अंक-5-नक्कारखाने की तूती-छुआछुत के वाहक

छुआछुत के वाहक

 

बड़े आश्चर्य की बात हैं दुनिया का हर आदमी शौच करता है और खुद ही साफ करता है वह अशुद्ध नहीं होता है। मां अपने बच्चों का शौच साफ करती है, घर के बुजुर्गों की सफाई घर वाले करते हैं। वे अशुद्ध या अछूत नहीं होते हैं फिर दुनिया को साफ-सुथरा रखने वाले कैसे अछूत हो जाते हैं?
ऐसे में तो यही सही हो सकता हैं जो गंदगी फैलाएगा वही सफाई करेगा। या फिर ये हो सकता है कि सफाई करने वाले सूअर से दूर रहकर, खुद भी साफ-सफाई से रहने लग जायें।
हमारे देश में एक गंदी सोच कायम है जो प्रत्येक व्यक्ति में है वह है, किसी भी काम की कमाई के हिसाब से उसे छोटा या बड़ा समझना; कार्य को भी और कार्य करने वाले को भी। आज नौकरी के सम्मान के बाद व्यापार का बोलबाला है। बढ़ई, लोहार, घड़ीसाज, टीवी/फ्रिज बनाने वाले, मजदूर, कंम्प्यूटर बनाने वाले आदि लोगों को छोटा समझा जाता है। विडम्बना यह है कि जिस अनाज से पेट भरता है उसके पैदा करने वाले को भी सम्मान नसीब नहीं है। प्रत्येक कार्य जब तक सम्मान की नजर से नहीं देखा जाएगा तब तक बराबरी के प्रयासों का सफल होना संदिग्ध है।
एक महत्वपूर्ण बात, सरकारी विभाग में चपरासी और भृत्य आदि का होना भी एक तरह से सरकार प्रायोजित विज्ञापन है और यह ऊंच-नीच, भेद-भाव का संदेश देना ही होता है। वहां से लोग सीखते हैं कि झाडू मारना, पानी पिलाना, पानी भरना आदि छोटे काम हैं।
आधुनिकीकरण और शहरीकरण, छूआछूत की समस्या को लगभग खत्म करने की कोशिश में लगे हैं। समय की कमी और व्यस्तता ने ऐसे सवाल पूछने बंद कर दिये हैं। उन्हें स्वरोजगार के रास्ते दिखाये हैं। अन्य तरह के कामकाज करने की प्रेरणा मिली है। आगे बढ़ने की सोच जागी है। हीनभावना से उबरें हैं। उन लोगों में सफाई से रहने, साफ-सुथरे कपड़े पहनने की सोच आ चुकी है। शिक्षित होना वास्तव में उनके लिए वरदान की तरह है। आरक्षण की सहूलियत के चलते नौकरी पा चुके लोगों का जीवन स्तर ऊंचा उठ चुका है।
पर विडम्बना एक ही है कि ऐसे लोग अपने समाज के लिए कुछ कर नहीं रहे हैं। यहां यह कहना कि कर नहीं रहे हैं थोड़ा गलत लगता है कोई भी अपने समाज के प्रति जवाबदार नहीं है तो हम दलित समाज से क्यों ऐसी अपेक्षा रखें ? परन्तु अन्य समाज को जरूरत भी तो नहीं है। अभी होता यह है कि संपन्न दलित लोग अपने समाज के अन्य लोगों से दूर रहने की कोशिश करते हैं जिससे उनकी इज्जत बनी रहे। लोग उनके रूतबे, पैसे से घुले-मिले रहें।
अपने देश की परिस्थितियां ऐसी हैं कि हर जगह हर समाज के लोग रहते हैं। हम यह नहीं कर सकते कि मात्र उन्हें विद्रोह का झण्डा पकड़वाकर मुख्य धारा से अलग कर दें। भूख का गणित ही पहले पहल काम करता है। इस सवाल का हल प्रत्येक समाज के लिए एक सा होता है बल्कि उन्हें मुख्य धारा लाने का सार्थक प्रयास करें। उनकी सोच को बदलना, रहनसहन के तरीके बदलना, खानपान को बदलना, रीति-रिवाज को बदलना और साथ ही शिक्षा की अलख जगाना, उनके बीच लगातार रहकर किये जाने वाले प्रयास हैं। रीति-रिवाज को बदलना इसलिए आवश्यक है क्योंकि सदियों से विषम परिस्थितियां में रहते हुए अपनी उस परिस्थितियों को रीति-रिवाजों में बदल दिया, उन्हें ही सच्चाई मान बैठे हैं। क्या उन्हें बदलने की जरूरत नहीं है? हमारे न चाहते हुए भी जिन्दगी ऐसी है, या हमारा जन्म ही इसीलिए हुआ है, वो बड़े हैं हम छोटे हैं आदि सोच बदलने की जरूरत है। यही सोच दूसरी ओर भी बदलना आवश्यक है। दूसरी तरफ के लोग इस सोच को भगवान की वाणी, पूर्व जन्म का फल बताकर सही सिद्ध करेंगे क्योंकि ऐसा होने से उनकी जय बोलने वाला, उनकी बात मानने वाला, उनकी सेवा करने वाला गुलाम तैयार रहता है। वह सोच न बदल पाये, तरह-तरह से चाल चलेगा। इसके लिए एकजुट होना जरूरी है।
दुनिया की एक सच्चाई है कि किसी न किसी को अनाज उगाना ही है तब ही पेट भरेगा। वैसे ही सफाई संबंधी कार्य भी पैदा होंगे उसे भी कोई न कोई व्यक्ति करेगा ही। ये अलग बात है कि इस कार्य के लिए जाति विशेष पर जोर बिल्कुल भी नहीं होना चाहिए। जीवन में ऐसे कार्य होंगे ही, इस कार्य को मान्यता मिलनी चाहिए, हेय दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। इस काम में मिलने वाला वेतन अच्छा खासा और बराबरी का होना चाहिए।
हमारे देश की सरकारी व्यवस्था जो कि गुलामी की प्रतीक है यही सीखाती दिख जाती है। हर मोड़ पर, एक ही आफिस में 5000 से 50 हजार वाला मिल जाता है। इस देश की सोच पैसों के अंतर से ही छोटा-बड़ा आंकने की रही है तो फिर अंतर मिटे ही कैसे ? nettoyer coque telephonesonix phone cases5k elf barадвент календарь от эльф бар купитьphone cases with pictures
चपरासी का काम ही क्या रहता है ? झाडू मारने वाले को साहब जितनी तनखा दोगे तो काम करेगा ? बाबू करता ही क्या है, पूरे फैसले तो साहब लेते हैं।
जब बाबू कुछ करता ही नहीं, चपरासी करता क्या है, तो फिर उनकी भर्ती ही क्यों की जाती है। एक साहब की जगह तीन साहब रखो पर वे सारे काम खुद करें। एक व्यक्ति का निर्णय होगा आफिस में, तो वही जवाबदार भी होगा। कामचोरी भी हटेगी। सारे आफिसों में चतुर्थश्रेणी, तृतीयश्रेणी के कर्मचारी दलित या आदिवासी समाज के ही नजर आते हैं। क्या यह एक सबक नहीं इस समाज के लिए? यदि यहां भूला भटका कोई दूसरे समाज का व्यक्ति मिल भी जाये तो वह बाबू, टाइपिस्ट आदि पदों पर जुगाड़ से कब्जा जमा लेता है।
आरक्षण, सस्ता चावल, जल्दी प्रमोशन, समाज को भटकाने के त्वरित उपाय हैं। यह जरूर हुआ है कि दलित समाज का थोड़ा सा हिस्सा सक्षम हो गया है और अपने आप को मुख्य धारा में शामिल भी कर लिया है। इससे समाज के समझदार हिस्से को फायदा हो जाता है तो वह अपने समाज के दूसरे हिस्से से ही सवर्णीय घृणा पाल लेता है। ऐसे उपाय समाज तोड़ने के हैं न कि आगे बढ़ाने के। दलित समाज की आबादी और परिस्थिति के अनुसार कितने प्रतिशत को फायदा हुआ होगा, स्वयं निर्णय करें। वर्तमान उपायों की कमियां निकालना तो आसान है परन्तु नवीन उपाय न सोचना थूक उड़ाना होगा। नवीन उपाय या सुधार ये हो सकते हैं-
1 अनिवार्य शिक्षा सभी के लिए।
2 शिक्षा मात्र सरकारी स्कूलों में दी जाये।
3 शुरू से आखिर तक मुफ्त शिक्षा हो।
4 शिक्षा के विषयों को नये सिरे से सोचा जाये, आश्रम शैली की शिक्षा हो जिसमें हुनर भी सिखाया जाय।
5 भारतीय जीवन शैली के अनुरूप शिक्षा हो क्योंकि 99 प्रतिशत लोगों को तो भारत में ही रहना है।
6 सरकार यानि कार्यपालिका और राज व्यवस्था जिससे हर व्यक्ति का पाला पड़ता है उसे चपरासीवाद, बाबूवाद से मुक्त किया।
गांव या शहर में कूड़ाघर होने ही नहीं चाहिए। सार्वजनिक स्थान पर कूड़ा फेंकने की व्यवस्था ही नहीं होगी तो लोग अपने घर में जमा रखेगें या फिर कचरा गाड़ी का इंतजार करेंगे।
दलितों का जीवन स्तर सुधारना वर्तमान में मात्र सरकारी सिस्टम से ही संभव है। अभी तो सरकारी ऑफिस में बड़े अधिकारी का बाथरूम भी अलग हो गया है, उसका केबिन अलग है उसमें एसी लगा होता है। वह स्वयं को राजा समझता है। उसके लिए अलग से गाड़ी है। सरकारी घर भी उसे बड़ा मिलता है। क्या समाजिक भेदभाव से बड़ा ये सरकारी भेदभाव नहीं है ? ऐसी जीवन शैली देखकर लोग अपने जीवन भी ऐसा ही नहीं अपनाते हैं ? सरकारी ऑफिस में सभी अपने हिसाब से काम करते हैं तो फिर सुविधा का स्तर अलग-अलग क्यों ? ये सरकारी छुआछूत सबसे ज्यादा खतरनाक है क्योंकि हर कोई वहीं से नवाबी सीखते हैं।
दलित उत्थान पर दलितों को विद्रोह झण्डा पकड़वा देना कोई समझदारी नहीं होगी। बल्कि उनके समाज को आगे आकर अपने लोगों के लिए अन्य व्यवसायों की जानकारी सीखाने के सेन्टर खोलने होंगे। मात्र अपना उत्थान हो जाने पर आंख बंद कर के खुश होने का वक्त अभी नहीं आया है।