पदमश्री धर्मपाल सैनी की कवितायेँ

पदमश्री धर्मपाल सैनी की कवितायेँ

 

पृच्छा
-1-

काम पृच्छा
आयु में अमर है,
अस्तित्व हित
अजर है
सुख की डगर
ब्रह्मानंद सहोदर है।
कभी देह, कभी वस्तु,
कहीं मौन आकर्षण,
कहीं मुखर कल्पना,
जीवन में छिपी,
जीवन की पहचान,
प्रवृत्ति हो प्रबल,
निवृत्ति हो निबल,
इच्छाओं के जंगल में
संयम शान्ति अनुभूति
अमर पथ संज्ञान।
-2-

काम पृच्छा
जीवन उद्देश्य के
समर में संधान,
बन आह्वान,
अबाधित हो
रूपान्तरण प्रज्ञान,
आत्मबोध में
अवतरित
कर्म कौशल
रसवान,
प्रेमतृष्णा का
अवसान,
आयु के नमक का
मरण में पर्यवसान।
-3-
मैंने इन शब्दों को
जगाया नहीं,
ये उतरे हैं
मुझे जगाने
जगत को बताने,
आए रिझाने।
लगते जाने अनजाने,
चित्त बखाने,
चिन्तन सुलझाने,
बोध प्रकाश दिखाने,


तुम ईश्वर की प्रतिभा हो

ऐ मेरे अरमानों,
सपनों में मचलो,
आशा के आसमान में
साहस की भरो उड़ान
लक्ष्य की रखो कमान,
उपभोग की तड़ातड़ी में,
धरती पर रहो
संसाधन अनंत नहीं हैं
भले ब्रह्माण्ड अनंत हो।
किसी प्रपात को निहारो,
वन के पग पखारो,
सड़क की स्वतंत्रता संवारो,
किसी स्कूल के आंगन में,
गुलाब उगाकर,
गेंदा खिलाकर,
मोगरे की खुशबू बन
हवा में झूलो तो सही।
पढ़ने वालों के दिलों में
विस्तार का उल्लास,
कुछ नया करने का साहस,
जीवित पृथ्वी के,
असीम अंतरिक्ष के
रहस्यों के घंूघट हटाओ।
कर्म में कौशल रचते
प्रेम पथ पे चलते रहो,
तुम स्वतंत्रता के प्रश्नों में
समाज की ऊर्जा हो,
सांस हो संस्कृति की,
प्रकृति का पर्व हो,
तुम ईश्वर की प्रतिभा हो
मनुष्य के अवतार में।।

मेरे उलटे सुलटे बोल

मैंने सपनों में सपना खो दिया,
मेरे हंसने में हंसना खो गया,
मैं रोने में रोना जोड़ रहा,
मैं भाग्य में भाग्य खोद रहा,
मेरा मैं, मैं में खो, डूब रहा।

मुझे चलना सिखाया, मैं दौड़ रहा,
मुझे जोड़ना बताया, मैं घटा रहा,
मैं घटने में जुड़ना सीख गया,
मैं झूठ में झूठाई रीत गया,
मेरा ‘मैं’ विद्रोही बन, जूझ रहा।

मेरा त्याग, त्याग में लगा तैरने,
मेरा ज्ञान, कर्म में लगा पैठने,
मेरा प्रेम, भक्ति में मगन डूबने,
मेरे कर्म चले, ऐसे तन मन में।

को अहम् ?

अपने आपको जानो,
पाओगे केवल तन नहीं,
केवल आत्मा भी नहीं,
बुद्धि की बात क्या
श्रम शक्ति भी केवल नहीं।
तन अनुपम अवतार ब्रह्माण्ड का,
चेतना अनंत ब्रह्म की
तप रही तन में,
ज्ञान कर्मप्रेम का
प्रवाह महिमावान है।
अकेला तन नहीं है, प्राणी
मानव में ओत-प्रोत ऊर्जा हुई,
चेतना का आनंद कोष
देह में सुख हुआ,
मन में रममाण है।
हर देह ब्रह्माण्ड गागर है,
आत्म चेतना सागर है,
हम देह ही नहीं, यह कहते
योगा करता, तन के द्वारा
आत्म समत्व उजागर है।

गांधी दर्शन

अहिंसा,
सत्य के प्रति
प्रेम का
चरमोत्कर्ष है।
उसके वैभव का,
प्राणपन से,
प्रयोग प्रसार का
जीवन जिया
दर्शन है,
दोनों जहां एक है,
वहीं अमरत्व है।
भिन्नता में एकता का
अद्वितीय अपनत्व है
एक का विविधता में,
अद्वैत अभिव्यक्त है।
जगत की स्फूर्ति में
एकत्व की निष्पन्नता,
बोध की शान्ति,
कर्म की अनासक्ति
निसृत है,
तृप्त है,
नहीं कहीं भ्रान्ति।

अनुभवों का प्रश्न ?

जीवन के बदलते
परिवेश में,
परिवर्तन भरी राहों में,
नित्य नूतन होते लक्ष्यों में,
चुनौतियों के अन्दाजों में,
बीते अनुभवों का क्या करें ?
इतिहास सुनें या
रचे इतिहास ?
समय उड़ा रहा उपहास,
रचते इतिहास से उगते अनुभव
किसका वरण करें ?
परिवर्तन का सृजन करें ?
शाश्वत मूल्यों की ऊर्जा
अनुभवों का आत्मिक बल है,
उसको साधे,
सब सध जावेगा,
परिवर्तन का छल
मिट जावेगा,
नया इतिहास रच पावेगा,
अनुभवों से सज जावेगा,
नव परिवर्तन काल।

श्रद्धा

मेरी श्रद्धा की सच्चाई
तर्क और प्रयोग
पंखों से उड़ान
भरती है,
आसमान छूने में
संदेह हरती
साहस भरती है।
वह मनमाने लाभ के
विश्वास की झंकार नहीं
परिणामों पर सवार
सार्थक विचारों से
उद्देश्य पगी,
हुंकार रही।
कभी औजार,
कभी हथियार
दोनों भी साथ रही।
मेरी श्रद्धा,
कभी नाव,
कभी मल्लाह,
कभी पतवार रही,
तीनों अलग-थलग नहीं,
उद्देश्य सगी,
स्वतंत्र रही।

मेहमान

मैं कांगेर घाटी के
गहन सघन बन में
धंसता जा रहा हूं,
मेरी आंखों ने
देखना छोड़ दिया है,
कान केवल झिंगुर की
आवाज सुन रहे हैं,
धीरे-धीरे शांति में
वह भी खो गई।
अपने आप में,
भय में, अभय खोजता
सिमट कर
अकेला रह गया हूं।
शांति के बियावान में
अकेले खड़ा
जंगल हो गया हूं।
चौरासी लाख योनियों के कोलाहल में घिर कर
अपने में रम गया,
सोच में बहते-बहते
अपने अंदर की
शांति में थम गया हूं।
यह शांति मेरी पहचान है,
आनंद, इसका धर्म,
वस्तुओं के सुखी
संसार में आते ही
यह कुछ क्षणों की मेहमान है,
फिर भी
मेरा अमृत ज्ञान है।

हाईकु

भोग हो रोग
संयम सही दवा
त्याग से भोग।

जीवन जागा
आयु बाहर भोगा
अन्दर योगा।

चीजों की मौज
भोग भूख बढ़ाती
रोगों को लाती।
जीवन ज्ञान
अन्दर युद्ध बना
बाहर गान।

आजादी लाई
पन्द्रह अगस्त को
समता आंधी।

फूल की कला

मुझे गुलाब ने
फूल नहीं कांटे दिये,
उसकी वेदना ने ही,
मुझे रूलाया,
सोते से जगाया,
अब फूल को
कैसे सराहूं,
यही सोचता हूं,
कांटों का दर्द
मोचता हूं,
मोचते, कोसते
मुक्त हो रहा,
फूल भी
आकर्षण धो रहा।
गुलाब का पूरा अस्तित्व
नग्न खड़ा है,
जिद पर अड़ा है,
जीवन में
दुख की पीड़ा
सुख का फाग
वैसा ही लगा है।
गुलाब मुझमें
रोने लगा,
मेरी थपकी से
सोने लगा,
उसकी चैन बन गई,
कांटे फूल में
विसर्जित हो गए,
प्रभात ने उठाया
गुलाब का ताजा फूल
सम्मुख आया,
कांटों में खिला हूं,
ऊपर उठ कर
जियो मित्र
कष्टों को तप कर
खुशी में खिलो
जीवन कांटों की नहीं
फूल की कला है,
यह कांटों की
सच्ची सलाह है।

वीर भोगता है भक्ति

जीवन,
चुनौतियों के महासमर में
प्रयत्नों की लहरों पर
जिजीविषा सवार हो,
आशा जोड़ता, संवारता,
निराशा फेंकता, रौंदता,
छोटा बड़ा ध्येय लिए
हर काल सजग सतर्क
नींद भी, मौत भी जागता,
धूप, शीत, वर्षा सहन
उपलब्धियों में रह मगन,
जीवन सुख भोगता,
दुखों से बचने
अपने को खोजना,
जीवन में
बोध देती हर चुनौती,
बोझ नहीं कोई मनौती,
इच्छा में भरती ज्योति,
साहस का नेत्र तीसरा
जगा देता कर्म हस्ती,
यत्नों को प्रखर कर
प्रशस्त कर मार्ग मस्ती,
हार को हजम करते जीवन
वीर भोगता है भक्ति।

पैसा

पैसा अपनी हदें पार कर रहा,
इंसान के हाथ का मैल
भगवान बन रहा।
उसके मुंह पर
भूख और दरिद्रता की
कालिख लगी है,
उसे मिटाने के बजाय
वह आईने पर
आरोप जड़ रहा।
ईमान पहले भी पैसों से
घिरा रहा है,
पर अब पैसों का राज
ईमान के राज से
अलग हो गया है।
मजा यह कि ईमान
खुद खोज रहा ईमान
पैसा हर कहीं उसे घेर रहा,
सुन्दर, कुरूप, अच्छा बुरा
सत्य असत्य का प्रकाशन
पैसा पैसे को लूट रहा।
ईमान को गरीबों में छोड़
खुद अमीर हो गया
कहीं सड़क, कहीं भवन
कहीं सेना कहीं युद्ध
कहीं ऑंसू, कहीं प्यार
कहीं बीमारी, कहीं ईलाज
वह दिल तोड़ने वाला
बेगाना हो गया।
वह वस्तुओं के विश्व का चक्रवर्ती सम्राट है,
कहीं कानून के अन्दर कानून,
कहीं कानून के बाहर कानून,
करता और कराता है,
रूकवाता और तरसाता है,
मोलना बेचना उसका संस्कार है,
घर हो, परिवार हो,
राज का काज हो,
धर्म अधर्म, साज बाज,
कल हो आज हो,
क्या कहूं, कहां कहूं, कहां न कहूं
बस वह अतृप्त अंगार है।