गहन अंधकार में राह दिखाते जुगनू
(साभार- हायकू व्योम)
परिवर्तन शाश्वत सत्य है। कोई भी क्षेत्र इसका अपवाद नहीं है। साहित्य में भी समय-समय पर सहज- स्वाभाविक परिवर्तन होते रहे हैं, आज भी हो रहे हैं। एक ज़माना था जब साहित्य में प्रबंध -काव्य के प्रकारों यथा- महाकाव्य, खंडकाव्य, चम्पूकाव्य आदि काव्य-विधाओं का बोल -बाला रहा।
जैसे-जैसे समय व्यतीत होता गया और आदमी क्रमशः अपनी बढ़ती आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अधिकाधिक धनोपार्जन हेतु मशीन बनता गया। तात्पर्य यह है कि आदमी इस सीमा तक व्यस्त हो गया कि उसे स्वयं हेतु तथा अपने समय के विषय में सोचने-समझने के लिए अवकाश नहीं मिल पाता था। किन्तु आदमी को आदमी बने रहने हेतु पढ़ना भी अनिवार्य है। इसी अनिवार्यता ने लघुआकारीय विधाओं को जन्म दिया।
इस क्रम में ‘मुक्तक काव्य‘ का सृजन आंरभ हुआ। मुक्तक काव्य से तात्पर्य प्रबंध-काव्य से इतर सभी काव्य प्रकार जैसे गीत, चतुष्पदी (मुक्तक), दोहा, ग़ज़ल, सॉनेट, कविता इत्यादि और बाद में तॉका, सेदोका, चोका, रेगा, और हाइकु क्रमशः प्रकाश में आये और कम्प्यूटर एवं इंटरनेट के युग में क्रमशः ये विधाएं विकास की यात्रा पर चल पड़ीं। इन सभी जापानी काव्य विधाओं में अब हाइकु अपेक्षाकृत अधिक लोकप्रियता अर्जित करता जा रहा है।
डॉ0 सत्यभूषण वर्मा के अनुसार, ‘‘हाइकु मूलतः जापानी काव्य-शैली है। जापानी साहित्य में मुरोमुचि युग (1335-1573) में आशु-कविता प्रतियोगिताओं में प्रायः एक व्यक्ति पूर्वांश की रचना करके उत्तरांश की रचना दूसरे के लिए छोड़ देता था। इस प्रकार दो या दो से अधिक व्यक्ति मिलकर काव्य-रचना करते थे, जिसको ‘रेगा‘ कहते थे। इसी ‘रेगा‘ की आंरभिक पंक्तियां ‘होक्कु‘ कहलायीं । इन तीन पंक्तियों में क्रमशः 5, 7, 5 वर्ण तब भी थे और आज भी अनुशासन वही है।‘‘ यही ‘होक्कु‘ धीरे-धीरे गम्भीर और अभिजातवर्गीय पर हावी होने के साथ-साथ सर्वसाधारण में भी लोकप्रिय बन गया। कालान्तर यह ‘होक्कु‘ अथवा ‘रेगा‘ के बन्धन से मुक्ति पाकर स्वतंत्र कविता के रूप में प्रतिष्ठित हुआ और ‘होक्कु‘ के नये नाम से जापानी कविता की एक महत्वपूर्ण विधा के रूप में विकसित हुआ।‘‘ (डॉ0 सत्यभूषण वर्मा, जापानी हाइकु और आधुनिक हिन्दी कविता, पृष्ठ-1)
यहां यह जान लेना अनिवार्य है कि क्रमशः 5, 7, 5 वर्णों की कोई भी त्रिपदीय रचना ‘हाइकु‘ नहीं हो सकती। काव्य के अन्य रूपों की तरह ही ‘हाइकु‘ में भी कवित्व होना इसकी अनिवार्य शर्त है। इतना ही नहीं, इस अनुशासन में लिखा कोई वाक्य भी हाइकु की संज्ञा प्राप्त नहीं कर सकता।
उदाहरणार्थ देखें-
‘अपने आप/चलकर ही कोई/लक्ष्य पाता है‘ यों तो यह हाइकु अनुशासन को पूरा करता है। किन्तु यह अपने आप में तीन पंक्तियों एवं 5, 7, 5, वर्णों में सजा हुआ एक पूरा वाक्य है। अतः इसे हाइकु नहीं कहा जा सकता।
कलात्मक हाइकु कविता के प्रारंभिक कवि यामानिक सोकान (1465-1553) और आराकिदा मोरिताके सन् (1472-1549) थे। हाइकु को पुनर्जीवन मिला कवि तोइतोकु (1570-1653) के द्वारा , इन्होंने तॉका और ‘रेगा‘ की विधिवत् शिक्षा प्राप्त की थी। ये हाइकु के कुशल शब्द-शिल्पी थे। इनके बाद निशियासा सोइन (1604-1682) ने हाइकु को और अधिक सुशिल्पित किया। ओनित्सुरा ने हाइकु को प्रौढ़ता प्रदान की। इनसे पूर्व हाइकु बौद्धिक-विनोद मात्र था परन्तु ओनित्सुरा ने हाइकु में जीवन-दर्शन की अभिव्यक्ति करके उसे गंभीरता और महनीयता प्रदान की। इनकी हाइकु कविता में प्रकृति-वर्णन की सहज संवेद्यता है। (डॉ0 सत्यभूषण वर्मा)
ऐसा माना जाता है कि हाइकु को साहित्यिक प्रतिष्ठा प्रदान कराने का पूर्ण श्रेय मात्सो बाशो (1644-1664) को जाता है। तत्काल हाइकु-काव्य-रचना हेतु ये तीन गुण निर्धारित किये गये-1. एकाकीपन की स्थिति का चित्रण, 2. एकाकीपन की स्थिति की सहज संवेद्य अनुभूति और 3. सहज अभिव्यक्ति, तीनों गुण उदाहरण स्वरूप उनके 1683 में सृजित निम्न हाइकु में सहज ही देखे जा सकते हैं-
सूखी डाल/काक एक एकाकी/रात पतझर की।
यहां ध्यातव्य है कि बाशो के हाइकु-काव्य में मात्र प्रकृति -चित्रण ही नहीं है अपितु उसमें अध्यात्म का आवरण भी स्पष्ट है। इनके बाद बुसोन, इस्सी और शिकि ने भी इस विधा के विकास में उल्लेखनीय भूमिका का निर्वाह किया।
जैसा कि आरंभ में ही मैंने कहा कि परिवर्तन एक शाश्वत प्रक्रिया है। अतः हाइकु भी इस प्रक्रिया का अपवाद नहीं हैं। समय के साथ-साथ कवियों की सोच बदली। समाज के मूल्य एवं उसकी सच्चाइयां भी क्रमशः बदलती गयीं। देशकाल एवं परिवेश ने भी हाइकु को विषय के स्तर पर प्रभावित किया।
हाइकु जब अज्ञेय एवं कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ टैगोर के साथ अनुवाद के रूप में जापान से भारत आया तो इसकी अन्तर्वस्तु में बदलाव स्वाभाविक ही था, वह हुआ भी। भारत की अन्य कई भाषाओं में तो इसके अनुशासन को भी बदल दिया, किन्तु हिन्दी में इसके अनुशासन को तो ज्यों-का-त्यों ही रहने दिया पर अन्तर्वस्तु के स्तर पर हमारे देश की स्थिति एवं समस्याएं हाइकु के केन्द्र में स्वाभाविक रूप से आ गयीं।
डॉ0 सत्यभूषण वर्मा ने हाइकु का गंभीर अध्ययन करने के पश्चात् हिन्दी में हाइकु को इन शब्दों में परिभाषित किया, ‘‘हाइकु शुद्ध अनुभूति की, सूक्ष्म आवेगों की अभिव्यक्ति की कविता है। प्रकृति के साथ हाइकु का अनन्य सम्बन्ध है। हाइकु जीवन के किसी अनुभूत सत्य की ओर इंगित करती हुई सांकेतिक काव्य-अभिव्यक्ति है। शिल्प की दृष्टि से हाइकु 5, 7, 5 वर्ण क्रम की तीन पंक्तियों की सत्रह अक्षरी अतुकान्त कविता है। इसमें आकार की लघुता का गुण भी हैं और यही उसकी सीमा भी है।‘‘
डॉ0 वर्मा की परिभाषा बाशो के हाइकु-गुणों पर ही आधारित है। यहां यह स्पष्ट करना अनिवार्य है कि हिन्दी में तुकान्त हाइकुओं का प्रचलन रामायण चतुर्वेदी के अनुसार, ‘‘1960 ई0 में इलाहबाद से प्रकाशित दैनिक समाचार-पत्र ‘भारत‘ के साप्ताहिक परिशिष्ट में प्रकाशित रवीन्द्र नाथ शुक्ल के हाइकुओं में देखा जा सकता है, जिन्हें उन्होंने ‘त्रिशूल‘ की संज्ञा से विभूषित किया हे। उनके तुकान्त हाइकु (त्रिशूल) का उदाहरण देखें-
राधिका नारी/कृष्ण को लगती है/बहुत प्यारी
इसके पश्चात् अतुकान्त हाइकुओं का सृजन तो हुआ ही इसी के साथ-साथ तुकान्त हाइकुओं का प्रचलन भी खूब चला, आज भी दोनों रूप ससम्मान चल रहे है।
हाइकु को डॉ0 आदित्य प्रताप सिंह , डॉ0 नामवर सिंह , डॉ0 शैल रस्तोगी , डॉ0 सुधा गुप्ता, डॉ0 भगवतशरण अग्रवाल, राजेन्द्रमोहन त्रिवेदी ‘बन्धु‘, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, डॉ0 सतीशराज पुष्करणा, डॉ0 भावना कॅुअर, डॉ0 हरदीप कौर सन्धु, इत्यादि ने अपने-अपने ढंग से परिभाषित किया।
उपर्युक्त सभी विद्वानों की परिभाषाएं अपने-अपने ढंग से हाइकु तक पहुंचने तथा हाइकु को समझने में सहायक हैं और सभी में एक बात जो सामान्य है कि हाइकु 5, 7, 5 की त्रिपदीय काव्य-रचना है जिसमें कवित्व के होने की अनिवार्यता है। कवित्व का अर्थ कि शब्दों का क्रम यति के अनुसार होना चाहिए तथा उसमें सांकेतिकता और विराम-चिन्हां का उपयोग इस तरह होना चाहिए की हाइकु की लय यानी प्रवाह किसी भी दशा में भंग न हो। कुल लघुआकारीय विधा की विशेषता है, हालांकि इस निष्कर्ष पर बहुत कम हाइकु की खरे उतरते हैं।
वस्तुतः कुछ लोग हाइकु को इतनी लघु कविता समझकर कुछ भी लिख देते हैं वस्तुतः सही एवं श्रेष्ठ हाइकु लिखा नहीं, रचा जाता है। किसी भी रचना को रचना बहुत ही कठिन कार्य होता है, रचना तो स्वयं अपना सम्पूर्ण रूप लेकर इल्हाम होती है।
इस दिशा में अपने-अपने ढंग से कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ ठाकुर, अज्ञेय, प्रभाकर माचवे, सत्यभूषण वर्मा, डॉ0 आदित्य प्रताप सिंह, डॉ0 भागवत शरण अग्रवाल, डॉ0सुधा गुप्ता, डॉ0 शैल रस्तोगी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु‘, उर्मिला कौल, राजेन्द्रमोहन त्रिवेदी ‘बन्धु‘, डॉ0 रमाशंकर श्रीवास्तव, डॉ0 सतीशराज पुष्करणा, डॉ0 भावना कुॅअर, डॉ0 हरदीप कौर सन्धु, रचना श्रीवास्तव, डॉ0 मिथिलेशकुमारी मिश्र, डॉ0 पुष्पा जमुआर, हारून रशीद ‘अश्क‘, नरेन्द्र प्रसाद ‘नवीन‘, सिद्धेश्वर, डॉ0 अनीता राजेश, डॉ0 अर्चना त्रिपाठी, नलिनीकान्त, जितेन्द्र राठौर, डॉ0 सावित्री डागा, पूर्णिमा वर्मन, शैल कुमारी सक्सेना, कमला निखुर्पा, डॉ0 रामनिवास ‘मानव‘, जैनी शबनम, पवन कुमार जैन, उषा अग्रवाल ‘पारस‘, नीलमेन्दु सागर, सदाशिव कौतुक, डॉ0 रामदेव प्रसाद, श्याम खरे, मिर्ज़ा हसन नासिर, राजकुमारी शर्मा ‘राज़‘, राजेन्द्र वर्मा, रामनिवास पंथी, रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर‘, डॉ0 विद्या बिन्दु सिंह, त्रिलोकी सिंह ठकुरेला, सूर्यदेव पाठक ‘पराग‘, सुभाष नीरव, राजकुमार ‘प्रेमी‘, संतलाल विश्वकर्मा, श्रीकृष्ण कुमार त्रिवेदी, सुदर्शन रत्नाकार, सुरेश उजाला, डॉ0 उर्मिला अग्रवाल, डॉ0 रागिनी प्रताप, डॉ0 अरूणा दुबलिश इत्यादि ने इस विधा के विकास में महती योगदान दिया हैं। यहीं यह बताना प्रासंगिक होगा कि डॉ0 सत्यभूषण वर्मा ने हिन्दी-हाइकु सृजन कभी नहीं किया। किन्तु हिन्दी का प्रथम हाइकु-कवि कृष्ण बालदुवा माने जाते हैं, जिन्होंने 1947 में अनेक हाइकु रचे। उदाहरण स्वरूप उनका एक हाइकु यहां प्रस्तुत किया जा रहा है-
बादल देख/खिल उठे सपने/खुश किसान
जहां प्रथम हाइकु कवि बालकृष्ण बालदुवा माने गये हैं वहीं प्रथम हाइकु-संग्रह ‘शाश्वत क्षितिज‘ को मान्यता प्राप्त हुई। इस संग्रह के प्रेणता डॉ0 भागवत शरण अग्रवाल हैं जिनका यह संग्रह 1985 को प्रकाश में आया था। वस्तुतः यही वह वर्ष है जहां से हाइकु ने पूरी त्वरा से विकास के सोपान चढ़ने आरंभ किये थे।
इसकी आरंभिक विकास-यात्रा में ‘हाइकु भारती‘, ‘त्रिशूल‘, ‘हाइकु दर्पण‘, ‘हाइकु मंजूषा‘, ‘हाइकु यात्रा‘, ‘शब्दाणु‘, ‘हाइकु मंजरी‘, ‘तृतीय‘, ‘ककुक और हाइकु गुंजन‘ इत्यादि पत्र- पत्रिकाएं इस विधा को पूर्णतः समार्पित थीं जिनका जीवन बहुत लम्बा नहीं रहा। इनमे ‘हाइकु‘ एवं ‘त्रिशूल‘ तो अन्तर्देशीय पत्रिकाएं थीं। ‘त्रिशूल‘ अभी भी कभी-कभी प्रकाशित होती है। ‘तृतीय‘ एवं ‘ककुक और हाइकु‘ फोल्डर पत्रिकाएं थीं। ‘हाइकु दर्पण‘ एवं ‘हिन्दी-हाइकु‘ नेट पत्रिकाएं हैं किन्तु ‘हिन्दी हाइकु‘ प्रत्येक दृष्टि से जहां नियमित है वहीं इसकी उत्कृष्टता भी उल्लेखनीय है। ‘त्रिवेणी‘ में तॉका, चोका, सेदोका के साथ-साथ हाइकु भी नियमित प्रस्तुत किये जाते है। ‘हिन्दी-हाइकु‘ का हाइकु के विकास में सबसे उत्कृष्ट योगदान है।
वर्तमान में तो प्रायः साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएं इस विधा को ससम्मान स्थान दे रही हैं जिनकी सूची बहुत लम्बी है। दर्जनों पत्रिकाओं ने समय-समय पर विशेषांक भी प्रकाशित करके इस विधा के विकास में अपनी सराहनीय भूमिका का निर्वाह किया है।
प्रायः हाइकुकारों के एकल संग्रह प्रकाश में आ चुके हैं, जिनकी संख्या अनुमानतः दो-सौ के आसपास हो सकती हैं संपादित संकलन भी लगभग एकाध सौ हो सकते हैं। किन्तु यह संख्या संतोषजनक नहीं है। इस विधा पर केन्द्रित शोधकार्य भी हुए हैं जिनकी संख्या लगभग छः है। किन्तु इस विधा पर कुछेक आलोचनात्मक पुस्तकों का प्रकाशन भी हुआ है जिनकी संख्या एक दर्जन से अधिक नहीं है। इस विधा के विकास में कुछ गोष्ठियां एवं सम्मेलन भी हुए हैं जिनकी संख्या बहुत उत्साहवर्द्धक नहीं है। विगत तीन वर्षो से ‘हाइकु-तॉका विकास परिषद्‘ (पटना) संस्था काफी सक्रिय है जिसकी रिपोर्ट्स पत्र-पत्रिकाओं एवं नेट पर देखी-पढ़ी जा सकती है। तात्पर्य यह है अभी हाइकु को काव्य की अन्य विधाओं के समक्ष सीना तान कर पूरी ताक़त से खड़ा होने हेतु प्रत्येक क्षेत्र में पर्याप्त कार्य समर्पणभाव से करना होगा।
प्रसन्नता का विषय है हाइकु के विकास में संकलनों की श्रृंखला में अब एक नया नाम ‘हाइकु व्योम’ जुड़ने जा रहा है। इस संकलन की संपादक चर्चित हाइकु-लेखिका उषा अग्रवाल ‘पारस’ हैं। इस संकलन में नये-प्रौढ़ कुल मिलाकर 54 कवियों के 15-15 हाइकु यानी कुल 5415 हाइकु संकलित किये गये हैं। इस संकलन में प्रौढ़ हाइकुकारों ने भी अपनी भावी प्रौढ़ता एवं ख्याति के द्वार पर जोरदार दस्तक दी है। शेष सभी नये कवि-कवयित्रियों भी सुखद संभावनाओं से लबालब हैं। इन सभी हाइकु कवि/कवयित्रियों के योगदान से ‘हाइकु व्योम‘ पूरी ताकत से खड़ा हुआ है।
इस व्योम के नीचे सारा जगत् है जिसे हम अपनी छत मानते हैं वहां अपने को सुरक्षित भी समझते हैं किन्तु यदि उस छतरी में छेद हो जाए तो क्या होगा? पानी टपकेगा/बरसेगा यानी वर्षा होगी।
वर्षा ऋतु पर अनेक हाइकुकारों ने अनेक श्रेष्ठ हाइकु रचे हैं किन्तु डॉ0 सुधा गुप्ता के निम्न हाइकु की बात ही कुछ और है। हाइकु देखें- आकाश-छत/छेदों भरी छतरी/टपक रही
वर्षा का चित्रण जिस शिल्प में किया गया है वह अद्वितीय है। इसमें कहीं भी सपाटता का स्पर्श तक नहीं है, हर शब्द अपने आप में काव्यात्मकता लिये है। शब्दों का क्रम एवं अनुशासन विषयानुकूल सटीक है। पूरा हाइकु प्रतीकात्मकता एवं सांकेतिकता में प्रस्तुत होने के बावजूद संप्रेषणीयता का कहीं कोई संकट नहीं है। हाइकु पढ़ते ही पूरा हाइकु अपने भावार्थ के साथ ही स्वतः संप्रेषित हो जाता है।
वर्षा-ऋतु को चित्रित करते अनेक हाइकु इस संकलन में संकलित हैं। किन्तु जो बहुत ही सहजता से प्रथम दृष्टि में ही किसी का ध्यान आकर्षित कर लें, वो क्षमता क्रमशः सुषमा अग्रवाल एवं केशव शरण के क्रमशः निम्न हाइकुओं में है –
बरखा आयी/विरहन का मन/सुलगा गयी
छाते ही घटा/विरह से विदग्ध/हृदय फटा
उपर्युक्त दोनों ही हाइकुओं में प्रेमी-प्रेमिका के विरह का चित्रण है जिसमें परोक्षतः सावन माह का चित्रण हुआ जो बिना किसी अतिरिक्त श्रम के सहज ही संप्रेषित हो जाते हैं। यही इन हाइकुओं की विशेषता है।
‘हाइकु-व्योम‘ में अनेक कवि-कवयित्रियों ने प्रायः सभी ऋतुओं को अपने-अपने ढंग से, अपने-अपने हाइकुओं का विषय बनाया है। इनमें कतिपय ऐसे है जों पढ़ते ही हृदय की गहराइयों में उतर जाते हैं। ऐसे ही हाइकुओं में अनिता ललित का निम्न हाइकु विशेष रूप से अवलोकनीय है-
सर्दी की धूप/शर्माकर झांकती/छिप-छिपके
प्रसन्नता का विषय है कि इस संकलन में हाइकु की परंपरा को ध्यान में रखकर प्रकृति पर केन्द्रित पर्याप्त हाइकुओं का सृजन किया गया है। इसके साथ ही रचनाकरों ने समसामयिक समस्याओं पर भी स्वयं को केन्द्रित किया है। हमारी समसामयिक समस्याओं में अधिक रेखांकित करने योग समस्या प्रदूषित पर्यावरण की है। पर्यावरण समसामयिक समस्या होने के साथ-साथ प्रकृति से भी सम्बद्ध है। इस विषय पर भी इस संकलन में अनेक-अनेक हाइकु हैं जो हमारा ध्यान आकर्षित करते है। किन्तु उनमें से भी उमेश महादोषी, कमलेश चौरसिया, रूबी महतो के क्रमशः निम्न हाइकु विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं। देखें-
ये गंगा मैली/साधो, करता कौन?/तोड़ो न मौन
तिनका लिये/चिड़िया थक गयी/डाली न मिली
मोर दुखी है/गुदगदाता नहीं/अब मौसम
इन तीनों हाइकुओं की भिन्न-भिन्न संवेदनाएं हैं जो पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने हेतु सोचने को विवश करती है। प्रकृति-चित्रण करती अन्य जिन रचनाकारों की रचनाएं हृदय-स्पर्श करती हैं उनमें उषा ‘अग्रवाल ‘पारस’, डॉ. भावना
कुंअर, अशोक आनन इत्यादि प्रमुख है। हालांकि इन तीनों रचनाकारों की संवेदनाएं बिल्कुल भिन्न हैं। अशोक आनन का हाइकु शब्दों में एक सुन्दर दृश्य या चित्र कह लें, प्रस्तुत करता है। ऐसा दृश्य प्रायः सभी ने जीवन में कभी-न-कभी अवश्य देखा होगा किन्तु इसे हाइकु का विषय बहुत ही सुन्दर ढंग से अशोक आनन ने बनाया। यह चित्र व्याख्या की मांग नहीं करता यह स्वमेव ही संप्रेषित है। किन्तु यह एक सुन्दर एहसास तो अवश्य करा देता है। हाइकु देखें-
तितलियों ने/फूलों पे फिर लिखे/होठों से श्लोक
डॉ0 भावना कुॅअर का हाइकु बहुत ही सुन्दर ढंग से ‘ओस‘ को चित्रित करता है। डॉ0 भावना कुॅअर सिद्धहस्त हाइकु-कवयित्री हैं, यह उनके हाइकु-संग्रहों से भी स्पष्ट है। हाइकु देखें एवं महसूस करें ओस को-
मोती की माला/टूटकर बिखरी/घास पे मिली
वस्तुतः यह हाइकु बहुत ही मुलायम एवं नाजुक है। यह ऐसा एहसास देता है कि इसका स्पर्श किया कि टूटकर गिर जाएगा……… मैला हो जाएगा।
उषा अग्रवाल ‘पारस‘ जो इस संकलन की संपादक भी हैं, ने शताधिक हाइकु को रचा है। वह अपने हाइकुओं का पाठ भी बहुत सुन्दर ढंग से करती हैं। इनके हाइकुओं की विशेषता यह है कि उनमें भी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष रूप से उनका आत्मविश्वास एवं उत्साह अपना सुखद एहसास कराता है। खूबी यह है कि वह अपनी बात कहने हेतु प्रकृति को ही अपनी अभिव्यक्ति का उपादान बनाती हैं, जिसमें प्रायः उनको सफलता मिलती ही है। इस संकलन में प्रकाशित मेरी बात को सत्यापित करता यह हाइकु देखा जा सकता है-
खूब बढूंगी/चंदा, सूरज नहीं/नभ बनूंगी
ऐसा नहीं है कि इस संकलन में मात्र प्रकृति केन्द्रित हाइकु ही संकलित है, इसमें जीवन के शाश्वत एहसास के साथ-साथ जीवन के अन्य प्रायः सभी पक्षों पर केन्द्रित हाइकु भी संकलित हैं। अब कुछेक प्रेमपरक हाइकुओं की चर्चा यहां प्रासंगिक है। अगर गहराई तक जाकर विचार करें तो यह भी प्राकृतिक देन है। प्रेमपरक हाइकुओं में जिनके हाइकुओं ने दिल को छुआ है उन कुछेक कवि-कवयित्रियों में रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु‘, ब्रजेश नंदन, डॉ0 ज्योत्सना शर्मा, माला वर्मा, राजीव कुमार श्रीवास्तव ‘नसीब‘, विनीता यादव इत्यादि प्रमुख है। यह सत्य है इन उपर्युक्त रेखांकित रचनाकारों के हाइकु प्रेम-संवेदना से जुड़े हैं, मगर फिर भी वे आपस में नितान्त भिन्न हैं। रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु‘ का हाइकु जहां प्रेम की पवित्रता के साथ-साथ सकारात्मकता के साथ प्रस्तुत करता है, वहीं ज्योत्सना शर्मा का हाइकु संघर्ष और प्रतीक्षा के पश्चात् मिले प्रेम को सकरात्मकता के साथ प्रस्तुत करता है। माला वर्मा का हाइकु सूफियाना प्रेम को प्रत्यक्ष करता है। ब्रजेश नंदन का हाइकु प्रेम की आवारगी को पेश करता है। राजीव कुमार श्रीवास्तव ‘नसीब‘ का हाइकु वासनाभाव को हाइकु प्रत्यक्ष करता है यानी दैहिक प्रेम को महत्व देता है और विनीता यादव का हाइकु प्रेम हुए धोखे को सामने लाती हैं। यानी प्रेम के विभिन्न शेड्स को इन कवियों ने क्रमशः इस प्रकार सामने रखा है।
क्रमशः इनके उदाहरण भी देखें-
तेरी छुअन/मानो दे गया कोई/नया जीवन
स्याह थी रात/तेरी यादों ने आके/उजाला किया
एक लहर/उठती है मन में/तू मेरा है न ?
बावरा मन/डोलता इत-उत/जैसे पवन
समेटने को/बांहों से आसमान/तैयार मन
करके प्यार/धोखे से हरजाई/करते वार
यहां ध्यातव्य यह है राजीव का प्रस्तुत हाइकु जहां प्रेमपरक वहीं वह उत्साह एवं आत्मविश्वास से कुछ कर गुज़रने के भाव को भी बल देता हे। वस्तुतः कविता की यही तो विशेषता है कि अनेक बार एक ही कविता कई-कई अर्थ दे जाती है। यह विशेषता कविता को सफलता प्रदान करती है।
इस संकलन में चर्चित हाइकु कवयित्री डॉ0 हरदीप कौर सन्धु एवं पुष्पा जमुआर के मां एवं बच्चे के मध्य वात्सल्यभाव को दर्शाते बहुत ही उत्कृष्ट हाइकु हैं, जिन्हें हिन्दी के प्रतिनिधि हाइकुओं में शामिल किया जा सकता है। क्रमशः दोनो कवयित्रियों के हाइकु देखें-
गोद में नन्हीं/मां के आंचल ज्यों/खिली चांदनी
बालक हंसा/मां के आंगन में ज्यों/चांद उतरा
इन दोनों की संवेदना भी प्रायः एक है किन्तु प्रस्तुति भिन्न-भिन्न हैं। ये दोनों ही भावुक पाठकों को भावुकता के अन्तिम छोर तक ले जाने की क्षमता रखते हैं। यह इन हाइकुओं की अतिरिक्त विशिष्टता है।
इस संकलन में दार्शनिक हाइकु भी पर्याप्त हैं किन्तु जो पढ़ते ही हृदय की गहराइयों तक जाकर सोचने को विवश करे, वह मृणालिनी घुले का निम्न हाइकु है। देखें –
सांझ की बेला/अस्त होता सूरज/बड़ा अकेला
जीवन के अंतिम समय के विषय में प्रत्यक्ष करता है कि आये भी अकेला, जाये भी अकेला, जाये भी अकेला, दो दिन की जिं़दगी है, दो दिन का मेला यही हर व्यक्ति के जीवन का सच है।
वर्तमान में साहित्य की ऐसी कोई भी विधा नहीं है जिसमें राजनीति पर चर्चा न हो। होनी ही चाहिए। क्योंकि इसका संबंध देश के संचालन से है अतः इसमें प्रत्येक देशवासी की रूचि चाहिए। साहित्यकारों का भी यह दायित्व बनता है कि वह अपने समय की सच्चाइयों को निर्भय होकर अपने लेखन में व्यक्त करें, जो ऐसा नहीं करता, मेरी दृष्टि से वह ईमानदार साहित्यकार नहीं है। कारण हम अपने समय से मुंह नहीं मोड़ सकते। हमें मोड़ना भी नहीं चाहिए। हाइकुओं ने अपने दायित्व को समझा और राजनीति को केन्द्र में रखकर अनेक-अनेक हाइकु दिये हैं, किन्तु जो ध्यान खींचने के साथ-साथ सोच-विचार करने हेतु उत्प्रेरित भी करते हैं उनका उल्लेख यहां प्रासंगिक है। ऐसे रचाकारों में ऋतु सिन्हा, डॉ0 सुषमा सिंह, रवीन्द्र देवघरे ‘शलभ‘, प्रवीण कुमार श्रीवास्तव इत्यादि के नाम उल्लेखनीय हैं। ऋतु सिन्हा रानीतिज्ञों की वर्तमान फितरत पर व्यंग्य करती हुई कहती है
सियासी खेल/गधे को भी आदमी/कहते लोग
रवीन्द्र देवघरे ‘शलभ‘ भी राजनीतिज्ञों पर व्यंग्य की चोट करते हुए कहते है-
जय किसान/देश कृषि प्रधान/मरे किसान
प्रवीण कुमार श्रीवास्तव ने भी वस्तुतः राजनीतिज्ञों की गलीज़ राजनीति पर व्यंग्यात्मक प्रहार ही किया है –
बिना आग के/जला रहे हैं गांव/चुनावी दांव
डॉ0 सुषमा सिंह ने व्यंग्य का सहारा नहीं लिया किन्तु कलात्मक ढंग से राजनीतिज्ञों की सच्चाई को प्रतीकों के माध्यम से बहुत करीब से अपनी बात को प्रस्तुत करने में सफलता पायी है। हाइकु देखें-
रंगे सियार/हैं बड़े होशियार/करें शिकार
उपर्युक्त सभी हाइकु अपने-अपने ढंग के हैं जो अपनी भिन्न-भिन्न संवेदनाओं के कारण वांछित प्रभाव छोड़ने में सफल हुए है।
सुरेखा देवघर ‘शर्मा‘ ने प्रशासन पर प्रहार किया कि स्वार्थ की अंधी दौड़ में लोगों ने कानून को गलत विश्लेषित करके उसे अंधा साबित करने की कुचेष्टता की है। ऐसे में आम आदमी बेचारा लाचार होकर सब सहने को विवश है। हाइकु देखें-
अंधा कानून/स्वार्थ की अंधी दौड़/हारा इंसान
अन्यान्य विषयों पर अनेक श्रेष्ठ हाइकु इस संकलन में मौजूद है जो अपनी सुखद उपस्थिति का एहसास भी कराते हैं किन्तु ग़रीबी को केन्द्र में रखकर वंदना सहाय ने जो हाइकु रचा है वह अद्भुत है, देखें –
भूखा क्या लिखे/उसे तो ये चांद भी/रोटी-सा दिखे
चांद का रोटी दिखना कोई नया बिंब नहीं है। अनेक उस्ताद शायरों ने इसका उपयोग किया है, किन्तु यहां चांद जिस ंरूप में आया है वह अपना वांछित प्रभाव छोड़ जाता है। और अंत में अंधविश्वास से केन्द्र में रखकर रचा गया विभा रश्मि का यह हाइकु अवलोकनीय है-
अंध विश्वास/लौह-पाश में बंद/विकास मंद
यहां कवयित्री अंधविश्वास को नकारती है कि अंधविश्वास जिसने किया उसका विकास अवरूद्ध हो जाएगा और यह बात भी सत्य है।
इन कवि-कवयित्रियों के अतिरिक्त जिन कवि-कवयित्रियों के हाइकु अपना वांछित प्रभाव छोड़ने में समर्थ हैं उन कतिपय लोगों में डॉ0 रघुनंद चिले, अलका मिश्रा, डॉ0 कृष्णा श्रीवास्तव, कांता देवांगन, पायल लक्ष्मी सोनी, शोभना मित्तल ‘शुभि‘, डॉ0 लता सुमन्त, प्रभा मेहरा, डॉ0 रेखा कक्कड़, सरिता भिवसरिया, श्रवण कुमार पाण्डेय इत्यादि का नाम भी लिया जा सकता है।
‘हाइकु-व्योम‘ के हाइकुओं का अध्ययन करने के क्रम में बहुत सुखद अनुभव हुआ कि प्रौढ़ों के साथ नये लोग भी इस विधा के विकास में पर्याप्त रूचि ले रहे हैं, जो विधा के उज्जवल भविष्य की ओर संकेत करता है। नये लोगों ने हाइकु लिखने में काफी श्रम किया है किन्तु उन्हें अभी यह समझना बाकी है कि कवित्व किसे कहते हैं ? कवित्व को समझे बिना हाइकु तो क्या कोई भी काव्य-विधा श्रेष्ठता के साथ नहीं लिखी जा सकती है।
यहां मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि साहित्य में ‘नया‘ अथवा ‘प्रौढ़‘ वय के अनुसार नहीं माना जाता। साहित्य में आप जिस विधा को जितने समय से साध रहे हैं इस उम्र साधना की अवधि के अनुसार उन्हें साहित्य में ‘नया‘ अथवा ‘प्रौढ़‘ कहा जाता है।
देखने में ही यह विधा लघु है किन्तु इसके लिखने यानी कागज़ पर उतारने से पूर्व अपने भीतर काफी सोचने एवं विचार करने की आवश्यकता होती है। काफी चिंतन-मनन करना होता है। जब तक आपका चिंतन-मनन प्रौढ़ होकर हाइकु के अनुशासन को पूरा करते हुए सहज प्रवाह में अभिव्यक्त होने की स्थिति में न आ जाए, तब तक उसे काग़ज़ पर उतारने से परहेज करना चाहिए।
इस संकलन में हाइकुओं ने अनेक-अनेक श्रेष्ठ हाइकु दिये हैं और हाइकु विधा के विकास में अपना वांछित योगदान देना शुरू किया है। विश्वास है, भविष्य में भी वे इस विद्या का सृजन बराबर करते रहेंगे तो निश्चित है एक दिन वे अपने को यह कह पाने में समर्थ हो पायेंगे-
ऐ आसमान!/अपनी ऊँचाई पे/गर्व न कर, /कुछ और ऊँचा हो जा/ तो भी तुझे छू लूँगा।
डॉ. सतीशराज पुष्करणा
संरक्षक
हाइकु-तांका विकास परिषद्
पो. महेन्द्रू, पटना-800006 (बिहार)