सनत सागर की कहानी -छाया

छाया

संतृप्त होने तक मैं उसे देख लेना चाहता था। जाने क्यों बार-बार उसकी मुखाकृति विस्मृत सी हो जाती थी। उसके सांवले रंग में सदा ही ये हृदय रमा रहता था। सदा से ही सांवला रंग मुझे भाता था या फिर उसे देखने के पश्चात ही मुझे ये सांवला रंग अच्छा लगने लगा, ये विचारणीय है।
मंदिर की सीढ़ियों पर जैसे ही कदम बढ़ाया अकस्मात किसी ने रोक लिया। मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा रह गया। यूं लगा कोई देवी मुझसे मिलने आ गयी हो। समय रूक सा गया था। जिस तरह फिल्मों में एकाएक दृश्य रूक कर धीरे धीरे बढ़ता है ठीक उसी तरह। उसका सीढ़ियों से नीचे आना मन को झंकृत कर रहा था। उसके सर के ठीक पीछे सूरज लटक सा गया था। उसके सर के साथ साथ चल रहा था।
उसके बाजू से निकलते ही कई तरह के पुष्पों की सुगंध भर गयी मेरी नाक में।
अगर पीछे से बहुत से लोग एक साथ न आते और उनके चलने से धक्का न लगता तो मैं वहीं गड़ा रहता। उस ऊपर जाती महिला ने मुझे पलटकर अचरज भरी आंखों से देखा, वह कदाचित् यह विचार कर रही थी कि मैं सीढ़ियों के बीच इस तरह शून्य को निहारता क्यों खड़ा हूं।
पार्श्व से निकलते एक व्यक्ति का स्वर सुनायी पड़ा।
’संभवतः मंदिर के भीतर कुत्ते न जायें इसलिये वजूका लगा दिया है।’
’नहीं, जीवित तो लग रहा है।’
’एक लात लगाओ तब पता चल जायेगा।’
इसके साथ ही विभिन्न हंसियों का कोलाहल सुनायी पड़ा। मैं धीरे से एक ओर खड़ा होकर पीछे पलट कर देखा।
उस देवी की छाया मात्र ही अनुभूत हुयी।
भगवान के दर्शन में भी मेरा मन न लगा।
’दुकान पर पूछ कर गया हुआ ग्राहक और यूं दिखी कोई मनोहर मूरत फिर वापस नहीं मिलते।’ मेरे मुंह से निकला। राह में ठेले पर बर्फ घिसते देख स्वयं की स्थिति वैसी ही अनुभव हुयी।
अपनी स्मृतियों में उसे संजोये शीत का सूरज डूबकर ग्रीष्म के सूरज में बदल चुका था। किन्तु उसका मुख आज भी एकदम स्पष्ट दिख रहा था।


बीते कई दिनों की तरह आज पुनः उसी मंदिर की सीढ़ियों में संभावनाओं को हृदय में लिये भगवान के दर्शन को आया था।
’हे भगवान! यदि उस देवी से न मिल पाया तो अब तक की सारी पूजा व्यर्थ हो जायेगी इसके साथ ही मेरे मन की आपके प्रति श्रद्धा भी कदाचित् जड़मूल नष्ट हो जायेगी। इतना बड़ा तो ये संसार नहीं है कि कोई भी दुबारा न मिल सके। और आपके लिये क्या ये सब असंभव है ? आप तो सर्वव्याप्त, सर्वज्ञाता और सबके सर्वहारा हो। क्या इत्ता सा भी काम आपसे न होगा ?’
अपनी आंखें खोलकर भगवान की मूरत की ओर देखा। ऐसा लगा कि फूल मालाओं से ढंके भगवान के मुख में खुशी वर्तुल रेखा के स्थान पर सरल रेखा का रूप ले रखी हो।
मुझे लगा कि मैं कुछ अधिक ही बोल गया हूं। ’हे भगवान! मैं आपसे क्षमा तो नहीं मांगूंगा परन्तु इस वाक्य को अपने कथन से विलोपित करता हूं कि ’क्या इत्ता सा भी काम आपसे न होगा।’ आपसे तो संसार के सभी कार्य संभव हैं। अतः आप मेरा कार्य शीघ्र करें।’
इतना कह कर मैं सीधे बाहर निकल कर नीचे उतर गया। अपनी बाइक स्टैण्ड से निकाल कर भाई के घर की ओर चल पड़ा। भतीजे को स्कूल छोड़ने का समय हो चुका था। वैसे ही पांच मिनट विलम्ब हो चुका था।
चौक पार करते ही सीधे हाथ पर मेरे भाई का घर था। उस पर पुता हुआ हरा रंग दूर से ही दिखायी पड़ रहा था। छत पर लगा भगवा झंडा मंद मंद हवा में मस्त होकर लहरा रहा था।
स्टैण्ड लगाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी भतीजा पहले से ही तैयार खड़ा था। मुझे टिफिन का थैला पकड़ाकर पीछे बैठ गया।
स्कूल भी कौन सा दूर था, लगभग छै मिनट में पहुंच गया। गेट के पास अपनी बाइक का स्टैण्ड लगाया और बच्चे के साथ गेट के भीतर पहुंच गया। उसे टिफिन पकड़ाते हुये ’बाय-बाय’ करने लगा।
तभी अचानक बिजली सी कौंधी। वही मुखड़ा स्कूल की सीढ़ियो ंसे उतर रहा था और उतर कर स्कूल के नीचे के कार्यालय में प्रवेश कर गया। मैं वहीं खड़ा उसकी प्रतीक्षा करने लगा।
’कदाचित् आज उससे मिलना नहीं होना है।’ मेरे मुख से सहसा निकला। और ठीक उसी समय वही मुखड़ा उस कमरे से निकला और पुनः ऊपर चला गया।
मैंने आसमान की ओर देखा, आंखें बंद कीं और.
’हे भगवान! तेरी शक्ति अपरम्पार है। तेरी महीमा का गान यूं ही लोग नहीं करते हैं। तू तो वास्तव में दयानिधान है। सबकी सुनता है। सबके लिये करता है। इस वरदान की पूर्ति हेतु कल मैं एक श्रीफल तेरे समक्ष प्रस्तुत करूंगा।’
अपने भाग्य की सराहना करते हुये अपनी नौकरी बजाने पहुंच गया। मन तो उचाट था परन्तु सांसारिक कार्यों की उपेक्षा नहीं की जा सकती है, ये बात मन भलीभांति समझता था।
’इतने दिनों तक तो नहीं देखा था उसे। कदाचित् अभी अभी ही कार्य पर लगी हो।’
’कार्य पर लगी है नहीं कहा जा सकता।’
’क्यों नहीं कहा जा सकता है ?’
’वो भी अपने बच्चे को स्कूल छोड़ने आयी हो!’
’बच्चे को स्कूल छोड़ने आयी होती तो उसके हाथों में कोई फाइल न होती। वह स्कूल के काम से ही आयी थी। वहीं काम करती है वह।’
’गुड मार्निंग साहब!’
’नमस्कार!’
उसके सामने रखी कुर्सी में बैठता हुआ गुड मार्निंग वाला युवक पूछ बैठा।
’क्या बात है साहब! आपको मैं अभी चौथी बार गुड मार्निंग कर रहा हूं तब आपने प्रत्युत्तर दिया है। स्वास्थ्य तो ठीक है न!’
’म..मुझे क्या हुआ है ? एकदम चुस्त दुरूस्त हूं। ये देखो!’ कहता हुआ अपना हाथ कोहनी से मोड़ कर डोले दिखाने का प्रयास किया। मेरे साथ वह भी हंस पड़ा। ’चलो, एक एक कप चाय पी कर आते हैं।’ मैंने उसका हाथ पकड़कर खींचते हुये कहा।
चाय की चुस्कियों में भी उसका ही ध्यान था परन्तु अपने साथी से सावधान रहते हुये अपनी शारीरिक उथल पुथल में नियंत्रंण बनाये रखा।
यूं तो कई बार उससे कभी मंदिर में तो कभी बाजार में या फिर स्कूल में टकरा जाता था परन्तु उस दिन सागर ने प्रथम परिचय करवाया।
’ये हैं छाया जी! हमारे मौसेरे भाई केवल की पत्नी। यहां सनमून स्कूल में पढ़ाती हैं। अब ये न पूछना कि वो कौन सा सब्जेक्ट पढ़ाती है। प्रायवेट स्कूल है भाई तो वहां जो प्रिन्सीपल चाहेगा वही पढ़ाना पड़ेगा भले ही टीचर को उसका नालेज हो या न हो। और भाई एक बात और है ध्यान देने की….’ अचानक सागर रूक गया गंभीरता के साथ बोलते बोलते। मेरे साथ छाया जी का मुख भी सागर की ओर प्रश्नवाचक चिन्ह के साथ घूम गया।
’अगर प्रिन्सीपल को टीचर की डिगरी से कहीं ज्यादा मुखड़े ने प्रभावित कर दिया तो फिर टीचर की इच्छा सर्वोपरि! या फिर पढाना चाहे तो ठीक वरना कार्यालय की शोभा बढ़ाये। है न छाया जी!’ इतना कहकर वह ठहठहाकर हंसने लगा।
इस परिहास पर छाया जी झेंप गयी। मैं भी झेंप गया। जाने क्यों ये परिहास मुझे कचोट सा गया। मैंने छायाजी को कनखियों से देखा।
जोर का झटका लगा….क्योंकि हमारे नयन टकरा गये थे। वह भी ठीक उसी समय मुझे कनखियों से देख रही थी। निष्ठुर समय को होटल के वेटर ने दूर किया। उसने अपने हाथ में थामी ट्रे से चाय के तीन कप टेबल पर धर दिये। एक प्लेट में ताजे भजिये और तली हुयी कुछ हरी मिर्चें थीं। हरी मिर्चों क रंग समझ के बाहर था क्योंकि रेस्टोरेंट में लगी लाइटों के रंग कुछ अजीब तरह के थे जो मौलिक रंगों को प्रभावित कर उनको दूसरे रंग में बदल रहे थे।
ये बात मुझे अभी ही समझ आयी थी। मैं अब तक छायाजी के सलवार सूट का रंग हरा समझ रहा था। मैं मुस्करा उठा।
छायाजी मुझे देख कर असंमजस में पड़ गयी कि मैं क्यों मुस्करा रहा हूं। कहीं सागर के कथन में सत्यता तो नहीं!
मैंने स्वयं की मुस्कराहट को छायाजी और सागर के परिहास से हटकर है बताने की चेष्टा की। छाया जी के भौंहों की बनी कमान ने मुस्कराहट का तीर छोड़ा और मेरा चैन क्षण भर में छीन लिया।
’बच्चों के साथ बहुत आनंद आता होगा आपको! है न!’ मैंने बात करने की शुरूआत की।
’जी, बच्चों के साथ रहना सारे दुखों को दूर कर देता है। ऐसा लगता है कि उनका साथ कभी न छूटे। बच्चे वास्तव में भगवान के रूप होते हैं। उनको खिलाना यानी भगवान की भक्ति करना होता है।’ छाया जी कह रही थीं और सिर्फ मैं ही सुन रहा था क्योंकि सागर उस समय मोबाइल में व्यस्त था।
’ऐसे में तो आपका घर एक मंदिर की तरह होगा।’ मेरे मुंह से अनायास ही निकल गया।
तभी हॉल में लगी लाइटें अपने वास्तविक यानी श्वेत रंग में आ गयीं। छाया जी का मुख एकाएक कुम्हला सा गया था। मेरे नयन उसके मलिन मुख से हट ही नहीं रहे थे। रेस्टोरेंट के हॉल की लगभग सभी कुर्सियों में लोग बैठे थे। कम उजाले में दूर से दिखायी पड़ने वाली टेबलें एकदम पास सी लग रही थीं।
भीड़ का हल्ला, चम्मचों की प्लेटों से टकराने की ध्वनियां एकाएक शांत हो गयीं थी। मेरे मुंह से निकले शब्दों ने निश्चिय ही किसी शक्तिशाली विस्फोटक का कार्य किया था। मैं लगातार छाया जी को देख रहा था। और वह अपनी आंखें झुकाये शून्य में विचर रही थी। मेरा मतिस्क काम नहीं कर रहा था कि वास्तव में हुआ क्या है ?
तभी मैं चिहुंक गया। मेरे कंधे पर सागर ने हाथ रखा था। छाया जी के चक्कर में मैं यह भूल गया था कि मुझसे मिलवाने वाला सागर ही है और वह हमारे साथ ही है।
’छाया भाभी के बच्चे नहीं हैं। अब उम्मीद भी छोड़ चुकी हैं।’ सागर के एक-एक शब्द कानों पर हथौड़े की तरह चोट कर रहे थे।
तभी छाया ने अपना सर उठाया और हम दोनों की ओर देखकर मुस्करायी फिर बोली।
’अरे भई! जीवन इतना भी रसहीन नहीं है कि हम एकदम चुपचाप रहें या फिर रोते हुये जीवन जियें। संसार भर के बच्चों में हंसी खुशी ढूंढिये। उनके किसी दुख का संबल बनिये। ये क्या िक हम अपना मुखड़ा उतार कर बैठें।’ यह कहती हुयी वह चाय का एक घूंट भरते हुये एक भजिया भी मुंह में डाल ली।
’हुं हुं लो न आप भी। बड़े टेस्टी भजिये हैं।’ मुंह भरे भजिये के साथ वह अस्पष्ट ढंग से मनुहार की।
मेरी उनींदी करवटों से यह दृश्य हट ही नहीं रहा था। इस ओर की करवट में सोता तो छाया की आंखों पर गिरते उसके गेसुओं का अंधेरा छा जाता। और दूसरी ओर करवट करता तो उसके निपूते होने का दुख बरस पड़ता। तीन बार मटकी का शीतल जल गले से उतार चुका था। इसके बाद भी गर्मी का प्रकोप कम ही नहीं हो रहा था। छत पर लगा पंखा अपनी पूरी क्षमता का प्रदर्शन सुंदर ढंग से प्रस्तुत कर रहा था। उसका बस चलता तो निश्चित ही मेरे शरीर पर घूम घूम कर मुझे इस समय सहला लेता।
खुली खिड़की से आसमान का चंद्रमा भले ही नहीं दिख रहा था परन्तु उसकी चांदनी बता रही थी कि अभी उसका ही साम्राज्य फैला हुआ है।
’एक डेढ़ घंटे तो बीत ही गये होंगे। अब ढाई से कम न बजा होगा।’ मैं बड़बड़ा उठा। और स्वयं ही डरकर बैठ गया।
कमरे के अंधेरे में स्वयं को यूं बैठा देख स्वयं ही घबरा गया।
’आखिर ये नींद क्यों नहीं आ रही है ? ऐसा क्या देख लिया है मैंने उस निपूति में। जाने कितनी ही लड़कियां मेरे जीवन में आयीं परन्तु मैंने उनकी ओर न देखा। उसमें क्या विशेषता है जो मैं उसके बारे में यूं विचारग्रस्त हूं।’
मैं अपने बिस्तर से उठकर कमरे में टहलने लगा। टहलना क्या था, दस फीट बाई बारह फीट के कमरे में। दो कदम में एक दीवाल से दूसरी दीवाल आ जाती थी। उसमें रखा पलंग, फ्रिज और एक अलमिरहा, इनके मध्य से मार्ग बना कर टहलना पड़ रहा था। और मेरा देशी फ्रिज मटका भी राह में अपने को ला खड़ा किया था।
तभी मैं चिंहुक गया। खुली खिड़की के बाहर लगे चार वृक्षों के पास कुछ दिखायी सा दिया। अंधेरे और सुनसान से निकलने वाली ध्वनियों का स्थान मेरे हृदय को छाती पर पटकती रक्त पटकती धमनियों और शिराओं ने ले लिया था।
’अरे! यह तो….!’ मेरे मुंह से बात अधूरी ही रह गयी। ज्यों ज्यों वह आकृति निकट आती जा रही थी वह स्पष्टता को ग्रहण करती जा रही थी। सलवार सूट का वही रंग भी दिखायी पड़ने लगा। लटें मुखड़े से अठखेलियां करती हुयीं, नुकीली नाक, नुकीली ठुड्डी, उभरा माथा, दैवीय मूरत की आंखें, सबकुछ तो वही था।
वह एकदम निर्विकार भाव से चल रही थी। संसार और संसार के जीव जगत से एक विलग, ठीक पानी पर तेल की परत की तरह। उसके कदम बहुत तेज न थे फिर भी निरंतर चलते रहने के कारण मुझ तक पहुंचती ही जा रही थी। अचानक कुत्तों के भौंकने की ध्वनियां भी आने लगीं।
मेरे हृदय की धड़कन बता रही थी कि अगर मैंने स्वयं को न संभाला तो हृदय छाती फाड़कर बाहर निकल जायेगा।
एकदम निकट पहुंच चुकी थी वह मेरे, खिड़की से हाथ बढ़ाकर मैं उसे छू सकने की स्थिति में आ चुका था।
मेरे दरवाजे पर ठक ठक हुयी। सबकुछ देखते जानते हुये भी मैं चिंहुक उठा था। बाहर कुत्तों के भौंकने की ध्वनियां भी तेज होने लगीं थीं।
मैंने झपटकर अपने घर के दरवाजे की ओर दौड़ लगायी। एक ही झटके में दरवाजा खोल दिया। जिस तेजी से दरवाजा खोला था उतनी ही तेजी से वह मेरी छाती से चिपक गयी।
मैंने दरवाजा बंद कर दिया। वह मेरे साथ चिपकी चिपकी मेरे कमरे तक आ चुकी थी।
आश्चर्य इस बात का था कि सारी लाइटें बंद होने के बाद भी कमरे में उजाला फैला हुआ था।
और आश्चर्य इस बात का भी था कि अब कुत्ते भी भौंकना बंद कर चुके थे।
’तुम इतनी रात को ? इस स्थिति में ?’ प्रश्न दो ही फूटे थे परंतु हृदय में थे अनेक।
वह मात्र मुस्करा दी। उसके बालों की लटें मेरे मुख पर लगातार पड़ रहीं थीं। उनसे निकलती सुगंध किसी साबुन की न थी बल्कि एक न्यारी सुगंध थी।
मैं किसी एकदम नये निराले संसार में प्रवेश कर चुका था। वहां आनंद ही आनंद से भरे सुगंधित सरोवर थे तो मोहक मनोहर दृश्य थे। अनेक रंगों के खिले अधखिले कमल अपनी अलग ही छटा बिखेर रहे थे।
मैं भी अब बातें करना नहीं चाहता था।
धीरे धीरे उजाला फैलता जा रहा था।
’मैं अब तुम्हारे बच्चे की मां बनूंगी!’
कल्पनातीत स्वर लहरी थी उसकी। मैं रोमांच से भरा उसकी बातों से अलग अपने ही आनंद में डूबा हुआ था।
’मैं कब तक संसार भर के लोगों की प्रताड़ना झेलूं। और तो और अपने पति की ही आंखों में स्वयं के लिये अपमान को देखना सबसे कठिन कार्य है। उनके ही साथ रहना, उनके साथ ही जीना, और फिर उनसे ही अपमान की बातों को सहना। क्या ऐसा जीवन जीना सरल है ? पिछले दस वर्षों से ये सब झेलते हुये मेरा मन टूट चुका है। संसार कहां से कहां पहुंच चुका है और मेरा पति आज भी मुझे बच्चा समझ इसे अपने कर्मों का फल मानने को कहता है। किसके कर्मों को मैं भुगत रही हूं मैं समझती हूं। बहुत दिनों से सागर मेरे दुखों को देख रहा था और समझ रहा था। और तब विचार विमर्श के पश्चात तुमसे भेंट करवायी। और मैं आज अपने अपमानित जीवन से मुक्ति के द्वार तक पहुंच ही गयी…. सुन रहे हो न तुम!’
वह कह रही थी और मैं अपने ही संसार में मदमस्त था।
जाने वह क्या-क्या कहती रही। अपने समस्त दुखों का पिटारा खोल कर सजा दिया था। उसके पति, ससुर से लेकर सास और कालोनी की मादाओं की अनुमान वाली कहानियों को एक एक करके सुनाती जा रही थी। अपमान का हर घूंट को हृदय में सहेज रखा था।
मुझे कुछ सुनायी देता था तो कुछ नहीं। कुछ दिखायी देता तो कुछ भी नहीं दिखता था। निढाल सा मैं पड़ा रहा। मेरा शरीर आसमान के बादलों के बीच तैर रहा था।
शीतल एकदम शीतल!
बादलों के बीच झूला झूलते हुये धीरे धीरे शरीर का ताप बढ़ने लगा था। बादल भी छंट गये थे। अब सूरज सीधा आंखों में झांक रहा था। बंद आंखों से भी सूरज से नयनटंकार हो रही थी।
मैंने दरार सी बनायी, आंखों का सूरज से ही सामना हुआ। नीले आकाश में सूरज की तीक्ष्ण किरणें आंखों तेजी से घुस पड़ीं। मानों युद्ध के मैदान में किले का बड़ा सा द्वार खुलते ही पैदल सेना धड़ाधड़ाते हुये घुस पड़ी हो।
मैं हड़बड़ा कर उठ खड़ा हुआ। आंखों को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मैं अपने घर के बाहर लगभग सड़क पर पड़ा था। और एकदम नंगे बदन।
जाने कितने ही लोग यहां से गुजरें होंगे।
मन में यह विचार आते ही शर्म से पानी पानी हो गया शरीर।
वह कहां है ? सबसे पहले यही प्रश्न उठा मन में।
पर ये समझ से बाहर था कि वह कहां गयी। घर का कोना कोना छान मारा। वह कहीं न थी। घर अस्त व्यस्त था जो किसी अन्य के भी होने की गवाही दे रहा था।
मस्तक तड़कने लगा। बुद्धि ने काम करना बंद कर दिया था।
’ये गयी तो कहां गयी ? क्या आसमान ने निगल लिया या फिर इस धरती में समा गयी। सागर, सागर अवश्य ही मेरी सहायता करेगा। उसने ही तो मुझसे मिलवाया था छाया जी से। अभी बात करता हूं सागर से।’
मैं अपने पलंग पर पड़े मोबाइल को उठाया और सागर का नंबर निकाला।
ठीक इसी समय मैं मोबाइल से हाथ हटा लिया।
’कहीं ये मेरा सपना तो नहीं था मेरे अवचेतन मन का! किसी निरीह नारी को देखकर उसके सानिध्य को लालायित मन की कपोल कल्पनाएं!’
परन्तु कमरे और तन मन की स्थिति इस सत्य को स्वीकार ही नहीं कर पा रही थी। वो लटें, वो सुगंध, वो सानिध्य!