ न पाओगा। भले अलग रहो दोनों। मेरी बेटी पढ़ेगी। मैं मजूरी करके ऊनौ पढ़ाऊंगी।’
सादूराम और दोदराम दोनों रूनाबाई की ओर इस कदर टुकूर-टुकूर निहारे जाते थे, जैसे रूना मछली और वे बगुले। सादूराम ने कुरते की जेब में पड़ी सुल्फी और तंबाकू की थैली निकाल ली थी। उसने सुल्फी में गोल जमाई और ऊपर तंबाकू रख दी थी। दोदूराम ने जेब में पड़ी माचिस और पुरानी-सी जेवड़ी (मूंज की रस्सी) का टुकड़ा निकाल लिया था। उसने टुकड़े को तोड़-मरोड़कर सादूराम के हाथ में पकड़ी सुल्फी पर रखा और तीली जलाकर हाथ की ओट, आग पकड़ा दी थी। सादूराम ने खींच-खींचकर सुल्फी सुलगा ली थी। दोनों सांस-सांस खींच-खींचकर सुल्फी पीते रे और आंखों-आंखों में बतियाते रहे। जब तंबाकू जलकर राख हो गई तो सादूराम ने उसे सुल्फी को झड़काया, थोड़ी देर ठंडी की और कपड़ा लपेटकर फिर अपनी जेब में पटक ली थी, तंबाकू की थैल्ी के साथ।
दुकानदार तीन चाय ले आया था। तीनों ने फूंक-फंूक घूंट-घूंट चाय पीकर गिलास नीचे रख दिए थे। उन दोनों ने रूना को फिर समझाते हुए कहा- ‘रूना मान जा म्हारी बात। बेटी……।’
रूना ने दोनों हाथों की पांच-पांच अंगुलियां दिखाते उनके सामने तीन-तीन बार की और फिर हाथ आसमान की ओर कर दिया था। आशय था-‘लड़का दूजवर है। उम्र तीस बरस से कहीं ज्यादा है। वह दोनों हाथों की हथेलियां ऊपर तले कर थोड़ा-सा बनाकर रूक गई। फिर उसने उस गैप को थोड़ा बड़ा कर दिया था। मानो कहती थी, लड़के के दो टाबर भी हैं।’ वह होठों को गोल कर ग्लानि-सी प्रकट करती बोली- ‘हुं- हुं मेरी लाड़ो तो अभी खुद टाबर है। अगले महीने चेत में सोला (सोलह) की होगी वह।’
रूना उखड़ती-सी कहने लगी- ‘थम ने ता आंखां पे ठीकरी धर ली। भीतर मार लियो अपनो मैं तो ऊकी मां हूं। दूध पिलायो छाती को। गैर ना बनूं।’
‘समझ जा?’ दोदूराम ने आंखें बताई।
वह बोली- ’ना’
चाय पीकर तीनों धोती पर लेट गए थे। सादूराम दाएं। दोदूराम बाएं। रूना बीच मे। रूना दोनों हाथ हंसुली के दोनों सिरे पकड़े थी। पांच-सात स्कूली लड़कियों की एक टोली सड़क से गुजर रही थी, बस्ता लिये। स्कूल की ड्रेस पहने। उनमें रूनाबाई की बेटी सवितबाई भी थी। करूणा की प्रतिमूर्ति-सी वह षोडशी, शर्म-गुंथी थी। वह अपने चेहरे की लुनाई हाथों से ढांपती रूनाबाई के पास धोती के कोने पर आ बैठी थी। उसने भावुकतावश अपनी मां की गलबहियां ले ली थीं। रूना उठ बैठी थी। उसकी आंखें टकटकी बांधकर बेटी को देखती रहती थीं देर तक। सवितबाई का सिर पुचकार कर उसने पूछा- ‘बेटी इनके कहे तेरा ब्याह का पंदरा दिन रह गया। आखिरी बात दे तेरा मन की बात ऊ लड़का से ब्याह करागी ?’
सवितबाई मां से और चिपक गई थी सुबकियां रोक कर होंठ बिसूरती। कहने लगी- ’मां गरदन कटा कर भी ना करूं?’
रूना ने अपने गले की हंसुली के दोनों सिरे चौड़ा कर हंसुली निकाल ली थी। उसने नाक की नथ और माथे का बोरला निकाल कर भी उनके बीच पटक दिया था। तीखे कंठ बोली- ‘लो थारी टूम। कर लो ब्याह। कड़ी तो मेरी मां की है। कतई ना दूं और अपनों झोपड़ों भी संभालो।’
दोनों मां-बेटी एक दूसरी से गुथी गलबहियां लिये-लिये उठ खड़ी हुई थी।

 

रत्न कुमार सांभरिया
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