अंक-8-बहस-कहानी के तत्व: नाटकीयता और बुनावट

कहानी के तत्व: नाटकीयता और बुनावट


आज हम कहानी के दो प्रमुख तत्वों पर बात करना चाहते हैं। कहानी में नाटकीयता और कहानी की बुनावट। इन्हें अंग्रेजी में ड्रामा और टेक्सचर शब्द दिया गया है। हम आलोचकों की बातें सुनते आये हैं कि कहानी में टेक्सचर नहीं दिख रहा है, कम्पोजिसन संतुलित नहीं है और नाटकीयता अथवा ड्रामेबाजी अत्यधिक है। यह नाटकीयता से परे यह कहानी लिखी गई है।
हम विचार करेंगे कि क्या एक कहानी बिना नाटकीय हुए लिखी जा सकती है। नाटकीयता, ड्रामा अथवा ड्रामेबाजी से क्या अर्थ लगाया जाना चाहिए। उसी तरह कहानी की बुनावट अथवा उसकी भाषा की बुनावट या टेक्सचर कैसी है, और उनका कहानी से, अथवा कहानी के नाटकीय तत्व अथवा संरचना से क्या संबंध है । ये कहां तक जरूरी है और इन्हें हम कैसे समझें।
सबसे पहले हम इन्हें समझने का प्रयास करेंगे, एक तरह से परिभाषित करना चाहेंगे। कला का कोई रूप हो, यथा-कहानी, कविता, उपन्यास, आलेख, चित्रकला, नृत्य अथवा संगीत-इन तमाम में ये ड्रामाई तत्व, बुनावट और संरचना घुले-मिले होते हैं। किसी की आवाज ड्रामाई हो सकती है, किसी के भाषण में टेक्सचर मिसिंग हो सकता है, किसी संगीत का कम्पोजिसन साधारण या उत्कृष्ठ हो सकता है। नृत्य और चित्र अथवा संगीत कला की आलोचना क्या, समीक्षा तक संभव नहीं।
ये सारे तत्व कथा-कर्म में इस प्रकार घुले-मिले होते हैं कि इन्हें समझना या पृथक करना एक टेढ़ी खीर ही प्रतीत होता है। ये एक तरह से रासायनिक विश्लेषण है-महज भौतिक परीक्षण नहीं कि देख-सूंघ व चाटकर किसी निष्कर्ष पर जा पहुंचे। उसी तरह कहानी में नाटकीयता और टेक्सचर, जिसे भाषा की बुनावट द्वारा संभव किया जाता है-एक दूसरे में कब घुल-मिल जाते हैं-पता ही नहीं चलता। आगे हम उदाहरण सहित इस पर विचार करेंगे।
कहानी में नाटकीयता क्या है। यह कितना और क्यों जरूरी है। नाटकीयता शब्द आते ही आधुनिक आलोचक/समीक्षक/लेखक नाक भौं सिकोड़ने लगते हैं। इसका सीधा मतलब है चीजों को हमने ठीक से नहीं देखा है – पुनः परिभाषित नहीं किया है। सिर्फ इतना कहना पर्याप्त होगा कि दुनिया की सर्वश्रेष्ठ रचनाएं, महाकाव्य नाटकीय तत्वों से भरे हैं। हमारा मिथकीय साहित्य तो नाटकीय तत्वों से ओत प्रोत है।
वह तेज कदमों से बाजार जा रहा था। घर में मेहमान आये थे -मां ने कहा कि मिठाई लाना-जल्दी। पर जाने कहां से उस बेलगाम साइकिल सवार ने उसे धक्का मार दिया। वह गिर पड़ा, उसका चेहरा रूआंसा हो गया-उसके घुटने छिल गये थे और खून निकल आया था। कुछ लोग इकट्ठा हो गये थे। ‘इसे जल्द अस्पताल ले चलो, जख्म गहरा है।’-कोई कह रहा था।
इस पैराग्राफ में नाटकीय तत्व दिखाई दे रहा है। क्या ऐसी नाटकीयता या अनहोनी अवास्तविक है ? नहीं। केंद्रीय पात्र के दिमाग में बाजार, मिठाई और जल्द घर लौटना, मेहमान ये तीन-चार बातें (मां का आदेश भी) ध्वनित हैं केंद्रीय पात्र नहीं, वे समस्त पाठक जो कहानी पढ़ रहे हैं मुख्य पात्र की संवेदना के साथ हैं। पात्र के साथ पाठकों की पूरी सहानुभूति है। मगर ये क्या-एक बेपरवाह साइकिल वाला ठोककर चल दिया। अब क्या ? क्या केंद्रीय पात्र जख्मों की परवाह किये बगैर बाजार जाएगा और काम पूरा कर घर वापस आएगा। या अस्पताल जाएगा और फिर बाजार, मिठाई ? या आगे क्या होने वाला है- बच्चे का जख्म, मरहम पट्टी या घर के मेहमान, मां की मेहमान नवाजी ? या फिर कोई और संभावना ?-ऐसे कई कोण हैं मानो एक चतुर्भुज में दो बिन्दुओं को मिला देने से कई चौहद्दी या कोण निकल आएं। नाटकीयता अथवा घटनाएं ये उन बिन्दुओं की तरह होती हैं जो कहानी-कला में अपार संभावनाएं पैदा करती हैं। अब क्या आगे-? ये भाव सिर्फ नाटकीय घटना के कारण ही आया, अब लेखक महोदय पर निर्भर है वे अपने किस पात्र से, परिस्थिति से, गौण पात्रों से क्या कहलवाना चाहते हैं।
बहुत सारी कहानियों में पात्र मर जाता है, बीमार पड़ जाता है, असाध्य बीमारी से ग्रस्त हो जाता है-प्रेमी-प्रेमिका मिल जाते हैं अथवा पृथक हो जाते हैं-घर की पत्नी चालीस साल पति के साथ रहने बाद अचानक घर छोड़ देती है-तलाक चाहती है-इत्यादि कहानी के नाटकीय तत्व हैं। ये नाटकीय तत्व अत्यंत स्थूल हैं और इन्हें आसानी से पहचाना जा सकता है। ऐसे तत्व कितने आवश्यक हैं-नहीं हैं-ये कहानी में लेखक द्वारा कहानी से किये गये निर्वाह पर निर्भर करता है। अपनी नाटकीयता को कहानीकार ने कितना विश्वसनीय बनाया ? सवाल नाटकीयता से नहीं, सवाल इसके प्रयोग की विश्वसनीयता का है।
महान् कहानियां नाटकीय तत्वों का खूब दोहन करती हैं-पर वे स्थूल रूप से उतना नहीं जितना सूक्ष्म, हमारे या पात्रों के मनोभावों के मार्फत करती हैं। कुछ नाटकीय तत्व तो अति सूक्ष्म होते हैं और जिन्हें इंगित कर पाना मुश्किल हो जाता है। महान् चेखव की एक कहानी याद आ रही है जिसमें नायक-नायिका किसी ऊंची जगह से नीचे साथ-साथ उतरते हैं-यह रोमांचक है जिसमे नायिका कहती है उसे ऊंची जगह डराते हैं। वह भयभीत है। नायक उसे मना लेता है। डर और भय के बीच नायक-नायिका साथ-साथ तेजी से नीचे उतरने का मजा लेते हैं। ठीक प्रवाह के मध्य में नायक नायिका से हौले से अपने प्यार का इजहार करता है जिसे संभवतः नायिका सुन नहीं पाती है या अनसुनी रह जाती है या सुन-समझकर भी कुछ और स्पष्टता चाहती है और फिर वे दोनों एक बार फिर से नीचे प्रवाहित होने का खेल खेलते हैं। नायक अपना प्रेमभरा शब्द फिर से फुसफुसाता है और नायिका इसे समझ पाने की अनभिज्ञता जाहिर करती है। यह खेल और चलता है। नायिका का भय जाता रहता है।
कहानीकार प्यार के इजहार या प्यार के रोमांच को बड़ी खूबसूरती से दिखाता है। कहनेवाला ठीक से, स्पष्टता से इजहार नहीं कर पाता और सुननेवाला /वाली ठीक से, स्पष्टता से सुन नहीं पाती। और यह सिलसिला खत्म नहीं होता।
रही बात नाटकीयता की तो ये सम्पूर्ण कहानी ही सूक्ष्म ड्रामें से भरी पड़ी है। पात्रों के मनोभाव किस तरह बदलते हैं-इसे पढ़कर ही समझा जा सकता है। यों कहें कि इस कहानी में चेखव ने सारी परिस्थिति ही नाटकीय रूप से रची है। सारा वातावरण नाटकीय है। चेखव की ही एक अन्य कहानी की चर्चा करना चाहूंगा (शीर्षक याद नहीं) जिसमें एक टांगेवाला का जवान बेटा मर गया है पर जीवन की सच्चाई उसे विश्राम नहीं लेने देती। पर दुख है-वह अभिव्यक्त करना चाहता है मगर संवेदनहीन दुनिया को उसके सुख-दुख से कोई मतलब नहीं। आखिर में वह बूढ़ा पात्र अपने घोड़े को अपना बेटा खोने की दास्तान सुनाता है। यह करूण कथा है। मानवीय संवेदनहीनता या गरीब के जीवन की कठोर सच्चाई है। नाटकीयता ? देखा जाए तो कथा में नाटकीय तत्व भरे पड़े हैं। मगर यह तत्व स्थूल रूप से नहीं आया है कि कहानी के बीच में उसका बेटा मरा या आखिर में। कहानी आरंभ ही होती है बेटा खो देने के दुख से। यहां मृत्यु है मगर मृत्यु जैसी आकस्मिक घटना को नाटकीय नहीं बनाया गया है। बल्कि उसके दुख, मृत्यु उपरांत हुए शोक की यह दास्तान है। नाटकीय तत्व तब दिखता है जब सुबह से शाम तक अनेक बार वह बूढ़ा प्रयास के बाद भी अपनी पीड़ा व्यक्त नहीं कर पाता। कुशल कहानीकार जिस कौशल से परिस्थितियों का चित्रण करते हैं-कहानी विश्वसनीय बनाते हैं-वह देखने लायक है। अंततः घोड़े को अपनी व्यथा सुनाना! क्या ये नाटकीय तत्व नहीं है ?
जरा कल्पना करें इस भाव को व्यक्त करने के लिए कहानी की रचना दूसरे तरीके से करते-यथा इस तरह रचते कि बूढ़े टांगेवाले का बेटा जो जवान है, बहुत आज्ञाकारी और उद्योगी है। वह बड़ी मुश्किल समय में अपने पिता की खूब मदद करता है। और कहानी का अंत आते-आते बूढ़ा बाप अपना जवान बेटा खो देता है। बीमारी से या किसी कारण मृत हो जाता है।
मृत्यु जीवन की बड़ी नाटकीय घटना है। इसे सब देखते व समझते हैं-पर इस टेकनीक से क्या कहानीकार वो संवेदना पैदा कर पाता ? असल में तब यह मृत्यु की कहानी होती, जबकि चेखव ने मृत्यु के बाद उत्पन्न शोक-दुख की कहानी लिखी है-लेखक की संवेदना उससे आगे जाकर बताना चाहती है कि बेटे के मृत्यु का शोक भी जीता है-वह उससे भी अधिक एक गाढ़ी लाइन खींचते हैं कि इस दुनिया को उसके शोक-गम की परवाह नहीं!
नाटकीयता को अगर एक लाइन में परिभाषित करना चाहें तो यह कहना समीचीन होगा कि-जिसकी हमें उम्मीद नहीं/चौंकानेवाली घटना/आश्चर्यजनक/अविस्मरणीय! अद्भुत! ऐसा कैसे हो गया!
याद कीजिए महान प्रेमचंद की कथा-पूस की रात! कहानी का अंत आते-आते एक किसान मजदूर बन जाने की स्थिति में है। वह लगान नहीं पटा पाएगा। उसका खेत नील गायें चर गयीं। अब जीविका के लिए उसे मजूरी करनी पड़ेगी। किसान मजदूरों से बेहतर स्थिति में थे। मगर एक किसान कथा के अंत में प्रसन्न है-मजदूर बनकर! प्रसन्नता की कोई बात नहीं-यह तो शोक मनाने वाली बात है। मगर कथा पाठक अच्छी तरह समझ जाते हैं कि कहानी का पात्र शोक मनाने की जगह क्यों प्रसन्न है। यह कितनी बड़ी नाटकीयता है। और इसी नाटकीय तत्व ने क्यों और कैसे का सारा विश्लेषण खोल दिया है। गुलाम भारत में कितनों की दयनीय दशा, उनके पतन की कहानी को दर्शानेवाली यह कहानी मील का पत्थर साबित होती है।
उसी तरह प्रेमचंद की ‘ईदगाह’ को याद कीजिए। हामिद के मन में पल-प्रतिपल उठते भाव नाटकीय प्रवाह के बेजोड़ चित्रण हैं। वह बच्चा है, मगर कम पैसे होने के कारण किसी बूढ़े की तरह सोचता है। और आखिर में एक खिलौने के रूप में वह ‘चिमटा’ क्रय करता है और वह उस चिमटे को सभी खिलौनों पर हावी होना साबित करता है। यह अतिश्योक्ति है। एक बच्चा, बच्चा नहीं बूढ़ा बन जाता है। कितना बड़ा ड्रामा! आश्चर्य!
आप तमाम दुनिया की कालजयी कहानियां उठाएं-वे ड्रामा तत्व से भरी पड़ीं हैं। असल में कहानी व ड्रामा एक दूसरे से अभेद हैं-गूंथे हैं। हम उन्हें कैसे अलग कर सकते हैं। क्या आप कहानी में ‘नाटकीयता’ अधिक होने जैसी बात करना चाहेगें ? वास्तव में जब कोई आलोचक, समीक्षक या संपादक-पाठक किसी कहानी में ड्रामा शब्द का इस्तेमाल कर उसकी निन्दा करता है-दरअसल उसका आशय इस तत्व की अविश्वसनीय शैली से है। लेखक ड्रामाई सीन्स् को, दृश्यों को विश्वसनीय तरीके से प्रस्तुत नहीं कर पाया है। कहानी, कफ़न, बूढ़ी काकी, उसने कहा था, पंच-परमेश्वर, द रिंग (मोपासां) और कितनी ही श्रेष्ठ कहानियां हमारे समझ मौजूद हैं जो इस बात का पुख्ता प्रमाण हैं।
ऐसी कहानियों-खासकर पश्चिम में मान्यता दी गयी है जो सिर्फ जीवन के ‘स्लाईस ऑफ लाइफ’ का वर्णन भर करती है। ये फ्लैट कहानियां होती हैं-सपाट! इनकी गहराई जानने के लिए ऐसी कहानियों के स्थल, देश की परम्परा, भाषा-शिक्षा इत्यादि की गहरी जानकारी आवश्यक है। ये ‘स्लाइस ऑफ लाइफ’ जीवन का एक वर्णन या चित्रण होती हैं-शेष भागों को पाठकों के लिए छोड़ दिया जाता है कि वे इनका अपने अनुसार मनचाहे कैनवस पर फिट कर लें। याद नहीं कि इनमें कुछ कालजयी रचना के तौर पर भी स्थापित हुई। (यह इस लेख के लेखक की कमतरी भी हो सकती है।) ऊपर चेखव की ऊंचाई से नीचे आने व प्रेम की अभिव्यक्ति करने वाली कहानी सरसरी तौर पर ‘स्लाईस ऑफ लाइफ’ सी प्रतीत होती हैै-परंतु ऐसा नहीं। पाठक स्वयं विश्लेषण करें।
कहानी में नाटकीय तत्वों को बताने या दर्शाने के लिए ‘विश्वसनीयता’ आवश्यक है और यहीं कहानी की भाषा या कहानी के टेक्सचर, बुनावट की बात खड़ी होती है।
मुहल्ले में चोरी की वारदात हो गयी थी। पूछताछ के लिए कुछ संदेहियों को थानेदार ने तलब किया। उसे पता था यह काम मंगू चोर का ही हो सकता है। पर मंगूआ तो टेसुआं बहा रहा था। आंसू के फव्वारे छोड़ रहा था। ‘‘मैंने नहीं किया साहब! ये काम मेरा नहीं…।’’
थानेदार ने डंडा उठाया-‘‘साले चार पड़ेगी सब उगलवा लूंगा, ड्रामेबाजी बंद कर….मादरजात…।’’
‘‘बताता हूं साब..बताता हूं…अब और न मारो….।’’
थानेदार ने ‘ड्रामेबाजी’ शब्द का उल्लेख किया। स्पष्ट है वह जानता है यह मंगू चोर का ही काम है मगर अपना अपराध छिपाने के लिए आंसू और अपनी मासूमियत का सहारा लेता है। जो सत्य नहीं। यह ‘एक्टिंग’ ही ड्रामेबाजी है।
कहानियों में जो घटनाएं अविश्वसनीय तरीके से आयेंगी, लेखक किस ऊंची फिलोसॉफी, विचार से प्रेरित होकर महान आदर्श की कथा रचेंगे तो वैसी कहानियां थानेदार द्वारा प्रयुक्त शब्द ‘ड्रामेबाजी’ से अधिक और कुछ नहीं। यहां पाठक ही थानेदार है और ऐसे ड्रामेबाज कहानीकारों की महान आदर्श या एजेण्डाबद्ध जबरदस्ती आरोपित कहानियां सिर्फ एक ड्रामा!
कहानियों में ड्रामाई तत्व घुले-मिले हों ऐसा कि पाठकों को पता ही न लग सके कि नाटक घट गया। स्वाभाविक, सहज! इसके लिए लेखक को अपनी भाषा सजग रखनी होती है। भाषा का उल्लेख करते ही प्रतीत होने लगता है-स्वर्णमय किरणों सी.., स्वर्णयुक्त पीली धूप सी…, मोतियों की माला सी… उनकी केशराशि काली सर्पिणी सी…उनके होंठ संतरे की फांक सी….उनकी हंसी मोतियों की लड़ी के समान चमकती….!
सावधान!
भाषा वैज्ञानिक तो बिल्कुल सावधान हो जाएं वरना कहानी का टेक्सचर जाएगा भाड़ में!
बच्चा गढ्ढे में लुढ़क गया था। उसे घुुटने के पास दर्द का अनुभव हुआ। अरे.. यह तो खून है! वह जख्मी है। रास्ते पे आते-जाते कुछ लोग इकट्ठे हो गये थे। ‘‘…जख्म गहरा है, अस्पताल ले चलो…जल्दी।’’ कोई कह रहा था-‘‘पकड़ साले को…..ठोकर मारकर भाग गया…..।’’
बच्चा सोच रहा था-मुझे जल्दी घर लौटना है, मां इंतजार कर रही होगी…मेहमान आए हैं।
कहानी एक मोड़ पर आकर थम गयी है-आगे क्या..? और इसे चित्रित करने के लिए भाषाविज्ञ नहीं, चित्रकार की नजर चाहिए। परिस्थितियां और पात्रों की मनःस्थितियां स्वतःस्फूर्त तरीके से बिना भाषाई ड्रामें के प्रस्तुत हो जाए। वरना कहानी की बुनावट या टेक्सचर गड़बड़ा जाएगा और कहानी अपना प्रभाव छोड़ देगी।
जरा गौर करें-
उस उगते सूरज के आगे न जाने कहां से काले व मनहूस बादल अचानक किसी दुःस्वप्न की तरह छा गये। वह तो अपनी मंजिल की ओर अपने पथ पर सूर्य के समान अग्रसर था। उसके पांवों में मानो सूरज के सातों घोड़ों की ताकत आ गयी थी। उस आज्ञाकारी पुत्र को उसकी ममतामई मां की आज्ञा सिरोधार्य करनी थी। उसी ममतामई आंचलवाली मां ने उसे पाठ पढ़ाया था कि मेहमान भगवान होते हैं…। उसी मां को अब उसकी प्रतीक्षा हो रही होगी जिस तरह प्रथम वर्षा ऋतु के आगमन की प्रतीक्षा चाक पक्षी करते हैं। जिस तरह जेठ की प्यासी धरती काले बादलों की प्रतीक्षा करती है। मगर उसे तो अस्पताल जाना पड़ सकता है। इत्यादि।
अब इस अंदज में लेखक लिखेंगे तो कहानी की बुनावट तो गई। हम अनभिज्ञतावश लेखक अल्पज्ञान, भाषा-अज्ञान इत्यादि नाम देंगे। फर्क स्पष्ट है। लेखक यदि इस घटना का स्थूल चित्रण (दृश्यों में) नहीं करना चाहता है व पात्र के मनोभावों को ही दर्शाना चाह रहा है तो भी ‘टेक्सचर’ की मर्यादा बनाये रखी जा सकती है-शर्त है मन का विचार स्वाभाविक तरीके से प्रस्तुत हो।
ऊपर की लच्छेदार भाषा में लेखक कहानी के ‘मूल’ से ‘फोकस’ या ’केन्द्र’ से अपने पाठकों को दूर ले जा रहा है। और कहानी ड्रामे की तरह प्रतीत होने लगती है। कहानी की ‘बुनावट’ असफल हो जाती है।
कहानी की बुनावट क्यों महत्वपूर्ण है-जिसे कहानी या भाषा का टेक्सचर कहना उचित होगा।
कहानी एक अत्यंत लघु कलात्मक विधा है। यहां एक पंक्ति भी फिजूल हो सकती है। यहां दृश्य, मनोभाव, परिस्थिति, घटनाएं इत्यादि बड़ी तेजी से बदलती हैं। जिस तीव्रता व शीघ्रता से ये सभी परिवर्तित होते हैं, उसी शीघ्रता व तीव्रता से भाषा-बोली या वर्णन की शैली भी परिवर्तित हो। कहानीकार कभी भी एक शैली में कहानी नहीं बुन सकता (अपवाद छोड़ दें।) यहां तो सेटिंग, मनोभाव के साथ हर पैराग्राफ एक चुनौती की तरह होते हैं।
उसे बड़ी जोर की भूख लगी थी। काम तो नहीं मिला मगर जमकर भात खाया जाए। आज मुर्गे की टांग तोड़ दूं। वह सोच ही रहा था कि सामने उसे अली बिरयानी सेंटर दिखाई पड़ा। उसके बोर्ड पर ही कूकडू-कूं का चित्र था। अहा! चूल्हे में पकी बिरयानी और ताजे चिकन की खुश्बू हवा में तैर रही थी। उसकी इच्छा दोगुनी हो गयी।
वह रेस्टोरेंट कब प्रवेश कर चुका उसे ज्ञात ही नहीं हुआ, एक कोने की मेज पर भी जा बैठा था। अचानक मेज पर मुर्गे की टांग उसे नजर आई। भात के दाने भी मेज पर इधर-उधर बिखरे पड़े थे। उसका मन खट्टा हो गया। सामने टेबल पर पोंछा लगाते लड़के पर उसका गुस्सा फूटा-‘लौंडे….क्या मेरी खातिर रख छोड़ा है।’ फिर मैनेजर की ओर रूख किया-’ये टिंग-टांग अपने ग्राहक वास्ते है…क्या मैं पोंछा मारूं……।’
‘गुस्सा क्यों करते हो साब, लौंडा साफ तो कर रहा है, चिकने! टेबल पर आ जाओ न….!’ मैनेजर ने बात सम्भालने की कोशिश की।
‘अब क्या स्वच्छता अभियान चला रहे हो, यहां मीठा तो कड़वा हो गया…।’ उसका गुस्सा फूटा। एक तो उसका दिन पहले से ही खराब था, आज उसे कोई काम न मिला था, उस पर भूख और ये सब। उफनते दूध पर पानी पड़ चुका था।
वह बाहर का रूख किया। मैनेजर भी उसी लोचे का बना था, देखा कि यह ग्राहक नया है और रूकने वाला नहीं, टंटा कस दिया-’भाई साब पूरी सफाई चाहिए तो फाईव स्टार होटल चले जइयो…।’
वह तिलमिला उठा….।
एक और उदाहरण-
वह मारनिंग वॉक पे था। शीतल हवा और पक्षियों के चहचहाहट की आवाज का वह आनंद ले रहा था। कितना प्यारा सबेरा है! उसने सोचा। तभी-सड़क के पास से ही एक स्कूटी गुजरी। उसपे स्कूटी वाली सवार थी-खुले बाल और वो सब जो एक झलक देख पाया-बड़ी कशिश पैदा हुई। सड़क संकरी थी-वह कुछ दूर तक उस एक झलक के ख्याल में खोया रहा और हवा में फैली खुश्बू उसके सबेरे के दृश्यों, पक्षियों के कलरव, हवा की शीतलता, सभी का सत्यानाश कर दिया। वह स्त्री और उसकी कशिश, खुशबू। बस…., उसका मस्तिष्क कुछ और सोच ही नहीं पा रहा था।
उक्त दोनों पैराग्राफ के उदाहरण से कथा में (कहानी के मार्ग में) मोड़ आता है-आंतरिक, बाह्य। कहानी का टेक्सचर बदल जाता है। भाषा का अंदाज बदलता है।
कहानीकार को भाषा/कहानी के टेक्सचर पर क्यों ध्यान देना चाहिए ? असल में यही वो महत्वपूर्ण तत्व है जिसके मार्फत कहानी लचीली, सजीव और विश्वसनीय बनती है। यही नहीं, सटीक टेक्सचर से पाठकों के भाव और कहानी के भाव घुल-मिल जाते हैं। पाठक को लगता ही नहीं कि कहानी कही जा रही है-उसे लगता है शब्दों के मार्फत सबकुछ सामने घटित हो रहा है। दिख रहा है। टेक्सचर के प्रति सावधान कहानीकारों का भाव पक्ष बहुत मजबूत होता है। वह पल-पल कहानी में आये दृश्यों, पात्रों, घटनाओं इत्यादि का भाव पक्ष बड़ी कुशलता से रखता है। जो कहानीकार इस शैली में कहानी कहने से चूक जाते हैं-या जहां संभावनाएं तो होती हैं मगर कहानीकार ने उन संभावनाओं का दोहन नहीं कर पाया-वह कथा बेजान ही होगी-कहने की आवश्यकता नहीं।
ये बनावट या टेक्सचर कला के ही रूप होते हैं-चाहे वह चित्र हों, संगीत हों, नृत्य हों….इत्यादि। अभिनय कला में भी छाया और उससे संबंधित भावों का टेक्सचर बहुत मायने रखता है। बिना नाटकीयता और उनका शानदार निर्वाह (टेक्सचर के) कोई अभिनय शैली शानदार नहीं हो सकती।
जीवन पूरी तरह नाटकीयता से भरा है-क्या यह जीवन सपाट है! प्रकृति सपाट है! कतई नहीं।
कहानी लिखना/बुनना सपाट मैदान पर चलने सरीखा नहीं होता। वह ऊंचे पहाड़/पहाड़ी की चढ़ाई है जहां पग-पग रास्ते अनगढ़, उबड़-खाबड़ और रहस्य रोमांच से भरे हैं।
कहानी को आप इस नजर से पढ़ना या लिखना चाहेंगे ? चुनाव आपका है।
कहानी की बुनावट, नाटकीयता की बात चली है तो इसी के करीब कहानी की सेटिंग या कहें दृश्यों की रचना का एक महत्वपूर्ण तत्व सामने आता है। जैसा पहले लिखा जा चुका है-ये सारे तत्व भौतिकी का विषय नहीं बल्कि एक रसायन बन चुके तत्व हैं। घुले-मिले अतः कई बार ऐसा प्रतीत होगा कि ये सभी तो एक ही चीज हैं-इनमें क्या फर्क है। मगर फर्क है।
कहानी के दृश्य, दृश्यों या सेटिंग पर अवश्य पृथक से लिखना चाहूंगा। इसका भी संबंध एक साथ कहानी के ड्रामाई तत्व और कहानी के टेक्सचर से होता है। सेटिंग या दृश्य जहां अमुक समय पर अमुक कहानी अपने पात्रों के माध्यमों से अंतःक्रिया कर रही है ऊपर के उदाहरण में मारनिंग वॉक पर गये पात्र का दृश्य सबेरे का है। पक्षी चहचहा रहे हैं। हवा शीतल है। मगर एक घटना (स्त्री का स्कूटी पर जाना) घटती है और वहां भाषा/कहानी का टेक्सचर बदल जाता है। मगर दृश्य वही है। सेटिंग वही है। पात्र का दिमाग या मनोदशा कहीं और ‘सेट’ हो गयी है।
इसमें गहरी लकीर जैसा अंतर दिखाने के लिए आप दोनों भावों व दृश्यों को जितना सजग होकर रखेंगे, प्रभाव उतना गहरा और सजीव होगा। पात्र के अंदर के मनोभाव को दर्शाने के लिए आपको सुन्दर सुबह का वर्णन करना होगा। यह वर्णन अनावश्यक नहीं, एक सजग कलाकार के मास्टर स्ट्रोक के तौर पर देखा जाना चाहिए।
इसी तरह बिरयानी सेन्टर में भी दृश्य एक है मगर दो तरह के भावों (पात्र के) से हमारा नाता होता है। यहां भी आपको यदि एक भाव को अच्छे से दिखाना है तो दृश्य के चित्रण पर जोर देना होगा।
अब दृश्यों का वर्णन कितना और कैसे करें। इस पर फिर कभी विस्तार से चर्चा समीचीन होगी-मगर इतना भी नहीं कि आप कड़ाही, होटल की लम्बाई, टेबल-कुर्सियों की संख्या, काम करने वाले नौकर का हेयर कट और कमीज का रंग लिखने लग जाएं। और वर्णन इतना भी कम नहीं कि पात्र कब होटल में घुसा पाठक को पता ही नहीं चल पाया। या घुसा तो बड़ा होटल है, ढाबा है, फाइव स्टार होटल है, मालूम ही नहीं पड़ा।
ऊपर के उदाहरण में कहानी के दृश्य की महत्ता समझाने का प्रयास किया गया है। एक बात और-जैसा अभी-अभी कहा गया है कि कहानी लेखन पहाड़ी मार्ग है। पल-पल पत्थर, बोल्डर और गढ्ढे मिलेंगे। सो सावधान।
अकसर कहानी में पात्र या कहानी एक वातावरण (दृश्य) से दूसरे वातावरण में विचरण करता है। यह बहुत स्वाभाविक है-मगर इस लेख के लेखक ने देखा है कि खासकर हिन्दी कहानियां इस वातावरण के चित्रण, परिवर्तन को रेखांकित करने में बेहद कमजोर हैं। हिन्दी की दुर्दशा है कि कहानियां सिर्फ ‘उद्देश्परक’-‘एजेण्डाबद्ध’ लिखी व छापी जाती हैं-इन्होंने मान लिया है कि कथा-कर्म एक कला-कर्म तो है ही नहीं। यह सरासर हमारी भूल है और जितनी जल्दी हो हम इस भूल से निकल सकें अच्छा होगा।-हिन्दी कथा साहित्य के लिए भी और हिन्दी कथाकारों के लिए भी।
एक विद्यार्थी बंद कमरे में सबक याद कर रहा है। भीतर उमस है। शाम भी हो चुकी है। उसका जी बेचैन है। वह जल्द से जल्द सबक याद कर बाहर खुली हवा में जाना चाहता है। आखिरकार उसे लगता है कि अब बहुत हुआ-पहले बाहर घूमा जाय। वह बाहर आता है। वह कैसा महसूस करेगा ? वह कैसे दृश्य देखना चाहेगा। शायद आकाश की ओर। शायद खुली हवा को अपने चेहरे पर महसूस करना चाहे। वह किताबों के निष्ठुर शब्दों की दुनिया के विपरित वृक्षों-पत्तों और गगन में विचरते पक्षियों को देखना पसंद करे। या किसी प्रिय मित्र से गप्पे लड़ाये।
उक्त दोनों तरह के दृश्यों में कहानी की सेटिंग एक स्थान (बंद कमरे) से दूसरे स्थान में परिवर्तित हो रही है। लेखक एक संास में, हांफते हुए अपनी कहानी लिखता जाता है। उसे बंद कमरे की बेचैनी व खुली हवा में जाने की इच्छा को पाठकों को सिर्फ बताकर चलता बना। कहानी आगे बढ़ा दी गयी। जब तक स्वयं लेखक नहीं रूकेगा, ऐसे दृश्यों पर थोड़ा ठहरेगा नहीं, तो कहानी विश्वसनीय कैसे बनेगी। सिर्फ महान एजेण्डा ठोंकने से ?
कहानी में जब स्थूल या सूक्ष्म रूप से उसकी सेटिंग बदलती है तो अवश्य है कि कहानी-भाषा का टेक्सचर भी बदले, पाठकों के मनोभाव (पात्रों के माध्यम से) भी बदले और तब कहानी की नाटकीयता बड़ी विश्वसनीय तरीके से हमसे होकर गुजरेगी-ऐसा कि इसका आभास भी न होगा। सबकुछ यथार्थ सजीव लगेगा।
जरा गौर करें-
-एक लड़की सुपर मॉल गयी। उसने खूब महंगे सूट खरीदे-वे उसकी पसंद के थे। उसने बिल अदा किया और कार पर बैठकर घर वापस आ गयी।
क्या ये कहानी है ?
-एक लड़की सुपर मॉल गयी, उसने अपनी पसंद के महंगे सूट खरीदे। उसने बल अदा किया और कार पर बैठ कर घर की ओर चल पड़ी। अचानक उसने अपना बैग टटोला-अरे! पर्स तो गायब है। वह शायद वहीं छोड़ आई! ‘ड्रायवर! गाड़ी मोड़ो…।’
यहां कहानी की संभावना है क्योंकि घटना /ड्रामा घट चुका है। हो सकता है सेल्स एक्सक्यूटिव उसका पर्स सम्भाल कर रखा हो और उसके साथ एक नयी कहानी की शुरूआत हो…., हो सकता है पर्स मिले ही नहीं…मिले भी तो पैसे गायब।
-एक व्यक्ति रिटायर होकर हिमालय चले गये। एक छोटा घर खरीदा और जवानी में अर्जित पैसे से दिन बिताने लगे।
यहां कोई कहानी नहीं।
-एक व्यक्ति रिटायर होकर हिमालय जा बसे। एक छोटा घर खरीदा और जीवन के आखरी मकसद को पूरा करने में लग गये-आत्मा की तलाश। परमात्मा की तलाश!
कहने का अर्थ यह है कि बुनियाद या प्लॉट ही ड्रामाई होता है। असल है उसका विश्वसनीय चित्रण!