सनत जैन की कहानी-सफर

सफर

 

लेखक-सनत सागर, संपादक बस्तर पाति, जगदलपुर, छ.ग.

’लो आखिर हमारी भगवान ने सुन ही ली। अब हम तीर्थस्थल समय से पहुंच जायेंगे।’ रमेश ने ठण्डी सांस लेकर अपने सूटकेस पर बैठते हुये कहा।
तभी सुमन बोली -’अरे रे…धीरे बैठना। पिछली बार एक सूटकेस ऐसे ही टूट गया था याद है न! कितनी परेशानी हुयी थी रास्ते में। वो तो भला हो कि मैंने एक बैग एक्सट्रा रखा था इसलिये सामान उसमें ही आ गया था वरना रास्ते में जाने कितनी परेशानी होती।’
’अरी भागवान! जरा सुस्ता लेने दे। किती मुश्किल से इस बाथरूम के पास खड़े होने की जगह मिली है। तू तो कहीं भी बैठ जाती है पर मेरे पैरों में दर्द होता है, मुझे तो स्टूल या कुर्सी में ही बैठने बनता है। ये टूटने वाला नहीं है आखिर इसे मैंने अपनी मेहनत के पैसों से खरीदा है।’ रमेश मुस्करा कर बोला तो माहौल गर्मा गया।
’तो क्या मेरे बाप ने जो सूटकेस दिया था वह चोरी का था ? उसे भी तो उन्होंने मेहनत की कमाई से ही तो खरीदा था…।’
’चल अब बातें मत बना भूख लग रही है रोटी सोटी दे दे….।’
उसकी बात ही पूरी हुयी थी कि एक आदमी उन दोनों के बीच से निकला। उसकी चप्पल से सुमन का पैर जरा सा कुचल गया।
’उई मां! क्या भगवान ने आंखें नहीं दी हैं, देख कर चलो।’ सुमन चीख के साथ बोल पड़ी पर वह आदमी रूका नहीं शायद उसे जम कर लगी थी। जबकि आस पास खड़े यात्री ट्रेन की आवाज और अपनी थकान के बावजूद सुमन की चीख पर चौंक गये।
’देखो, भीड़ बहुत है। अब तुम ट्रेन में लड़ाई झगड़ न शुरू कर देना।’ अपने चेहरे का पसीना पोंछते हुये वह सुमन से बोला।
’वाह! अजीब बात करते हो एक तो वो मुआ मुझे कुचल कर चला गया, ऊपर से तुम कहते हो कि उसे कुछ न कहूं। मेरा बस चलता तो उसे यहीं खड़ा रखती!’ सुमन अपने स्थान पर खड़ी हो गयी।
रमेश को वह यात्री बाथरूम से फारिग होकर आता दिखा। वह खुद भी खड़ा हो गया।
’क्यों भइया! भगवान ने आंखें दी हैं या फिर बटन! मेरी पत्नी का पैर कुचल दिया। देखिये जरा कितनी चोट लगी है।’
सुमन रमेश की ओर देख रही थी तो कभी उस यात्री की ओर। वह यात्री चुपचाप खड़ा होकर हाथ जोड़ लिया।
’जाने दो, बेचारे वैसे ही परेशान थे। इतना भी ज्यादा नहीं लगा है।’ सुमन कहती हुई अपनी जगह पर बैठ गयी। उसी वक्त तेज गति से चलती ट्रेन शायद किसी मोड़ से गुजर रही थी इसलिये वही यात्री एकदम से सुमन की ओर झुक गया। वह गिर ही जाता अगर रमेश उसे पकड़ न लेता।
’चना जोर गरम चना जोर गरम!’
’प्रभु तेरे दुख दूर करेगा, अगर तू दूसरों की सुनेगा!’
एक साथ दो आवाजें सुनाई देते ही सुमन ने माथे पर हाथ धर लिया। पसीने की विभिन्न क्वालिटियों के साथ बाथरूम की अजीबोगरीब बदबू के बीच सुमन अपने हाथ में रोटी के डिब्बे का ढक्कन पकड़कर जरा सा खिसक गयी। दोनों महानुभाव उसकी बगल से निकल गये।
’ऐसा लगता है कि ट्रेन भिखारियों और चने मुर्रे वालों के लिये ही चलायी जाती है। जो टिकट खरीदा है उसे भले ही बैठने को जगह न मिले पर इन लोगों को अपना धंधा करना ही है।’ रमेश अपने आप को इधर उधर झुकाता हुआ आने जाने वालों को रास्ता देता हुआ बोला।
उनके पीछे पीछे फल्ली वाला भी नजर आ रहा था।
रोटी में आलू की सूखी सब्जी रखने के बाद उसे रमेश के हाथ में पकड़ाती हुयी वह हां में अपना सर भी हिलायी। पर ये बात अलग है कि ट्रेन तेज गति में सबकुछ हिल ही रहा था।
’रूको अभी से मत खाने लग जाना, मैं प्याज टमाटर लायी हूं। पहले उनकी सलाद बन जाने दो। और हां, वो छोटे बैग से नमक की पुड़िया निकाल लेना, बिना नमक के टमाटर मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगता है।’ सुमन ने जल्दी से प्याज के छिलके उतारते हुये कहा।
उस भयंकर बदबू ने खुद भी जरा सी राहत की सांस ली। ताजे कटे प्याज और टमाटर की मिलीजुली गंध ने उस मटमैली सी गंध को दूर करने का गिलहरी प्रयास किया। पराठे और अचार ने इन सब पर आग ही लगा दी। आसपास के सारे यात्रियों ने अपनी आंखें उनकी ओर अनायास ही कर लीं।
बाहर के रेल लाइन के किनारे लगे पेड़ भी झांकने लगे। दरवाजे से आती तेज हवायें फागुन की गर्मी को शांत कर रही थी वहीं सूरज की पेड़ों के बीच चलती अठखेलियां मौसम को दीवाना बना रही थीं। ये बात सुमन ने रमेश को रोटी पकड़ाते हुये महसूस करी थी। अपनी आंखों से इशारों में जो भी कुछ कहा, अचानक से रमेश का चेहरा उतर गया। तभी पानी की कुछ बूंदे उन तक आयीं। सुमन कुछ पूछती या बोलती उसके पहले ही रमेश ने कह दिया।
’वो भाई साहब हाथ धो रहे हैं।’
’आखिर ये अंधे लूले लंगड़े ट्रेन में ही भीख मांगते नजर क्यों आते हैं ?’ रमेश ने पराठे का कौर मुंह में ठूंस कर प्याज की एक कली भी डाल दी।
’आखिर बेचारे लाचार हैं यात्रा के दौरान दान करने की परम्परा रही है हमरे देश की इसलिये ट्रेन में उनको दो पैसे मिल जाते हैं।’
’दो पैसे मिल जाते हैं ? पागल हो गयी हो क्या ? हमारे से ज्यादा इनकी कमायी होती है। सुबह से लेकर रात भर में हजारों रूपयों का दान मिल जाता है।’ रमेश ने हरी मिर्च चबायी।
’उन बेचारों की बेचारगी देखो। ऐसे न बोलो। कोई भी किसी के सामने मजबूरी में ही हाथ फैलाता है। वरना आदमी का जमीर किसी को किसी के सामने झुकने नहीं देता।’ पराठे का डिब्बा खोलकर एक पराठा और लिया। आम के अचार की एक कली भी ले ली। replica watch usacustom phone caseself bar vape near meelfbar elfatelefoonhoesjes nldo elf bars go off
’बड़ी दया आ रही है उन पर! जबकि यही लोग हमारे यहां चुपचाप बैठने पर लगातार उंगलीबाजी कर रहे हैं। हर दस मिनट में एक भिखारी आता है तो हर पांच मिनट बाद एक चना मुर्रा, भेल फल्ली वाला आता है। ककड़ी, सेब, संतरा, केला, ताले चाबी, कीरिंग, बेल्ट, रूमाल न जाने क्या क्या नहीं बिक रहा है। ऊपर गुटका पान तंबाखू वाले भी घूम रहे हैं। कितना मुश्किल सफर है।’ झटके से मिर्ची का बचा हुआ आधा हिस्सा मुंह में भर लिया। ऐसा लगा मानों वह सुमन की बातों से कुछ ज्यादा ही खफा हो गया था।
’देखो, भगवान ने सबको एक पेट दिया है। जो अंधे कुअें की तरह है। आखिर बेचारे कुछ न कुछ तो करेंगे ही। और ये भी सोचो जरा कि अगर ये बेचने वाले अगर ट्रेन में न आते तो उन लोगों का क्या होता जो बेचारे सफर में हड़बड़ी में आने को मजबूर होते हैं। दोनों ओर से मजबूरी है….’
सुमन की बात अधूरी रह गयी। उसके हाथ का लगभग एक चौथाई पराठा ट्रेन की धरा पर गिर गया था। उसने घूर कर फल्ली वाले को देखा जिसकी टांग के टकरा जाने से उसके हाथ में धक्का लग गया था।
फल्ली वाला रूक गया और उसके पीछे आती केला बेचने वाली भी रूक गयी। फल्ली वाला आंखों ही आंखों में पूछा ’क्या है ? रूकूं या जाउं!’
सुमन ने अपनी आंखें झुका ली और वह टुकड़ा ट्रेन की जमीन से उठा कर बाहर फेंक दिया। रमेश ने उसे मुस्कराकर देखा। प्रत्युत्तर में सुमन ने उसे घूर कर देखा।
’अब आया न समझ में!’
’…..’ चुप ही रही सुमन रमेश के सवाल पर।
’चार बार गया था रेलवे स्टेशन रिजर्वेशन करवाने तुमको तो बताया था कई बार। पहले तीन बार में मेरा नंबर ही नहीं आया था। चौथी बार में नंबर आया तो वेटिंग में मिला। तीर्थ यात्रा पर जाना है बताया था भगवान जी को। और चारों बार मैं मंदिर जाकर भगवान से प्रार्थना भी की थी। हे भगवान मेरी टिकट कनफर्म करवा देना। बड़ी दूर का सफर है। इस ट्रेन में तो बारहों महीने भीड़ होती है। पर भगवान ने नहीं सुनी….!’
’कैसे नहीं सुनी ? आखिर जा रहे हो कि नहीं तीर्थयात्रा पर। उसकी मर्जी होती है तब ही आदमी जा पाता है। तुम चाहे जितना भी विचार कर लो चाहे जितने जतन कर लो उसकी मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता है। भ्गवान को तो बिलकुल दोष मत दो। तुम्हारी ही किस्मत में दोष हो तो दूसरो ंको दोष नहीं दिया करते…।’ सुमन की बात खत्म होने को तैयार नहीं थी। रमेश उठकर वाशबेसिन से हाथ धोया। बाहर देखते हुये ऐसा लगा मानों बाहर के पेड़ों में उसे गले लगाने की होड़ सी मची है। उस वक्त ट्रेन एक संकरे से गलियारे से गुजर रही थी। हवा और ट्रेन की आवाज भी बदल सी गयी थी।
’गरम फल्ली, गरम फल्ली!’
रमेश विचार कर रहा था कि इस फल्ली वाले को क्यों न इस दरवाजे से बाहर ढकेल दूं। एक तो कम होगा। फल्ली फल्ली, साला सुबह से शाम होने जा रही है पर इनका आवाज लगाना आना जाना बंद ही नहीं हो रहा है। एक तो बैठने के लिये जगह नहीं है दिन भर में सूटकेस पर बैठे बैठे ऐसा लग रह है सूटकेस का हेण्डिल मानों सूटकेस से निकल कर पिछवाड़े में लटक गया हो। एक जगह जरा सा बैठते ही कोई न कोई आ ही जाता है।
पर यथार्थ में मन मसोस कर रह गया। वाश बेसिन से हट कर वापस अपे सूटकेस पर बैठ गया।
’सुनो जी!, टीटी आकर बतायेगा न कि हमारा वेटिंग कनफर्म हुआ है या नहीं।’ सुमन ने उबासी लेते हुये पूछा।
’पेट भरने के बद ऐसे ही खतरनाक ख्याल आते हैं मैडम!’ रमेश ने उसकी ओर मुस्करा कर देखा।
’मतलब ?’ सुमन झटके से एलर्ट मॉड पर आ गयी। उसी इस हरकत पर सहयात्री लगभग हंस ही पड़े।
’सरकार को तो टीटी की तनखा बंद कर देनी चाहिये। उसे बिना तनखा के काम पर रखना चाहिये। वह तो ट्रेन में सीट बेच बेच कर ही इतना कमा लेता है कि अपने बच्चों को मेडिकल कालेज में डाक्टरी की पढ़ाई करवा लेता है। ऊपर से जिस ट्रेन रूट में उसकी ड्यूटी लगती है उसके हर स्टॉप में एक एक प्लॉट होते हैं।’ रमेश अपनी ही रौं में बोला तो एक सहयात्री ने अपना सर हिला कर समर्थन किया। ’भैया जी! ये तो सोचो कि अगर टीटी इस तरह से मदद न करे तो खाली ट्रेन चलने पर रेलवे को क्या कमाई होगी।’
रमेश उस सहयात्री का मुंह आश्चर्य से देखने लगा। उसे लगा कि खुद को नींद आ रही है इसलिये उस सहयात्री की बात अजीब लग रही है। उसने खुद को चिकोटी काटी।
’ऊ..उ.!’
’यानी मैं तो जागा हुआ हूं।’ रमेश बड़बड़ाया। सहयात्री उसकी ओर बड़ी बारीकी से देख रहा था परन्तु उसे बात समझ नहीं आयी कि माजरा क्या है।
’भाई साहब! हम लोग अठारह दिन पहले से रिजर्वेशन करवाये थे और आज यहां ट्रेने के मूत्रालय के सामने बैठ कर यात्रा कर रहे हैं। इसके बाद अगर टीटी किसी और को बैठने सोने को जगह दे देता है तो वह किसी की सहायता करना कैसे हो सकता है ? हमें एक तो जगह भी नहीं मिली है और पैसा भी लगा है रिजर्वेशन का। हमारी क्या गलती है माई बाप ?’ अपने दोनों हाथ जोड़कर सहयात्री के सामने अपनो सर झुकाकर रमेश बोला।
’…’
सहयात्री को समझ ही नहीं आया कि रमेश उसके सामने ये क्या कर रहा है ? वह चुप ही रहा।
’बताइये भाई साहब हमारी क्या गलती है और टीटी साहब कैसे भगवान का अवतार हो गये।’ रमेश ने उस सहयात्री से पुनः पूछा। तभी उसकी पत्नी सुमन बीच में हंसकर बोली।
’लगता है भाई साहब भी बगैर टिकट या बगैर रिजर्वेशन के यहां बैठे हैं इसलिये टीटी को भगवान मानकर मन ही मन उनको प्रणाम कर रहे हैं।’
सहयात्री झेंप गया। उसकी चोरी पकड़ी गयी थी पर वो कैसे स्वीकार कर लेता ये बात।
’ऐसा कुछ नहीं है भाभी जी! मेरा कनफर्म रिजर्वेशन है।’ ऐसा कहकर उसने अपने में जेब में हाथ डालने का उपक्रम किया।
रमेश अगले ही पल पूछ बैठा।
’तो फिर आप यूं खड़े खड़े क्यों यात्रा कर रहे हैं ? अनुभव तो नहीं ले रहे हैं कि ऐसे खड़े खड़े सफर करने में कितना आनंद आता है।’
ट्रेन की भीड़ ठसठसा कर हंस पड़ी। वह सहयात्री चुपचाप दूसरी ओर देखने लगा।
तभी सुमन अपने भ्री शरीर को उठाने की असफल कोशिश की फिर रमेश को इशारे से अपने पास बुलाया। फुसफुसाती हुई बोली।
’कहीं ये आदमी चोर उचक्का तो नहीं है। उसके पास रिजर्वेशन है फिर भी वह यहां क्यों खड़ा है ? जरा ध्यान रखना उसकी ओर।’
अचानक अनेक जोड़ी आंखें उस सहयात्री को बेधने लगीं।
’टिकट-टिकट!’ की आवाज के साथ ही बाजू वाली बोगी से अबकी बार टीटी साहब यानी सबके भगवान आ रहे थे। बोगी का माहौल अचानक बदल गया। टीटी के आगे पीछे पहले से ही पंद्रह सोलह लोग लटके हुये थे। उन लटके हुये लोगों के चेहरे भी लटके हुये थे। कुछ के तो चूसे हुये आम की तरह हो गये थे।
’सर! मेरा टिकट कनफर्म हुआ क्या ?’ रमेश जैसे तैसे उसके पास पहुंचा और पूछा।
’देख रहे हो न कितनी भीड़ है। टिकट कैसे कनफर्म होगा!’ इसके साथ ही दो सीट का टिकट बनाकर एक सज्जन को पकड़ा दिया। उन सज्जन ने पांच पांच सौ तीन नोट दिये और विजयी भाव से अपनी टिकट पकड़कर निकल लिये। बाकी पैसों की न तो मांग की न ही पलट कर देखे।
सुमन को तुरंत याद आया कि वे लोग भी किसी होटल में जाकर वेटर को ऐसे ही पैसे देकर निकल लेते हैं। टीटी के चेहरे के जैसे भाव ही उस वेटर के चेहरे पर होते हैं।
’तो भाई साहब! इनको कैसे आप टिकट बांट रहे हैं ? हम लोगों की वेटिंग है पहले तो हमको मिलना चाहिये न। हमने अठारह दिनों पहले रिजर्वेशन करवाया है।’ रमेश यह कहकर अपने पास खड़े यात्री को झटके से खींच कर हटाया।
टीटी उसकी हरकत देखकर रूक गया और खुद रमेश के पास आकर बोला।
’देखो वेटिंग टिकट पर आप रिजर्वेशन बोगी में सफर कर ही नहीं सकते हैं। मैं चाहूं तो आरपीएफ वालों को बोल कर अगले स्टेशन पर उतरवा दूंगा। अपनी आवाज जरा धीरे कीजिये।’
तभी जादू की तरह उसके पीछे से आरपीएफ के दो जवान प्रकट हो गये। रमेश अपने मुंह का थूक निगला। और चुप ही रहा। परन्तु अबकी सुमन सामने आ गयी।
’यूं डरा रहे हो क्या आप ? हमने पैसा दिया है वह भी बीसों दिन पहले से। हम आपके यात्री हैं हमसे आप ढंग से बात कीजिये। वरना कानून हमको भी आता है….’
’देखो मैडम! शांति से बात करो। ये कोई बनिये की दुकान नहीं है रेलवे है। अगर सीट खाली होगी तो मिल जायेगी। बेकार की बहस से कोई फायदा नहीं।’ टीटी शांत स्वर में बोला। इस बीच वह दो लोगों को और भी टिकट दे दिया था और करारे नोट उसकी जेब में घुस गये थे।
दोनों टिकट खरीदने वाले यात्री रमेश और सुमन को उपहास की नजरो ंसे देखते हुये चले गये।
सुमन ने उन दोनों को घूरकर देखा। फिर टीटी की ओर देखी।
’देखिये भाई साहब! आप सीधी तरह सीट दे दीजिये वरना आपको भुगतना पड़ जायेगा।’
’अच्छा!’ टीटी अपनी कलम बुक आदि अपने बैग में डालता हुआ अब लड़ने के मूड में आ गया।
’जी साहब! आप हमको जानते नहीं हो। हम जो ठान लेते हैं न तो वह कर के ही मानते हैं। जहां पर आपकी डयूटी बदलेगी हम भी वहा ंउतर जायेंगे। वहां के पुलिस थाने में आपकी रिपोर्ट लिखवायेंगे। हमसे छेड़खानी का आरोप भी लिखवायेंगे। एक तो चोरी ऊपर से सीनाजोरी! हमारा भाई पुलिस विभाग में इसी रूट में डीएसपी है। जांच होगी तो जो ये आप टिकट काट काट कर अपनी जेब फुला रहे हो न, फिर अपने घर से लाकर वहां जमा करना। समझे न!’
दो पल की यूं लगा ट्रेन की आवाज आनी बंद सी हो गयी हो। सिर्फ भांय भांय की आवाज ही आ रही थी।
’चलो ये सब बातें करके एक सरकारी कर्मचारी को डराने का प्रयास मत करो। मैं मानवता के आधार पर आप को एक बर्थ दे देता हूं वरना इस ट्रेन में एक भी सीट खाली नहीं है।’ टीटी ने रमेश के हाथ टिकट खींच कर उस पर एक नंबर लिख दिया।
सुमन कुछ बोल ही रही थी कि टीटी को घेर कर रखे सहयात्रियों ने उन दोनों को चुप कराने लगे।
’अरे मैडम! शांत हो जाइये! आधा सफर निकल ही चुका है। अब जो सीट मिली है उस पर जाकर बैठ जाओ। हम सबको भी तो सफर करना है।’ कुछ यात्री उनको पीछे ढकेल कर सामने आ गये।
रमेश ने सुमन को आंखों से इशारा किया और वे दोनो ंअपनी जगह पहुंच गये। सुमन के चेहरे में प्रसन्नता की चमक देखकर रमेश स्वयं भी प्रफुल्लित था। बर्थ मिल जाने की खुशी छिपाये नहीं छिप रही थी। अपना सामान जैसे तैसे उठाकर अपनी बोगी और सीट पर चल पड़े। वे एस 8 में बैठे थे और उनको जाना था एस 1 में।
लगभग आधे घंटे से ज्यादा लगा होगा। आखिरकार वे उस बर्थ तक पहुंच ही गये।
’गनीमत थी कि ये साइड बर्थ है। वरना अभी और परेशानी होती।’ रमेश ने कहा। ’बीच बीच में घुस कर बैठना पड़ता। यहां कम से कम एक साथ तो बैठेंगे।’ कहते हुये रमेश का हाथ सुमन के शरीर से टकरा गया। अबकी सुमन ने मुस्करा कर उसकी ओर देखा।
खिड़की के पल्ले को ऊपर तक उठाया। अब ठण्डी हवा का झोंका भीतर तक सुकून भर दिया। अपने पैरों को तान कर सुमन के पैरों पर रख दिया।
’जरा बैठो मैं बाथरूम से आती हूं। जाने कब से प्रेशर बन रहा है।’ कहती हुयी सुमन अचानक उठ खड़ी हुयी।
’ठीक है। जाओ फिर सोना भी है। बर्थ मिली है तो सो भी लें। वैसे भी शाम के आठ बज चुके हैं।’ रमेश कहता हुआ मुस्कराने लगा।
सुमन के जाते ही बैग से हिन्दी की साहित्यिक पत्रिका ’बस्तर पाति’ निकाल कर पढ़ने लगा जिसे वह रेलवे प्लेटफार्म से खरीदा था। कुछ पन्ने पलटते हुये ध्यान से पढ़ने लगा। पंद्रह मिनट कब गुजरे पता ही चला।
’अब खिसक भी जाओ साहब! हमें भी सोने की जगह दो। आखिर मेहनत तो हमने ही की है। तुमसे तो कुछ नहीं बनता है। टीटी को जोर से हड़काते ही वह एक बार में सबकुछ समझ गया। भीगी बिल्ली की तरह एक बार में ही बर्थ दे दिया। तुमको तो ऐसी साहित्यिक पत्रिकाओं को पढ़ने में ही मजा आता है। अब खिसको जरा मेरा मुंह क्या देख रहे हो।’
रमेश के पैरों को लगभग ढकेलती हुयी सुमन बर्थ पर घुस कर बैठ गयी।
’इतना गंदा था न बाथरूम क्या बताउं, अब तक कपड़ों से बदबू आ रही है। जाने क्या खाकर लोग सफर करते हैं।’ उबकाई लेती सुमन रमेश को बता रही थी और रमेश पत्रिका के पन्नों में ही उलझा रहा।
अचानक सुमन उसके हाथों से पत्रिका छीन कर बोली।
’अब सो भी जाओ आराम से। मैंने तुमसे कहा था न कि भगवान के नाम से किया गया कार्य हमेशा सफल होता है। उनके यहां जा रहे हैं तो वो हमारे लिये व्यवस्था जरूर करेंगे। अब देखो बर्थ मिल गयी कि नहीं।’ रमेश अब भी पत्रिका में पढ़ी सामग्री के बारे में सोचने में ही मगन था। अबकी जरा जोर से सुमन बोली। ’भगवान के आशीर्वाद से बर्थ मिल गयी है। कहां इन कथा कहानियों में घुसे पड़े हो।’
रमेश उसका मुंह देखता हुआ सोच रहा था कि अबसे मात्र तीन घंटे बाद ही उनको उतरना है वह कैसे सो जाये।