आलेख-उसने कहा था के बहाने

उसने कहा था के बहाने-

प्रेम की ऊंचाईयों और भावनाओं की गहराईयों की अनुपम प्रस्तुति है ‘उसने कहा था’। वर्तमान परिदृश्य बदन को उघाड़ने, सुबह नजरे मिली और रात को तन, वाला है। इस दौर में नैतिकता का शिखर तो क्या चरण भी नहीं छुआ जा रहा है। लहनासिंह की कल्पना बनावटी और उसका प्यार दिखावटी समझे जाने वाले इस दौर में इस कहानी के बहाने क्या कहा जा सकता है, विचारणीय है। इस दौर में मात्र कुछ प्रश्न ही उठते हैं उत्तर तो अनंत होते हुए भी शून्य हैं।
खैर, इस दौर में जीवन के समस्त नैतिक स्तम्भों की तरह सच्चे प्रेम के स्तंभ को ढहते देखा जाना मजबूरी है फिर भी मानवीय स्वाभाव के चलते टीका आवश्यक है। इस कहानी से उठने वाला एक बिन्दु जो तीर की तरह उठ रहा है कि वायदा करके निभाना वह भी उस औरत का जो किसी दूसरे की हो चुकी है, वायदे का यूं महिमा मंडित करना बड़ा ही आंदोलनकारी लगता है। आंदोलनकारी विशेषण कुछ अतिशोयिक्ति पूर्ण लग रहा होगा पर क्या गलत है ? बाजारवाद की अवधारणा और वर्तमान में भोगे जा रहे सत्य में कहां से गलत महसूस हो रहा है ? लाभ के लिए जीने की सोच का बोलबाला है जिन अदृश्य भयों से डरकर समाज रास्ते में चलता था वे तो कब के तोडे़ जा चुके हैं। उन भयों में नरक की अवधारणा, स्त्री के शीलभंग को दुनिया का सबसे बड़ा अनर्थ माना जाना, वचन की अवहेलना पर जान दे देना आदि प्रमुख हैं जो समाज को व्यवस्थित रखने में मुख्य कारक थे। इनका ध्वस्त होना न केवल इस भारतीय संस्कृति के विनाश का सूचक है बल्कि सामाजिक विकृति का जनक भी है। सामाजिक दुराचरण के बढ़ने की वजह से जहां एक ओर स्त्रियों की आजादी के प्रश्न खड़े हो गये हैं वहीं दूसरी और स्त्री स्वयं ही एक गढ्ढे की ओर बढ़े ऐसी व्यूह रचना जारी है। स्त्रियों के साथ किये गये भेदभावों को खोज-खोजकर उन्हें भड़काया जा रहा है, उनके लिए आजादी मांगी जा रही है। उन्हें सदियों से प्रताड़ित बताया जा रहा है, जबकि प्रताड़ना के संबंध में सच यह है कि दुनिया का हर व्यक्ति प्रताड़ित है किसी न किसी तरह। इस प्रताड़ना को पाने के लिए स्त्री योनि में ही आना जरूरी नहीं है। स्त्री की आजादी के प्रश्न के साथ ही उन्हें नये तरीकों से नई सोचों से उपभोग की वस्तु बनाया जा रहा है स्त्री आजादी की संतुष्टि के साथ।
बहरहाल लहनासिंह ने जिससे पहली नजर में प्यार कर लिया था और उसी वक्त ‘तेरी कुड़माई हो गई ?’ पूछकर अपना दिल भी तोड़ लिया था उसका ही सामना सूबेदारनी के तौर पर होता है। और सूबेदारनी उससे अपने पति की रक्षा का वचन लेती है, लहनासिंह अपने शरीर पर गोली का घाव सहन करके भी अपने साहब की रक्षा करता है और आखिर में जान दे देता है।
ये ‘वचन’ ही तो वह कारक है जो ‘उसने कहा था’ कहानी और इस आलेख का जनक है। ये वही ‘वचन’ है जो कैकई ने राम से लेकर चौदह बरस जंगल में भटकने छोड़ा था। ‘प्राण जाई पर वचन न जाई’ की सोच के पीछे संकल्प की पराकाष्ठा है, नैतिकता की ऊंचाई है तो दायित्वबोध की आत्मा है। इस आत्मा को ही सरे राह पैरों से कुचल कर मारा जा रहा है। दायित्वबोध को कुचलने के पीछे क्या है, अनदेखा तो नहीं है। नैतिकता के समस्त पैमाने ध्वस्त हो चुके हैं।
एक पल को जरा सोचें कि यदि भारत सरकार देश में प्रचलित नोटों को लेने से इंकार कर दे और कह दे अभी के अभी ही ये कागज के टुकड़े हैं तो क्या होगा ? यदि बीमा कंपनियां कह दे कि हम बीमा का पैसा नहीं देंगे, बैंक कह दे कि हमने जमा पैसा हजम कर लिया है। इन परिस्थितियों में क्या होगा ? कौन जवाबदेह होगा ? कौन धोखेबाज होगा ? कौन किस पर विश्वास करेगा ? किस तरह देश चलेगा ? कैसे अराजकता नहीं फैलेगी ? इस तरह के कई प्रश्न मुंह उठाये आ खड़े होंगे तो कौन देगा जवाब ? किसके पास है इन परिस्थितियों से बाहर आने का रास्ता ? क्या कारण थे ऐसी परिस्थितियों के हावी होने के ? क्या ऐसा होना उचित है ?
इन सभी का उत्तर है ‘वचन’ की सार्थकता बनी रहे। मात्र एक छोटा सा शब्द ‘वचन’ ही है जो नैतिकता की उड़ान भरता है। रिश्तों के बीच भावनाओं को जन्म देता है। दायित्वबोध देता है। यदि शादी करके पति-पत्नी बन जायें तो इन वचनों की ही तो उपस्थिति से मां-बाप, बेटा-बेटी आदि रिश्तों में प्राण संचारित होते हैं। अगर ऐसा न हो तो पति क्यों पत्नी के लिए व्यवस्थायें करें और पत्नी क्यों पति के लिए क्यों घर छोड़कर आये ? क्या ऐसा मात्र यौनापूर्ति के लिए है ? मात्र यौनापूर्ति के लिए होता तो लोग शादी न करके हवस पूरी करते और स्वंच्छ जीवन जीते। बिल्कुल पश्चिम की तरह जहां नजर मिली तन की हवस की पूर्ति हो गई। बच्चे पालना पति-पत्नी की संयुक्त जवाबदारी नहीं हैं, अनाथ आश्रम हैं लाखों की तादात में। वैसे ही परिवार की जिम्मेदारी से दूर वृद्धाश्रम हैं। मात्र यौन आधारित जीवन की अवधारणा है। हमारे यहां भी इसके लिए प्रयास हो रहे हैं। संयुक्त परिवार तोड़ा जा चुका है। लिव-इन लागू है। गे कानून लागू नहीं, परन्तु मौन समर्थन है। आदि।
लिव-इन सीधे-सीधे यह नहीं समझाता कि जब तक मन करे मजे लो और शादी-वादी की जिम्मेदारियों से बचो, औरतें खाना नहीं बनायेंगी बाजार से पिज्जा, बर्गर, आइसक्रीम, चॉकलेट, आयेगा। खाओ पियो ऐश करो। पति-पत्नी दोनों कमायेंगे, अपनी शारीरिक जरूरतें पूरी करेंगे। जब मन भरा या किसी दूसरे पर नजर पड़ी, बदल लो, नया लिव इन।
ऐसा पहले सुनते थे कि कुछ ‘पत्नी बदल’ ग्रुप थे जो आपस में पत्नियां बदल-बदलकर नये आनंद की प्राप्ति करते थे। वेश्यावृति के नये तरीके कहकर, वेश्यावृति करने को मजबूर औरत का मजाक नहीं उड़ाना है यह तो स्वछंद यौनवृति का रूप है।
इन आनंदमयी, रसभरी योजनाओं के मनन से प्रश्न यह उठता है कि इन परिस्थितियों में समाज अराजक नहीं हो जायेगा ? यहां कई प्रगतिशील तुरंत ही कह उठेंगे कि क्या पश्चिम अराजक है ? उसने ही तो विश्व को विकास की तस्वीर से जीवंत रूप दिया है। वे प्रगतिशील आत्मचिंतन करें, जिन बिन्दुओं के कारण भारतीय संस्कृति को नकारा जाता है, आलोचना की जाती है, वे वही बिन्दु हैं जो समाज को जोड़कर जिम्मेदार बनाते हैं। इसके लिए किसी भौतिक कानून की जरूरत नहीं पड़ती है।
लहना सिंह धन्यवाद का पात्र है जिसने समाज को जोड़ने का संदेश दिया। प्यार बढ़ाने का संदेश दिया। अपने दिल में बसी प्यार की चिंगारी को ज्वाला बनाया पर उसे सार्थक रूप देकर समाज को संदेश सच्चा संदेश दिया। पश्चिम की संस्कृति को लात मारकर सूबेदार की जान बचाई न कि उसे मरवाकर खुद ही सूबेदारनी तक पहुंच गया।
साधुवाद लहनासिंह! तूने हमारी भारतीय संस्कृति का न केवल मान रखा बल्कि मजबूती प्रदान की।