आत्मकथन: पद्मश्री धर्मपाल सेनी

आत्मकथन: पद्मश्री धर्मपाल सेनी
बस्तर- स्वप्न, प्रयत्न और परिवर्तन

अपनी चमकदार और गहरी और भावभरी आंखों से गंगा जमुना की तरह आंसू बहाते आचार्य विनोबा भावे अपनी मातुश्री रूक्मिणी भावे की जन्म शताब्दी के निमित्त से बोल रहे थे…. ‘‘हम तीन भाई। तीनों बाल ब्रहृमचारी। हम समाप्तम् तो सब समाप्तम्।‘‘ तभी विचार आया कि एक संस्था बनाकर सेवाभाव से काम किया जावे। मित्रों से सलाह कर प्रस्ताव बाबा के सामने रखा। उन्होने स्पष्ट इंकार करते हुए कहा.. ‘‘संस्थाएं बहुत खुल गई हैं। अध्यक्ष, मंत्री नगर में रहने लगते हैं। कार्यकर्ता गांव में पड़े रह जाते हैं।‘‘ तभी संकल्प किया कि गांव में रहेंगे, जीयेंगे, वहीं मरेंगे। इस संकल्प में इतना दम रहा है कि नगर कल्पना में भी गांव पर सवारी नहीं कर पाया है। संस्थान का नाम माता रूक्मिणी भावे रखा। उन्होने स्वयं भावे शब्द काटते हुए कहा ’’भावे नाम से यह संस्था सौ साल चल पावेगी। कृष्ण की रूक्मिणी के साथ जोड़ कर चलाओ, हजार साल चलेगी।‘‘ पत्र में आगे लिख गया था.. ‘‘बस्तर दण्डकारण्य क्षेत्र है। इसे प्रेमारण्य बनाने का प्रयत्न करेंगे।‘‘ उत्तम प्रयत्न लिखते विनोबा ने सफलता की शुभकामना लिख दी। बस 1976 से बस्तर सेवा का प्रयत्न क्षेत्र बन गया। सफलता या असफलता, सुविधा या विघ्न बाधा, आशा या निराशा, मान या अपमान, ये सारे द्वन्द्व प्रयत्न के सागर में डूब गये हैं। यहां तन-मन-धन सब कुछ सेवा को समर्पित प्रयत्न भर रह गया है।
बस्तर के जिला मुख्यालय जगदलपुर से दस किलो मीटर दूर, राष्ट्रीय राजमार्ग 16 के किनारे बसे छोटे सेे गांव डिमरापाल की एक छोटी सी झोपड़ी में माता रूक्मिणी आदिवासी कन्या आश्रम 11 फरवरी 1976 से प्रारम्भ किया गया। तब बस्तर में महिला शिक्षा एक प्रतिशत से भी कम थी और चार छात्राएं एकत्रित करना चुनौती बन गया था। अथक प्रयत्नों पर निराशा की काली चादर मोटी होती जाती थी। हर प्रयत्न का एक ही उत्तर मिलता था कि ‘‘लड़की कोई पढ़ाता है ?’’ हमें देखकर माताएं अपने बच्चों का हाथ पकड़कर, घर छोड़कर जंगल की ओर भाग जाती थीं। बस्तर के इस प्रथम दर्शन ने हमें आश्चर्य से भर दिया था, जो धीरे-धीरे असफलता में बदलता दिख रहा था। रह-रहकर उपसंचालक श्री भट्ट की चुनौती याद आती थी कि ‘‘मिस्टर सेनी, इफ यू विल कलेक्ट एट गर्ल्स, आई विल वी थैंक फुल टू यू।‘‘ तब इस बात पर तिरस्कार भरी हंसी आई थी, जो अब यथार्थ में दिखाई देने लगी थी । परन्तु हम ‘हारिये न हिम्मत बिसारिये न राम’ के सहारे कर्म करते जा रहे थे । तभी श्रमदान का विचार मन में बिजली जैसा कौंधा। रापा-फावड़े ने जादू की तरह काम किया। गांव के सियान मन आश्रम आए और बोले -‘‘अभी तक कोई गुरूजी ऐसा नहीं आया था।‘‘ इस प्रशंसा के तुरन्त बाद उनका डर प्रश्न बनकर आया कि ‘‘गांव में एक लड़का आठवीं में पढ़ता है। धान के खेत में कीचड़ लगने के डर से नहीं उतरता। अगर लड़की भेजेंगे तो उनसे काम कराओगे ? अगर पढ़-लिखकर उन्होंने धान रोपने और भात पकाने से मना कर दिया तो खेत और घर का क्या होगा ?‘‘ यह उनका डर था जो आश्रम में बालिकाओं को पढ़ने नहीं आने दे रहा था । आश्रम में हाथ से काम और सिर से ज्ञान की शिक्षा को देखकर, आश्रम छात्राओं से भरने लगा। यह बस्तर की श्रम निष्ठा और विश्वास का स्नेहिल दर्शन था। इसे बस्तर की सादगी कहें या गरीबी, शोषण कहें या जीवन शैली, उस समय वनवासी स्त्री पुरूषों के शरीर पर बीत्ता भर या हाथ भर कपड़ा देखने को मिलता था। बस्तर के सुप्रसिद्ध दशहरा पर्व के अवसर पर लाखों स्त्री-पुरूषों को कम से कम कपड़ो में देखकर अफसोस भरा सौम्य आक्रोश रहता था ब्लाउज और कमीज शर्ट, तो शहरी शरीर की शोभा थे। आश्रम की रसोईया कलाबाई को जब पहली बार ब्लाउज पहराया, तो उसने कहा था। ‘‘मुझे लाज लग रही है । गांव में कोई भी स्त्री इसे नहीं पहनती है।‘‘ तब यही उत्तर दिया था कि…‘‘यह लाज लगना नहीं, लाज ढंकना है।‘‘ ग्रामीण जीवन का यह पहला ब्लाउज कुछ वर्षो में ही नई पीढ़ी का सामान्य लिबास बन गया। डिमरापाल में दवा की पहली गोली खिलाने की घटना भी रोमांचक है। गांव पटेल का पुत्र बुखार से तप रहा था उसे गोली खिलानी चाही, तो देवी-देवता कर रहे लोगों और महिलाओं ने मुझे घर से बाहर कर दिया । बाहर बैठा सोच रहा था कि दवा कैसे खिलाई जावे ? तभी लकड़ी के एक ठूंठ को उठाने एक युवक आया परन्तु असफल होकर दूसरे को बुला लाया। दोनों ने आसानी से उसे उठा लिया । इसे परमेश्वर का संकेत माना और मीरी पटेल से कहा ‘‘देखो ! लकड़ी भारी थी, तो दो लोग मिल कर उठा पाये । बीमारी भी भारी है। इसलिए देवी-देवता भी करो और गोली भी दे दो।’’ गोली दी गई। बुखार उतर गया, फिर तो दवा की बात धीरे-धीरे सिर पर चढ़ कर बोलने लगी। माताएं छोटे बच्चों को दवा देने के लिए आने लगीं। मां की ममता दवा की आवश्यकता बनती गई। अब दवा, इंजेक्शन या आपरेशन कोई नई बात नहीं रह गई है। वह जरूरत बनती जा रही है। यह ऐसा समय था जब कपड़ों और दवाओं को जन सामान्य तक पहुंचाने का काम आश्रम ने प्रचार मुक्त मौन से किया था। उस समय गीता के एक सन्देश ने बड़ा सम्बल दिया था। ‘‘किसी की श्रद्धा मत तोड़ो, उसे उच्चतर बनाते जाओ‘‘ इसने हमें धैर्य के साथ जीवन की विभिन्नताओं को समन्वित करने का आधार प्रदान किया। गीता बचपन से पढ़ता था। उसका ‘‘निष्काम कर्मयोग’’, ‘‘योगः कर्मशु कौशलम्‘‘, ’’श्रद्धावान लभते ज्ञानम्‘‘। ‘‘अभयं सत्व संशुद्वि‘‘ और ‘‘नष्टो मोहः …. गत सन्देह‘‘ जीवन में रच पच गए थे, जिन्होंने कर्तव्य के हर महाभारत में ‘‘यतो धर्मः ततो जय’’ का सम्बल दिया। उस समय बस्तर के सरल भक्तिमय जन जीवन का दर्शन गीता से मेल खाता था कि उनकी सेवा के अलावा सोचना शून्य हो गया था। आश्रम के सिवा कोई विचार आता या टिकता ही नहीं था। श्रम से परिपूर्ण दिनचर्या तपों का तप बन गई थी। सफलता असफलता के तनावों से भरे माहौल में धैर्य से प्रयोग प्रयत्न और परिश्रम करते करते परिणामों का अदृश्य अम्बार लगता गया। संस्थान आगे बढ़ता गया। जन जीवन विचार समृद्ध होते गया। मानों रूक्मिणी का कृष्ण बस्तर के जीवन दर्शन को निखार रहा था।
बस्तर में काम करने के लिए कुछ सिद्धांत तय किये थे। उनमें से एक था बस्तर माटी की संस्कृति, भारतीय संस्कृति और आधुनिक संस्कृति का समन्वय करना कि बस्तर में एक नया जीवन लहलहा सके। दूसरा ध्येय था शासन और जनता के बीच एक रचनात्मक कड़ी के रूप में काम करना। जन जातीय क्षेत्रों में यह राष्ट्रीयता के संवर्द्धन की बुनियादी आवश्यकता रही है। इसके विचार प्रसार, समझना समझाना और आश्रम के छात्र-छात्राओं को परिवर्तन का दूत बनाना। बस यही आत्मधारणा रख कर शैक्षणिक सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक क्षेत्र में प्रयत्न किये। इससे परिवर्तन व परम्परा के मध्य वह सौम्य वातावरण बना, जिसमें आश्रम और परिवारों के बीच केवल बालक बालिका थे, जिन्होंने परिवर्तनांे को आश्रम से परिवारों तक पहुंचाया। परिवारों से परिवारों में होते हुए गांव-गांव में चुपचाप फैलते गये। जैसे वे अपने आप हो रहे हैं। इससे कहीं लादने या थोपने का प्रश्न ही नहीं रहा। यह अहिंसा मूलक सेवा का कमाल रहा है। यह शान्तिमय मौन क्रान्ति थी। उस समय घरों में बर्तन नहीं के बराबर थे। पुरस्कार में बर्तन दिए। खेस, कम्बल और नये बीज दिए। रक्षाबंधन के त्यौहार ने आश्रम बालाओं में एक नई स्फूर्ति पैदा की। खेलों और विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम तथा स्पर्धाओं ने जीवन के विविध क्षेत्रों के द्वार खोल दिये। इसमें शैक्षणिक प्रवासों ने जो जम्मू-कश्मीर से कन्या कुमारी और पंजाब से आसाम तक हुए। छात्राओं में नई रोशनी पैदा की। नया दर्शन, नये बोल, नया परिवेश देखते हुए उनमें विकास और परिवर्तन का मार्ग सुलभ कर दिया।
बस्तर आने से पूर्व विनोबा जी ने एक प्रश्न पूछा था- ‘‘ यह जानते हो कि भारत का अधिकांश खनिज कहां दबा पड़ा है ?‘‘ उत्तर में कहा था ‘‘कामर्स का विद्यार्थी हूं इसलिए पता है कि वह ट्रायबल क्षेत्र में है।‘‘ उन्हांेने प्रकाश सी जगमगाती प्रसन्नता से कहा था- ‘‘केवल खनिज ही नहीं वहां हजार सालों की अनछुई प्रतिभा भी पड़ी है। तुम्हारा काम उसे निखारना होगा।‘‘ बस्तर की धरती पर पांव रखने से पहले दिन से प्रतिभा तलाशने और निखारने का तप गंगा की तरह पावन रूप से बह रहा है। चल रहा है। जीवन का कोई भी क्षेत्र हो, सही व्यक्ति चुनों, प्रोत्साहन और प्रोत्साहन और प्रशिक्षण दो, प्रतिभा उभरने में देर नहीं लगती। वह निखरती और चमकने लगती है। अभी उसमें जैसा चाहिए वैसा स्वालंबी भाव तो नहीं आया है, जिस दिन वह आ जावेगा बस्तर में तप की सफलता का स्वर्णिम दिन होगा। प्रतिभा अपने बल पर अपनी अभिव्यक्ति करे। इसी यथार्थ को साकार करने की प्रार्थना चलती है, जो आज नहीं तो कल अवश्य सफल होगी। इसमें सबमें बड़ी परेशानी आर्थिक लगती है। समर्पित कार्यकर्ताआंे की लगती है।
बस्तर आते समय रचनात्मक जगत के बुर्जुगों द्वारा एक समझाईश दी गई थी कि आश्रम का वातावरण ग्रामीण रखना और जन जातियों के मित्र साथी विचारक बनकर काम करना। बाबा ने गांव में रहने का आग्रह रखा था। जैसे बंदरिया अपने बच्चे को छाती से चिपकाए रखती है, वैसे ही इस विचार को आत्मसात कर कार्य किया, जिसका परिणाम है कि कहीं कोई भेदभाव, अलगाव, दूरी, परायापन रहा ही नहीं है। इस धारणा ने विश्वास पाने में बुनियादी काम किया कि स्वयं का व्यक्तित्व बूंद बनकर बस्तर के जनजातीय सागर में मिल कर सागर बन गया है। यहां आने के बाद के वे दिन मुझे याद आते हैं, जब हम एक दूसरे की भाषा बोली नहीं जानते थे। ठीक से समझ नहीं पाते थे पर मन में सोच कर थोड़े से शब्दांे में व्यक्त कर सब कुछ समझ सकते थे। दो चार घटनाएं तो चमत्कारी है, जिनमें शब्द संवाद हुआ ही नहीं पर बात समझ में आ गई। यह उस समय का अद्भुत अविस्मरणीय करिश्मा जैसा है, जिसे भूलाया नहीं जा सकता। अब बस्तर की अभिव्यक्ति शक्ति शिक्षा, सड़क और व्यापार प्रसार से बढ़ गई है। परन्तु वह शब्दमुक्त समझ लुप्त प्रायः हो गई है।
बस्तर के आर्थिक जीवन में भी बड़े फेर बदल हो गए हैं। 1976 की तुलना में 1985 के बाद नई सोच, नये कार्य, नये क्षेत्र और नई प्रवृत्तियों ने तेजी से जन जीवन के मानस में प्रवेश किया। सन् 2000 के साथ समझ स्वीकार और अस्वीकार में आधुनिकता के दर्शन होने लगे है। इसमें बस्तर में हुए 90 के दशक के शैक्षणिक और आर्थिक आन्दोलनों का बुनियादी तथा रचनात्मक प्रभाव रहा है। युवा पीढ़ी ही नहीं प्रौढ़ और सयान लोगांे के मन-मस्तिष्क तक कुछ न कुछ नई रोशनी पहुंची है। अब नकारना और पलायन के बजाय देखने समझने और करने का प्रयत्न वाला वातावरण बनता जा रहा है। हजार सालों के परम्परागत सामाजिक जीवन में परिवर्तन की गति धीमी कहो या धैर्य भरी कहो ही रहेगी। कोई भी प्राचीन समाज एकाएक नहीं बदल सकता। वह अपने में नया समेटता और समन्वयी उत्पादकता वाला होता है। भारत की माटी में तो हजार सालो का ऐसा इतिहास रचा पचा है, फिर बस्तर अलग कैसे हो सकता है। संस्थान ने इसी ऐतिहासिक समझ से आश्रमीय कार्यों का जीवन खड़ा किया है। जिससे विकास तथा परिवर्तन में परम्परा की प्रतिभा जोड़ने की कला विकसित होती दिख रही है। एक समय था, जब आश्रम में 2 पैसे की पेन्सिल खरीदने को कहने पर पालक अपनी बेटी का हाथ पकड़ कर आश्रम स्कूल से घर ले जाने को तैयार दिखता था। अब वह हजार रूपया खर्च करके भी पढ़ाना चाहता है। उस समय की शादी में एक टोकरे में आदान-प्रदान का सारा सामान समा जाता था, अब कम से कम दो एक गाड़ी सामान घर गृहस्थी जमाने के लिए रिश्तों से मिल जाता है। विगत 15-20 वर्षों में कला कौशल, उद्योग धन्धों और सांस्कृतिक आयोजनों में भाग लेने के लिए बस्तरिया देश विदेश घूमने लगे हैं। वनोपज और खेतीबाड़ी की सामान्य उन्नति तथा बढ़ते भावों ने आम जीवन में खुशहाली की किरण पहुंचाई है। अन्धेरा अभी भी बहुत है परन्तु उसे मिटाने के लिए रोशनी करने की ललक व्याप्त हो गई है। आजादी के बाद जंगल कटने का सिलसिला चला, जो आज भी बन्द नहीं हुआ है। खेती की आकांक्षा आसमान छू रही है, फिर भी, वनों मंे जनभागीदारी, वनोपज के बढ़ते भावों, वृक्षो से प्यार तथा उनके अभाव में रहने की विवशता अब पेड़ो की रक्षा की भावना जगा रही है।
पंचायती राज की, विशेषकर जन जातीय क्षेत्रों में चाहे जितनी आलोचना की जावे, निंदा के नगाड़े पीटे जावें, बेरहम होकर पोस्टमार्टम किया जावे, उसने बस्तर में नेतृत्व के अकाल को मिटाने में सबसे कारगर कार्य अंजाम दिया है। बस्तर का गरीब परन्तु स्वाभिमानी, सुविधाहीन पर स्वतंत्रता प्रिय, भोला-भाला, सरल-तरल आदमी अपने परिवेश में जिस कार्य को अपने लिए चाहता था उसे पूरा करने का अवसर पंचायती राज ने दिया है। यही नहीं उसके आवश्यकता बोध को पूरा करने का मार्ग भी पंचायती राज से मिलता जा रहा है। पंचायती राज गांव-गांव तक भ्रष्टाचार फैलने की बात भी बड़े जोर-शोर की जाती है। परन्तु शहरों और नगरों के विकास में उसका आंकलन तो कीजिए ? आंखें खुली रह जावेंगी। पहले भ्रष्टाचार द्वारा गांव से धन बाहर नगरों में जाता रहा है। अब एक अन्तर आ गया कि बाहर से कुछ धन गांव में भी आने लगा है। इसे केवल भ्रष्टाचार का मानना गांव के प्रति अपराध का प्रतीक है। इस बदलाव में पगडन्डी की जगह सड़क, पैदल की जगह वाहनों, बिजली के खम्बों, आंगनबाड़ी, पाठशाला भवनों तथा छोटी-छोटी बढ़ती दुकानों से आता देखा जा सकता है। घास-फूस की झोपड़ियां खपरों से टिन तथा पक्के मकानों में बदल रहे है। यह सब होते भी अभी पंचायती राज को ग्राम स्वराज्य के रूप में आने के लिए समय और समझ की आवश्यकता है। आज नहीं तो कल ग्राम सभा का चेतना भरा स्वयं स्फूर्त आन्दोलन उसे ग्राम स्वराज्य में परिवर्तित कर ही देगा। जिस दिन गांव अपनी योजना अपनी ग्राम सभा में बनाने लगेंगे उस दिन को ग्राम स्वराज्य का द्वार कहा जावेगा।
बस्तर क्षेत्र की वर्तमान स्थिति में नक्सलवादी आन्दोलन को कौन अनदेखा कर सकता है। उनके विचार में यह समता मूलक है। शोषण विरोधी है। गरीबों को राजनीतिक शक्ति बनाने वाला है। दूसरी तरफ इसने वनों में बिखरे जीवन को संगठित करने का प्रयत्न भी किया है। यह आन्दोलन लोगांे को जागृत करता हुआ भी लगता रहा है। इससे कुछ सकारात्मक डर भी पैदा हुआ है। इसने सड़कों के विकास को जरूर अवरूद्ध किया परन्तु पगडन्डियां जीवित हैं। गांवों का बचपन, किशोर और युवक एक तरफ लोकतंत्र के विकास मंत्र से परिचित हो रहा है, तो दूसरी तरफ माओवाद के विचारों और हथियारों से सम्पर्क में आ रहा है। अब कैम्प लगाएं सशस्त्र बल भी उनके जीवन में हलचल पैदा कर रहे हैं। इसलिए गांवों के शान्त जीवन में बड़ी मनोवैज्ञानिक हलचलंे होना रोज की बात बनती जा रही है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह वनों के बीच गांवों और ग्रामीणों में यथा स्थिति को समेट कर नई जागृति लाने वाला होगा। सड़क किनारे से लेकर आन्तरिक से आन्तरिक अंचलों में सड़क शिक्षा विकास सुविधाएं और बुलेट की आवाजों का शोर कहीं धीमा कहीं धमाकेदार मचा हुआ है। इसमें जो दिलों को जीत जावेगा वही मार्ग दर्शक बनेगा। स्वराज्य के दसियों सालों में नई आशाएं जागी है, तो निराशाएं भी पनपी हैं। विचारधाराओं के साथ सुविधाओ ने भी जीवन शैलियों में सक्रियता पैदा की है। परिवर्तन की गति कहीं आश्चर्य पैदा कर रही, कही स्फूर्ति तो कहीं क्रोध-नाराजगी भी जन्म ले रही है। कहीं परम्परागत सुविधाएं समाप्त हो रहीं तो नई सुविधाएं उसे गति से नहीं मिल पा रही हैं। इससे अस्थाई नाराजगी का अम्बार लगता जा रहा है। कई नई सुविधाओं ने खुशी की लहर भी पैदा की तो विकास की इच्छापूर्ति की कमी भी खटकती दिखती है। इस खुशी और नाराजगी के बीच यथास्थिति का आवरण भारत के लोकतंत्र को चुनौती भी है कि वह पिछड़ों अशिक्षितांे, दरिद्रांे को राजनीतिक शक्ति बनने के मार्ग को सरल और सुस्पष्ट करें। उन्हे आर्थिक, शैक्षणिक, सामाजिक खुशहाली और स्वाभिमान में योगदान करने का अवसर दें। इस अवसर का द्वार खोलने के लिए नक्सलवादी बंदूक के रास्ते से चल रहे हैं। इस मार्ग को बुद्ध और गांधी की भूमि क्यों स्वीकार करें ? सत्ता परिवर्तन में अहिंसक स्वभाव वाला लोकतंत्र भी बुलेट की सीधी हिंसा को नकारता और ललकारता दिख रहा है। ऐसी स्थिति में यहां के जन गण मन की खुशहाली के लिए वह बलिदान में भी आगे बढ़ गया तो निसन्देह बलिदान और विकास का सत्य विजय का पथ प्रशस्त करेगा। बुलेट की आवाजों से गूंजती भारत की ऐसी आक्रान्ति धरती पर कौन इस सत्य को साकार करेगा ? जो भी करेगा वही सफल होगा। लोकतंत्र इस पथ का सेवक बन कर चलने वाला तंत्र बनता जावेगा तो परिणाम सकारात्मक होने की सम्भावना बढ़ती जावेगी। देश की जनजातीय क्षेत्रों में आमने सामने में धाराएं निसन्देह जागृति की लहरें उठाने में सक्षम होती रहेगीं तब भी शिक्षा और विकास इसमें निर्णायक रोल अदा करेगा।
बस्तर का आर्थिक सामाजिक जीवन आज भी गहन सघन वनों के अन्दर वनोपज पर मुख्यतः आधारित है। गांव अभी भी पारों में बिखरे हैं। खेती छोटे-छोटे टुकड़ों में विभक्त है। वह रोजगार का बड़ा साधन शायद ही बन पावे अगर बनेगी तो वनों का विनाश करके ही यह हो सकता है। पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण कृषि योग्य भूमि का अभाव हमेशा ही बना रहेगा। अगर वनों का व्यापक विनाश हुआ तो झाबुआ की तरह बस्तर भी मजदूरों के पलायन की भूमि बन जाने को अभिशप्त होगा। वहीं भारत का एक और पर्यावरण बैंक उजड़ जावेगा। अतः यहां खनिजों का उत्खनन, वनोपज दोहन और धन्धों का जाल बिछाने के लिए आवागमन के साधनों का दिन दूना रात चौगुना विकास करना कारगर तरीका होगा। ये कार्य भी शिक्षा के अभाव में असरदार नहीं हो सकेंगे। इसलिए शिक्षा के विस्तार के लिए हिमालयी प्रयत्न जरूरी है। इसमें भी आश्रमीय शिक्षा सफलता के नये अवसर और परिणाम देने में सबसे अधिक सक्षम दिखाई देती है। बशर्ते इसे प्रतिबद्ध होकर किया जावे तथा किसी भी प्रकार की लूटपाट पर कड़ाई से अंकुश रखा जावे। इस हेतु से आश्रमों को सड़क किनारे बना कर उसके अधीक्षक और शिक्षक जाति भेद के बिना रखे जावें। बस्तर का नया दर्शन एक और बात पर निर्भर करेगा कि क्या अगले 25 सालों में हर 20-25 कि.मी. पर कस्बों का विकास किया जा सकता है ? संगठित गांव, छोटे नगर बस्तर जैसे क्षेत्र को नया रूप दे सकते हैं। यह बस्तर विकास का आधुनिकीकरण वाला दर्शन है, जिसे शिक्षा सड़क और उद्योग मूलक बना कर पूरा किया जाना होगा। माता रूक्मिणी सेवा संस्थान ने प्रारम्भिक दिनांे में ही सड़क किनारे से दूर भागने की जनजातीय प्रवृत्ति को बदलने में विचार प्रसार का काम लगन से किया है। अब सड़क से दूर भागने की नहीं, सड़क के निकट आने की प्रवृत्ति आती जा रही है। यह बस्तर दर्शन का सकारात्मक पहलू है, जो उसकी आधुनिकता का प्रतीक है। यही प्रवृत्ति है, जो नये गांव-कस्बे तथा छोटे नगर बनाने में मददगार होगी। यह बस्तर विकास की ‘मास्टर की’ भी है।
आजादी से पहले और आज भी बस्तर हरिभरी पहाड़ियों से सजा धजा सुरभ्य क्षेत्र बना हुआ है। यह शुद्ध वायु आक्सीजन उत्पादन के प्राकृतिक कारखाने जैसी धरती है। यह सुनहरी, स्वच्छ, विटामिन डी भरी उर्जा से परिपूर्ण धूप से समृद्ध है। महानदी इसका सिर धोती है। इन्द्रावती और शबरी शरीर तो गोदावरी चरण पखारती है। यह राम वन गमन की पावन भूमि भी कही जाती है। किवदन्ती यह भी है कि दन्तेवाड़ा में सती का दांत गिरा था इसलिए माता दन्तेश्वरी शक्ति पीठ है। चित्रकूट के जल प्रपात की गम्भीर धड़धड़ाती आवाज रोम रोम में सिहरन पैदा करते हुए सतरंगी इन्द्रधनुष आंखों के सामने और दिल के अन्दर रंग बिखेर जाती है। तीरथगढ़ का अपना सौन्दर्य निराला है। कल कल छल छल करती सहस्त्रों धाराएं आंखों से दिल दिमाग में बहने लगती हैं, तब सोच में न कल रहता है और न छल रहता है। केवल वर्तमान का सौन्दर्य रह जाता है। प्रशंसा के भाव सहज जन्म लेते मचलते हैं। बस्तर के प्रपातों का यह आकर्षण पर्यटन को कल्पना को सावन के मेघों की तरह उमड़ता घुमड़ता रहता है। बस्तर के झरने, सरगी के लुभावने वन और कोटमसर जैसी आश्चर्य चकित करने वाली गुफाएं पर्यटन उद्योग के लिए तैयार बैठी हैं। इनका प्रचार प्रसार और प्रबन्धन बस्तर की कीर्ति में चार चांद लगा देगा। अब दण्डकारण्य की यह प्राचीन धरती राष्ट्रीय राजमार्गों से उत्तर -दक्षिण और पूर्व पश्चिम में संवरती अपनी भाग्य रेखा का निर्माण कर रही हैं। वहीं बैलाडीला से विशाखापट्टनम् और निर्माणाधीन जगदलपुर रावघाट दल्ली राजहरा रेल लाईन इसकी गतिरेखा बन कर इसे विकास की स्फूर्ति से भरने वाली होगी।
बस्तर के गांव विविध वृक्षों के सागर में बसे हैं, जो ढ़ोल नगाड़ों, गीतों और घुघंरूओं से गूंजते रहते हैं। मस्ती से नृत्य करना यहां के सारे दुखों की दवा है। इसके बजाय यह कहना उपयुक्त होगा कि नृत्य यहां सुखों का संसार रचते हैं। यहां की जन जातियों का स्वतंत्र स्वाभिमान, स्वाधीनता के बडे़-बडे़ सेनापतियों से प्रतिस्पर्द्धा करता लगता है। पसीने से स्नान करते पुरूषार्थीजन, धान्य धन उगाते, वनोपज एकत्रित करने में मगन, सड़कें बनाते हैं। भवन खड़े करते हैं। पर्व उत्सव मनाने में समर्पित भाव से डूबे वे सारे कष्टों संकटो को सरलता से पार करते दिखते हैं। यह उनकी मुस्कराहट और हास्य उल्लास से अभिव्यक्त होते देखना रोमांचित कर देता है। सचमुच ये पृथ्वी पुत्र हैं। अमृत संतान हैं। वे चाहे भूखे रह जावें पर भीख मांगते नहीं दिखेंगे। अब भूखा रहने का तो कोई कारण नहीं रहा है। चाउर बाबा का सस्ता चावल नमक उनको प्राप्त है। वे वनों में दिन रात खतरांे से खेलते, जीते अब शिक्षा सड़क और बाजार के सम्पर्क में आकर हुनर सीख रहे हैं। व्यापार धन्धों में लग रहे हैं। अथक परिश्रम कर छोटे-छोटे खेत बना रहे हैं। अपनी परम्पराओं को आधुनिकता में संवारते, सहेजते, साधते हुए राष्ट्रीय विकास में धीरे-धीरे योगदान कर रहे हैं। पगडंडियां अभी भी सम्पर्क मार्ग बनी हुई हैं। यहां-वहां घास फूस की झोपड़ियां आदिम युग की पहचान भी बनी हुई है। यह भी सच है कि बाल किशोर युवा दिलों में नया जमाना अंगडा़ई ले रहा है। टी0वी0, रेडियो, मोबाईल नए शौक बन रहे हैं। साईकिलों से मोटर साईकिल और चार पहिया गाड़ी भी महत्वाकांक्षा की सीमा में सम्मिलित हो रही है। शादी विवाह के अवसर आधुनिकता की दिवाली मनाने लगे हैं। कभी -कभी, कहीं-कहीं लगता है कि बस्तर आधुनिकता की मस्ती में झूम रहा है। यह खुशी कस्बों, गांवों में भी झलकती मिल जाती है। निसन्देह यह आम जीवन नहीं है पर यह तो बताता है कि जन जीवन किस दिशा में बढ़ रहा है। जब सारी दुनिया में आधुनिकता की हवा बह रही है, तो बस्तर भी कैसे अछूता रह सकता है? उसकी विशेषता तो यह है कि नए रंग नए ढ़ंग में रमते भी वह अपनी विशेषताओं को, परम्पराओं को सहजते बढ़ रहा है।
बस्तर क्षेत्र में बैलाडीला का फौलादी पर्वत गर्व से सीना ताने दक्षिण बस्तर दन्तेवाड़ा में खड़ा है। जो आज नहीं तो कल भारत की औद्योगिक शक्ति बनेगा। निःसन्देह यह विकास के द्वार खोलेगा। ऐसा करते हुए विस्थापन का दर्द नहीं जैसा हो तो स्थानीय जन गण मन के लिए स्वतंत्रता का उत्सव भी होगा। दक्षिण बस्तर के विकास में एन0एम0डी0सी0 सड़कों, भवनों और जावंगा जैसी एज्यूकेशन सिटी के साथ कृषि, बागवानी तथा दूध उत्पादन व अन्य रोजगार मूलक कार्यों से इस भू-भाग के जन जीवन को सुधारने में प्रशासन भी साहस से कार्य कर रहा है। अलग-थलग से बसे बीजापुर और सुकमा भी अब नई उड़ानें भरने की स्फूर्ति से कुछ न कुछ चुनौती भरा करने के लिए तैयार हो गए है। चुनौती नव स्फूर्ति देने लगे तो राह रोकने वाले प्रश्न समाधान बनने लगते है। यह एक सहज सरल स्वभाविक स्थिति या बात है कि ऐसा करते हुए हर प्रश्न और हौसला मांगता है, जिसमें धीरता हो, वीरता हो जो एक बडे़ उद्देश्य से अनुप्राणित हो । बस्तर में ज्ञान से भरे सुनहरे दिन निकट आते जा रहे हैं, जब आश्रमों और शालाओं के बालक बालिकाएं आधुनिकता को स्वीकारते, तनावों को सहते नकारते, विकास को समझते सहेजते, कुछ आदतों में सुधार लाते हुए अपने कदम आगे बढ़ाते जावेंगे। बस्तर के स्कूलों में विज्ञान की तरफ बढ़ता रूझान शिक्षा में आयी सर्वाधिक सकारात्मक पहचान कही जा सकती है। अब प्रयास जैसी ‘छू लो आसमान’ और उड़ान जैसे शैक्षणिक संस्थान बालक बालिकाओं को नई पहचान देने लगे है। अशासकीय संस्थाओं ने भी बस्तर की प्रतिभा को रूझान, उड़ान और शानदार पहचान दी है। बस्तर अब खेलकूद के क्षेत्र में अपना दमखम सिद्ध कर रहा है। शालेय खेलकूद के अलावा अन्य प्रतियोगिताओं में भी बस्तर की युवा पीढ़ी राज्य स्तर पर अपनी पहचान बना कर विजय पताका फहरा रही है।
आर्थिक गतिविधियों में स्वसहायता समूहों में महिलाएं अपने स्वालम्बन के परम्परागत कार्यों के अलावा नए क्षेत्र खोज रही हैं। नारी शक्ति जागेगी। सारी विपदा भागेगी को चरितार्थ करती स्त्रियां आत्म निर्भरता की फौज बन रही है। बस्तर को अब अपनी बंजर पड़ती धरती को सुधारने संवारने की योजना चाहिए। जल संग्रह कार्यक्रम यहां का कायाकल्प कर सकता है। मनरेगा योजना इसके पिछड़ेपन को दूर करने में सहायक होती लगती है। अगर ये कार्यक्रम फाईलों से जमीन तक निरन्तर पहुचते रहें तो बस्तर की धरती अपने नौनिहालों को खुशहाली से भरने में समर्थ हैै। अब बस्तर माटी का कण-कण अपने मन की कह रहा है, छत्तीसगढ़ से कहा रहा है, भारत से कह रहा है, हमें अवसर दो हम विकास से राष्ट्र की गोदी भर देंगे। बस्तर अब अपनी परम्परागत स्वतत्रंता और भारतीय स्वाधीनता का प्रयागराज बन रहा है ।
माई दन्तेश्वरी की असीम कृपा से उसकी भुजायंे विकास के लिए फड़क रही हैं। उसके आशीर्वाद से उसका हृदय आधुनिकता का स्पन्दन करने लगा है। उसके मस्तिष्क में कुछ कर गुजरने के सपने मचल रहे हैं। संकल्प में बदलते ये सपने विकास में साकार होकर ही दम लेंगे।